Followers

Thursday 11 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र - 4

राजनेताओं के स्वार्थ ने ही भुला दिया गांधीवाद 

  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चिंतन केवल भारत तक ही सीमित नहीं था। उनका चिंतन सम्पूर्ण विश्व और मानवता के हित का था। यह सच है कि शायद हिंसात्मक आन्दोलन से भारत को अंग्रेजों की परतंत्रता से शीघ्र मुक्त करा लिया जाता लेकिन वह हिंसा से प्राप्त आज़ादी के दुष्परिणामों से परिचित थे। वह नहीं चाहते थे कि आज़ादी के बाद उस हिंसा के अवशेषों से भारत का रूप विकृत हो, यही वह वजह थी कि गांधीजी ने देश को गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए अहिंसात्मक मार्ग अपनाया। तब भी देश ने आज़ादी के साथ ही विभाजन की त्रासदी का भी सामना किया। उस विभाजन में लाखों हिन्दू-मुसलमानों का रक्त बहा। वह कषक आज भी बरकरार है और देश में जहां कहीं भी साम्प्रदायिक फसाद होते हैं उनके पीछे वही मानसिकता आज भी दिखाई देती है। बाद में पाकिस्तान का विभाजन और बांग्लादेश का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय भी हिंसा की कोख से ही हुआ था और उसके बाद से लेकर आज तक बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में शान्ति स्थापित नहीं हो पायी, क्या यह उसी हिंसात्मक प्रवृत्ति की परिणति नहीं है? क्या यह सब देखने के बाद भी गांधीजी के अहिंसात्मक आन्दोलन के बारे में कोई प्रश्न , कोई शंका करने की गुंजाइश शेष रह जाती है?
     उनका दर्शन सम्पूर्ण मानवता का हित था, इसीलिये वह तब भी हिंसा का विरोध करते रहे जब अंग्रेजों की कुटिल मानसिकता के कारण जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ और लाखों भारतीयों को बेवजह मौत के घाट उतार दिया गया। अंग्रेज इस देश पर अनाधिकृत और बलात काबिज थे , तब भी गांधीजी नहीं चाहते थे कि भारत के लोग उनके खून से अपने हाथ रंगें।प्रगति और उसके स्थायित्व का हेतु शान्ति में है, हिंसा में नहीं। आज भारत में जो भी हिंसात्मक घटनाएँ हो रही हैं या आज़ादी के पैंसठ वर्षों के बीच हुयी हैं, उनका कारण राजनैतिक स्वार्थपरता है। वे जो अपनी स्वार्थपरता के कारण मानव रक्त के प्यासे हैं, उनसे राष्ट्र और समाज हित की अपेक्षा करना भूल है और वह भूल हम लगातार करते आ रहे हैं। जो वर्ग और सम्प्रदाय की दीवारें खड़ी कर राष्ट्र की समरसता को नष्ट करने पर आमादा हैं , उन्हें राष्ट्र का हितचिंतक कैसे माना जा सकता है? काश ! यह बात देशवासियों और मतदाताओं की भी समझ में आती और वे जातीयता, साम्प्रदायिकता तथा क्षेत्रीय हितों से ऊपर उठाकर सम्पूर्ण राष्ट्र और मानवता के हित में सोच पाते। गांधीजी का चिंतन विशद था और हम अपनी संकीर्णताओं से बाहर नहीं आ पा रहे हैं, यही कारण है कि न तो हम गांधीवाद के प्रति आस्थावान रह गए हैं और न ही गांधीजी के प्रति।
      इस विकृति को मजबूत करने में भारत की राजनीति का बड़ा योगदान है। सम्प्रदाय और जातिवाद के पक्षधर दलों के बाद क्षेत्रीय हितों की राजनीति करने वाले कितने ही दल अस्तित्व में आये और फूले-फले। यह कहना भी गलत होगा कि शिक्षा के अभाव के कारण लोग ऐसे दलों के बहकावे में आ गए। शिक्षित समाज भी इस विकृति के लिए कम दोषी नहीं है।यह बात अलग है कि शिक्षित समुदाय नेतृत्व के ज्यादा निकट हो जाता है और ज्यादा लाभ भी उठाता है, किन्तु क्या वे अपने निजी स्वार्थों के लिए आम आदमी और राष्ट्र के साथ घात नहीं कर रहे हैं? कालान्तर में वोट की राजनीति और क्षेत्रीय दलों की प्रतिद्वंदिता में राष्ट्रीय कहे जाने वाले दलों ने भी वही नीति अपनाई और राजनेताओं के सत्ता मोह में गांधीवाद क्या गांधीजी स्वयं भी तिरोहित कर दिए गए।
     गांधीजी को भारतीय मुद्रा पर अंकित कर दिया गया और प्रायः हर बड़े शहर के चौराहे पर गांधीजी को पत्थर की मूर्ती के रूप में स्थापित कर राष्ट्र ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली। हर वर्ष 2 अक्टूबर अर्थात जन्मदिवस और 30 जनवरी अर्थात निर्वाण दिवस पर इन गांधी प्रतिमाओं पर तथाकथित राजनेता पुष्पांजलि अर्पित कर और कथित गांधीवादी गोष्ठियों का आयोजन कर और अखबारों में प्रेस विज्ञप्तियाँ भेजकर अपने अपना कर्त्तव्य पूर्ण मान लेते हैं। यह परम्परा बन गयी है। इन दो तिथियों के अतिरिक्त वर्ष भर ये प्रतिमाएं पक्षियों की बीट से सनी रहती हैं। अनेक प्रतिमाओं के चबूतरों पर दारूबाजों की बोतलें लुढ़कती नजर आती हैं, जुआरिओं द्वारा ताश की गड्डियां फेटी जाती हैं या युवा प्रेमी युगलों का प्यार परवान चढ़ता और बिखरता है। पुलिस के जवान कहीं सूट - बूट  से लैस सिगरेट के काश खीचते नजर आते हैं, या गिरहकट जेबतराशी का रोजनामचा तैयार करते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत है जिसे प्रशासनिक अमला भी अनदेखा करता है और राजनेता भी। वे क्यों रोकें- टोकें, क्यों अपने मतदाताओं को नाराज करें। क्या यही है राष्ट्रपिता का सम्मान?
      देश के राजनेताओं ने गांधीजी के नाम का इश्तेमाल प्रायः वोट हथियाने के अश्त्र के रूप में किया है। देश की प्रायः सम्पूर्ण राजनीति का आधार ही झूठ है। वे संवैधानिक पदों की निष्ठा की शपथ लेते हैं और बाद में उस शपथ के सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। यदि ऐसा न होता तो देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा भी नहीं होता। सच यह है कि राजनीति के वर्त्तमान स्वरुप के बरकरार रहते गांधीवाद और गांधीजी के सपनों के भारत के साकार हो पाने की कल्पना करना रेत पर रेत का महल तैयार करना है और इसके सिवा कुछ नहीं।
                                                                            - डॉ . हरीराम त्रिपाठी 

No comments:

Post a Comment