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Thursday 27 December 2012

जनसरोकारों का विरोधी है कारपोरेट मीडिया

                      जनसरोकारों का विरोधी है कारपोरेट मीडिया 

        पिछले डेढ़ दशक के दौरान मीडिया का विस्तार बहुत तेजी से हुआ है और इस विस्तार में मीडिया का वास्तविक स्वरुप उतनी तेजी से विकृत भी हुआ है। इस समय देश का शायद ही कोई ऐसा कारपोरेट घराना होगा जिसका अपना मीडिया हाउस न हो अथवा जिसके पास मीडिया हाउसों के शेयर न हों। यही वजह है कि लोकतंत्र का प्रहरी कहे जाने वाले मीडिया की भूमिका कारपोरेट घरानों के चौकीदारों में बदल गयी है। उनके पास अनाप-शनाप पैसा है और इसी पैसे ने समाचार-पत्रों के बहुरंगी तथा बहुपृष्ठीय संस्करणों की बाद पैदा की तो बड़े-बड़े इलेक्ट्रानिक चैनलों की प्रतिस्पर्धा को भी जन्म दिया है।आज 32 या 40 पृष्ठों तक का बहुरंगी समाचार-पत्र महज चार रुपये में उपलब्ध हो जाता है। प्रकाशन संस्थान अपने वितरकों/ विक्रेताओं को अंकित मूल्य पर 40 फीसदी तक कमीशन देता है, कुछ फीसदी वितरकों/ हाकरों की बिकने से बची प्रतियां वापस भी लेता है और सुदूर क्षेत्रों या जिलों न\में समाचार-पत्रों के बण्डल स्वयं किराए के वाहनों से पहुंचाने की व्यवस्था भी करता है। अंततः चार रुपये के अखबार की बिक्री में प्रकाशन को अधिकतम डेढ़ रुपये ही वापस मिलता है जबकि कागज़, छपाई तथा अन्य खर्चों को मिलाकर ऐसे अखबारों की लागत कीमत करीब 12 रुपये प्रति कापी बैठती है।
        अब सवाल उठाता है कि इतना घाटा उठाकर मीडिया हाउस अखबार कैसे चला रहे हैं , कैसे प्रकाशित कर पा रहे हैं ? और इसका जवाब यह है कि कोई भी उद्यमी या व्यापारी कभी घाटे का व्यापार नहीं करता, अर्थात ऐसे सभी अखबार दिन दूनी- रात चौगुनी आर्थिक प्रगति कर रहे हैं।वे सरकारी सुविधाओं और विज्ञापनों का वह हिस्सा भी डकार रहे हैं जो अन्य छोटे और मध्यम श्रेणी के अखबारों का है। इनके खिलाफ उठने वाली छोटे और मध्यम श्रेणी के समाचार माध्यमों की आवाज़ भी इसलिए नहीं सुनी  जाती क्योंकि सरकारी विज्ञापन मान्यता और प्रेस मान्यता समितियों में भी कारपोरेट घरानों के मीडिया हाउसों के ही चाकर, दलाल और गुर्गे बिठा दिए गए हैं, जो खुद में पत्रकार से अधिक दलाल हैं। वे सरकारों व सरकारी प्रतिष्ठानों तथा अपने मीडिया हाउसों के हितों के बीच सेतु का काम करते हैं। वे अपने मालिकों के अन्य उद्यमों और व्यवसाय के लिए सरकारों से ठेका , परमिट, कोटा, लाइसेंस, छूट-कटौती और सरकारी सुविधाओं का लाभ दिलवाते हैं और उसके बदले सरकारों का प्रशाश्तिगान करतेहैं। सच मायने में  वे समाचार माध्यमों के सम्पादक नहीं रह जाते, उनकी भूमिका चारण और भाटों की हो जाती है जो अपने अन्नदाता को प्रसन्न रखने के लिए उसकी स्तुति के शलोक रचा करते हैं। क्या आज के मीडिया हाउसों का सच इसके अतिरिक्त भी कुछ है ?
             अब प्रश्न यह है कि क्या ऐसे समाचार माध्यमों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे अपने मालिकान कारपोरेट घरानों अथवा उस सरकारी तंत्र की खामियों,गलतियों और गड़बडियों को सार्वजनिक करने का साहस कर सकते हैं , जिससे वे रोजी पा रहे हैं और लगातार उपकृत हो रहे हैं ?इसका जवाब नहीं में ही होगा , तो फिर आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि कारपोरेट मीडिया कभी ऐसा सच भी सामने लाने का जोखिम उठाएगा जो उसके मालिकों और पृष्ठपोशकों  की असलियत को बेनकाब करने वाला हो ?यह बात केवल मैं ही नहीं कह रहा और न ही यह कोई मनगढ़ंत आरोप हैं क्योंकि इसी सत्य को रेखांकित करते हुए भारतीय प्रेस परिषद् के वर्त्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कांडेय काटजू कई बार कह चुके हैं कि " कारपोरेट समाचार मीडिया हमेशा वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाकर बेमतलब के मुद्दों को ज्यादा अहमियत देता है।"
         जो सच को छुपाने के गुनहगार हैं , वे सच कहने वालों के स्वाभाविक विरोधी हैं, यही कारण है कि आजकल भारतीय प्रेस परिषद् के वर्त्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति काटजू के खिलाफ कारपोरेट मीडिया छद्म अभियान चला रहा है तो कई बार लघु एवं माध्यम श्रेणी का मीडिया भी बड़ों की देखादेखी अज्ञानता में काटजू की आलोचना करता नज़र आता है। बड़े कारपोरेट घरानों का प्रिंट के साथ ही इलेक्ट्रानिक मीडिया क्षेत्र में भी वर्चश्व , मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों का संचालन , अर्थात देश के अधिकाँश मीडिया क्षेत्र पर कब्जा और स्वामित्व के कारण ही देश में बेतरह भृष्टाचार को बढ़ावा मिला है। वजह यह कि जो भृष्टाचार के माध्यम से अनाप-शनाप कमाई कर रहे हैं वे ही ऐसे मीडिया हाउसों के बड़े आर्थिक मददगार हैं तो बहुत सारे साझीदार भी, फिर क्या उनसे जनसरोकारों और सच की अपेक्षा बेमानी नहीं है ?
          भारतीय प्रेस परिषद् के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी .वी .सावंत ने अपने कार्यकाल के दौरान कारपोरेट मीडिया के एकाधिकार को तोड़ने के लिए को-आपरेटिव मीडिया की स्थापना की वकालत की थी , लेकिन उनकी वह बात केवल बात ही रह गयी और उसे भृष्ट सरकारी तंत्र तथा कारपोरेट मीडिया घरानों के गठजोड़ ने साजिश के तहत दफ़न कर दिया। सामाजिक् अधिकारों के पक्ष में आयोजित होने वाले धरने-प्रदर्शन और जनांदोलनों की आवाज़ दबाने में भी कारपोरेट मीडिया की बड़ी भूमिका रही है, क्योंकि ऐसे आन्दोलनों से उनके मालिकों और प्रिष्ठापोशकों के हित प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि देश में अब उस मीडिया पर भी हमले होने लगे हैं जिसे जनसरोकारों का मुखर वक्ता और लोकतंत्र का प्रहरी कहा जाता था।प्रायः ऐसे हमलों के शिकार वे लोग होते हैं जो गुनहगार नहीं हैं  अर्थात वे रिपोर्टर जो समाचारों का संकलन करते हैं।वे तो सच को ही मीडिया हाउसों  तक पहुंचाते हैं लेकिन वहां बैठे मीडिया मैनेजर ( कथित सम्पादक) उस सच को कभी सार्वजनिक नहीं होने देते। वे सोचते हैं कि वे जनाक्रोश से सुरक्षित हैं और जो जनता के बीच जाकर समाचारों या चित्रों का संकलन करते हैं वे जनता के गुस्से का शिकार होने के बाद भी मीडिया हाउस की भूमिका पर उंगली नहीं उठा सकते क्योंकि तब उनके सामने रोजी-रोटी का सवाल खडा हो जाता है। लेकिन ऐसे मीडिया हाउस भी अब सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि सच देर से ही सही अब जनता की समझ में आने लगा है, और यत्र -तत्र ही सही उनके कुचक्र के खिलाफ आवाज भी उठाने लगी है।
       संपादकों का राष्ट्रीय संगठन एडीटर्स गिल्ड तथा पत्रकारों के सबसे बड़े संगठन होने का दावा  करने वाले संगठनों की शीर्ष समितियों में वर्षों से कोई बदलाव नहीं हुआ। प्रबंधन अपने सदस्यों के सर गिनाकर अपने और अपनों के लिए सरकारी सुविधाएं हासिल करता है, विदेश यात्राएं करता है और राजनेताओं की अनुकम्पा हासिल करने के लिए कभी उन्हें सम्मानित करता है तो कभी उनकी स्तुति गान करता है। वास्तविक पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को उन संगठनों में सदस्यता प्राप्त करने में बाधाएं हैं क्योंकि संगठनों पर काबिज लोगों को उनसे अपना एकाधिकार समाप्त होने का खतरा है। यही कारण है कि पिछले एक दशक के दौरान कई नए पत्रकार और मीडिया संगठनों का उदय हो चुका है और उनमें से कई वास्तव में पत्रकार हितों की लड़ाई लड़ते और जनसरोकारों के पक्ष में मुखरता से खड़े होते नज़र आ रहे हैं। कारपोरेट मीडिया घरानों की सम्पन्नता और सामर्थ्य के सामने नगण्य और बौने साबित हो रहे लघु और माध्यम समाचार माध्यमों को मजबूरन एकजुट होना पद रहा है जबकि वर्त्तमान में वास्तविक असली मीडिया की भूमिका का वे ही निष्ठापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं और वे ही उपेक्षित हैं।
         शिक्षा,स्वास्थ्य,पेयजल,बिजली, रोजगार,श्रीमिक, किसान, दिहाड़ी मज़दूर, रिक्शे-ठेलेवाले और खोमचेवालों की पीड़ा से कितना सरोकार रखता है कारपोरेट मीडिया ? यह सब तो लघु और माध्यम श्रेणी के समाचार माध्यमों में ही दीखता है और उसकी आवाज़ वर्षों से नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दबाई जाती रही है। कथित न्यूज चैनलों का हाल तो और भी अधिक बुरा है। वे सनसनीखेज समाचारों की होड़ में शामिल हैं तो उनमें सेलेब्रेटीज,भूत-प्रेत की काल्पनिक कहानियां,क्रिकेट,फिल्म,उद्यमी और फ़िल्मी दुनिया की शादियाँ,अपराध, सनसनी,झूठ और मनगढ़ंत भविष्यवानियों को प्रसारित करने की प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त शायद ही कुछ दीखता हो। इस झूठ से समाज बुरी तरह प्रभावित होता है। शायद लोग भूले नहीं होंगे कि  किस तरह वर्ष 2012 में महाप्रलय और दुनिया के समाप्त हो जाने की भविष्यवाणी इन्हीं चैनलों द्वारा भयावह रूप में प्रसारित की जा रही थी। 2012 बीत गया , देश क्या सारी दुनिया में भी ऐसा कुछ नहीं हुआ।
          अब समय आ गया है कि स्वार्थ में आकंठ डूबे न्याय और सच को दबाने वाले मीडिया हाउसों और उनके मालिकों की साजिश के खिलाफ जनता को जगाया जाय और भ्रष्टों, अपराधियों और कारपोरेट मीडिया के गठजोड़ के खिलाफ लोगों को एकजुट किया जाय। यही जनसरोकार है और यही मीडिया का वास्तविक धर्म भी।
                                                                                                                        -एस .एन .शुक्ल 

Friday 14 December 2012

भारतीय राजनीति में बाल ठाकरे और अडवाणी

भारतीय राजनीति में बाल ठाकरे और अडवाणी 

देश की दो बड़ी राजनैतिक शाख्शियतें शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवानी चाहे वे खुद विवादों में रहें हों या विवाद का कारण बने हों लेकिन भारतीय राजनीति में उनके योगदान उनके नजरिये और उनकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। हम उनकी विचारधारा से असहमत हो सकते हैं लेकिन भारतीय राजनीति में हम उनकी हैसियत को अस्वीकार नहीं कर सकते।
           व्यक्ति हो या सत्ता समाज में उसकी स्वीकार्यता उसके प्रभाव या दबाव का परिणाम होती है। दबाव की स्वीकार्यता भय या स्वार्थ के कारण होती है और वह तभी तक रहती है जब तक सत्ता है या व्यक्ति जीवित है। सत्ता और व्यक्ति के अंत के साथ ही उसकी जनस्वीकार्यता भी समाप्त हो जाती है, किन्तु जहां स्वीकार्यता प्रभाव के कारण होती है वहां वह सत्ता चले जाने या व्यक्ति के समाप्त हो जाने पर भी समाप्त नहीं होती। यह बात इसलिए भी प्रासंगिक हो जाती है कि पिछले दिनों शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे की म्रत्यु पर उनकी अंतिम यात्रा में उमड़ी अपार भीड़ और बिना किसी दबाव के मुंबई बंद में किन अर्थों में देखा जाना चाहिए ? मान लेते हैं कि बाला साहेब ठाकरे की ताकत के भय से लोग उनके सामने सिर झुकाते थे, किन्तु उनके निधन के बाद तो आम लोगों का वह भय समाप्त हो जाना चाहिए था। अंतिम यात्रा में जितनी भीड़ बाल ठाकरे के लिए उमड़ी उतनी तो शायद इससे पहले देश में किसी भी लोकप्रिय नेता के अंतिम दर्शन के लिए नहीं उमड़ी होगी। खुलेआम संविधान, चुनाव आयोग, अदालत और व्यवथा को चुनौती देने वाले ठाकरे में कुछ तो ऐसा था कि देश का क़ानून भी उनके सामने सहम उठता था, और शायद इसकी वजह उनकी दबंगई नहीं उनकी लोकप्रियता थी।
          हाजी मस्तान, सुकर नारायण बखिया,यूसुफ़ पटेल और मोहन ढोलकिया जैसे तस्कर सम्राटों की बम्बई में "आमची मुम्बई" का नारा बुलंद करने वाले बाला साहेब ठाकरे ने अपने कृतित्व और प्रयासों से मराठियों के बीच अपनी जो छवि बनायी थी, उसके कारण बड़े-बड़े बाहुबली भी उन्हें चुनौती देने की बात तो दूर उनके सामने सर झुकाने को मज़बूर थे।यह वह दौर था जब देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई (तब बम्बई ) पूरी तरह  तस्कर सम्राटों और उनके गुर्गों के आधिपत्य में थी। बाला साहेब ने न केवल  उन्हें चुनौती दी वरन उनके आधिपत्य को भी तोड़ा।छत्रपति शिवाजी को आदर्श मानकर उन्हीं के नाम पर शिवसेना बनाई , मुम्बई नगर निगम के महापौर से लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, यहाँ तक कि देश का राष्ट्रपति तक बनाने में अहम् भूमिका निभाई लेकिन खुद के लिए किसी राजनैतिक पद की चाहत नहीं रखी। दृढ़ निश्चयी, जो कह दिया वह पत्थर की लकीर हो गया।झुकना और बात को तोड़-मरोड़कर कहना उनकी फितरत में नहीं था।यह सच है कि अपनी ताकत का कई बार उन्होंने बेजा इश्तेमाल भी किया और लगातार आलोचनाओं और विवादों से भी घिरे रहे, लेकिन दूसरा सच यह भी है कि जिसके सर पर उन्होंने वरद हस्त रख दिया, उसकी और टेढ़ी नज़र से देखने का दुस्साहस न तो दाउद इब्राहीम जैसा अंतर्राष्ट्रीय माफिया सरगना कर पाया और न ही सरकार। सोचिये क्या  बाला साहेब की मृत्यु पर लता मंगेसकर ने यूं ही कह दिया था कि " आज वह अपने आप को अनाथ महसूस कर रही हैं।
         बाल ठाकरे ने कभी दुहरी जिन्दगी नहीं जी। खुली किताब जैसी उनकी जिन्दगी थी तो शराब का शौक और सिगार के कश तक डंके की नोक पर। लोग उन्हें मुस्लिम विरोधी ठहराते रहे हैं, लेकिन तब वे भूल जाते हैं कि शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के वह कितने बड़े मुरीद थे।उनकी साफगोई और बेबाकीपन ने ही उन्हें लोगों का चहेता बनाया।उन्होंने लोगों को राजनीति के शिखर पर बिठाया , खुद नहीं बैठे तो जो इतिहास रचकर उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा, उस रिक्ति को भविष्य में शायद ही कोई भर सके।
           ऐसा ही कुछ भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी के बारे में भी कहा जा सकता है। याद करें 1985 के लोकसभा चुनाव को, जब सारे देश से भाजपा को महज दो सीटों पर ही सफलता हासिल हो पायी थी। अटल बिहारी जैसे नेतृत्व के बावजूद हाशिये पर पहुँच गयी भाजपा के बारे में तब कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि वह किसी दिन केंद्र में सत्तारूढ़ होगी और कांग्रेस का विकल्प बनकर खड़ी हो जायेगी।बाद में ऐसा हुआ और वह करिश्मा कर दिखानेवाले बाजपेयी जी नहीं, लाल कृष्ण आडवाणी थे। लोग कहते हैं कि भाजपा राम मंदिर आन्दोलन के रथ पर सवार होकर, और हिन्दुओं की भावनाएं भड़काकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुयी, यदि यही सच्चाई है तो संघ तो आपातकाल के बाद से ही विश्व हिन्दू परिषद् के नेतृत्व में राम मंदिर का झंडा उठाये घूम रहा था, फिर 1985 के चुनाव में भाजपा को सिर्फ दो लोकसभा सीटों पर ही क्यों सिमट जाना पडा था ?
        राम मंदिर मसले को अचानक सारे देश का मुद्दा बना देने का श्रेय  आडवाणी जी को ही जाता है। वह भाजपा जिस पर रूढ़िवादिता और साम्प्रदायिकता के आरोप लगते रहे हैं उसके अखिल भारतीय स्वरुप को मूर्तरूप देने का काम भी आडवाणी ने ही किया था। उन्होंने कांग्रेस की कथित धर्मनिरपेक्षता को खुली चुनौती देते हुए देश की राजनीति को विवादास्पद ही सही लेकिन एक नया दृष्टिकोण , एक नयी दिशा दी। यह वह समय था जब कांग्रेस के समाजवाद के विरुद्ध विकल्प के रूप में अगर कुछ था तो वह वामपंथी विचारधारा ही थी। सच यह है कि स्वयं आधी कांग्रेस इसी वामपंथी सोच और विमर्श से जूझ रही थी। बुद्धिजीवी वर्ग समझ रहा था कि कांग्रेस का गांधी के दर्शन और सिद्धांतों से कोई वास्ता नहीं है, इसलिए वामपंथ को विकल्प के रूप में देखा जाने लगा था।
          आडवाणी की रथ यात्रा और राष्ट्रवाद के साथ हिन्दू आस्था की घुट्टी ने वह करिश्मा कर दिखाया जो अप्रत्याशित था।यह करिश्मा इसलिए भी था क्योंकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ( आर एस एस ) के जिस हिंदुत्व को देश का हिन्दू बुद्धिजीवी ही रूढ़िवादिता कहकर नकार रहा था, उसी हिंदुत्व के पक्ष में आडवानी ने केवल उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत ही नहीं सारे देश में एक बड़ा समर्थक बुद्धिजीवी वर्ग खडा कर दिया। सुधीन्द्र कुलकर्णी, गिरिलाल जैन और चन्दन मित्रा जैसे साम्यवाद के हिमायती बुद्धिजीवियों को हिंदुत्व का प्रखर समर्थक बनाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है, और इतना ही नहीं दक्षिण भारत में भाजपा की नीव डालने में भी सर्वाधिक योगदान उन्हीं का है।
          यह सच है कि अटल बिहारी जैसा वक्ता उस समय देश में शायद कोई दूसरा नहीं था। उनकी सभाओं में उन्हें सुनाने के लिए अपार भीड़ उमड़ती थी लेकिन वह भीड़ वोटों की शक्ल में नहीं बदल पाती थी। आडवाणी ने उस भीड़ को वोटों में बदला, केंद्र में कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा और भाजपा को शहरों से गावों तक आम और ख़ास के बीच स्वीकार्य बनाया। आज यदि भाजपा को ही कांग्रेस के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है तो उसका सिला आडवाणी को ही जाता है। इतना ही नहीं राजग जब भाजपा के नेतृत्व में केन्द में सत्तारूढ़ हुआ तो उसके घटक दलों ने भले ही बाजपेयी के उदारवाद के चलते भाजपा का नेतृत्व स्वीकार किया लेकिन उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तरफ मोड़ने वाले तो आडवाणी ही थे। बाला साहब अब नहीं हैं, आडवाणी जी अभी भी चुस्त-दुरुस्त हैं लेकिन वयोवृद्ध तो हैं ही। हम उनके नजरिये से असहमत हो सकते हैं, उन्हें संकीर्ण विचारधारा का पोषक कहकर उनकी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन भारतीय राजनीति में उनके योगदान और उनकी हैसियत को अस्वीकार नहीं कर सकते।
                      
                                 - एस .एन .शुक्ल

Thursday 13 December 2012

नम्बरदार मीडिया का सच

नम्बरदार मीडिया का सच

          फेशबुक पर 12 दिसंबर को डॉ रहीस सिंह द्वारा पोस्ट की गयी टिप्पणी वास्तव में सोचने को विवास करती है कि आज देश का मीडिया क्या वास्तव में जनसरोकारों से कटता जा रहा है। उनकी टिप्पणी का सार संक्षेप यह था कि उनके घर पर दुनिया के नंबर एक अखबार का प्रतिनिधि बताकर दो सज्जन आये और उन्होंने उनकी धर्म पत्नी से कहा कि यदि वे 100 रूपये जमा करेंगी तो उन्हें एक प्लास्टिक की बाल्टी उपहार में दी जाएगी और एक माँ तक अखबार की प्रतियां मुफ्त में दी जायेंगी उसके बाद में उनका 100 रूपया भी लौटा दिया जाएगा। डॉ रहीस सिंह के अनुसार जवाब में उनकी पत्नी ने कहा कि वे तो उनका अखबार पढ़ती ही नहीं हैं क्योंकि उस नंबर वन कहे जाने वाले अखबार में समाचार का स्तर बहुत न्यून होता है और सारा अखबार विज्ञापनों से पता पडा रहता है। उक्त घटना पर डॉ रहीस सिंह ने ही टिप्पणी करते हुए लिखा था कि "मेरी पत्नी घरेलू महिला हैं यदि किसी गृहिणी की खुद को नंबर वन प्रचारित करने वाले समाचार पत्र के प्रति ऐसी धारणा है तो आम पाठक और बुद्धिजीवी वर्ग का नजरिया क्या होगा ? 
          डॉ रहीस सिंह जैसे वरिष्ठ स्तंभकार आर नियमित लेखक की पत्नी एक गृहिणी ही सही, लेकिन पढी-लिखी हैं और चूंकि घर का माहौल उस तरह का है, इसलिए उन्हें समाचारों के स्तर का आकलन भी बखूबी आता है। यह स्तर क्यों गिर रहा है इसकी वज़ह यह है कि वह चाहें नंबर एक अखबार हो, नंबर दो, तीन, चार या पाँच वे सभी कार्पोरेट घराने के अखबार हैं, जिनमें पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के बजाय प्रशासनिक अधिकारियों, उनकी पत्नियों उप पत्नियों और उद्यमियों के नाम से आलेख और स्तंभ प्रकाशित होते रहते हैं। वे क्या लिखते या लिखवाते होगें यह परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है। अधिकारी लिखेगा तो सरकार को सराहेगा, कमियों पर वार्निश लगाएगा, सरकारी योजनाओं की तारीफों के पुल बांधेगा और उद्यमी लिखेगा तो अपने हित की बात, जहां सच नहीं होगा। सच लिखने का साहस कोई प्रशासनिक अधिकारी और उद्यमी या व्यापारी कर ही नहीं सकता क्योंकि उन्हें तो जो भी वर्तमान सरकार हो उसके सामने जी सर, राइट सर की भूमिका में ही रहना है।
           जहां तक समाचारों की बात है तो तथाकथित बड़े कहे जाने वाले समाचार पत्र समूहों ही नहीं इलेक्ट्रानिक मीडिया चैनलों में भी अहंकार इस कदर हावी है कि उनके नियंता खुद के केबिनों में बैठकर ही मान लेते हैं कि वे जो भी परोस रहें हैं वाही पाठक और दर्शक की पसंद है, तथा उनके अलावा पाठकों और दर्शकों के सामने कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। ऐसे समाचार माध्यमों का सच उनके मालिकों की पूंजी में इजाफा और खुद की ख़ुशी है, क्योंकि मामला नौकरी और रोजो-रोटी का है। वही दूसरा सच भी है कि बड़े कहे जाने वाले अखबारों और चैनलों को सम्पादकों तथा बुद्धजीवियों की आवश्यकता ही नहीं है, उन्हें तो केवल तिकड़मबाज़ मैनेज़र और सिद्धहस्त दलाल चाहिए। यदि ऐसे लोग अखबार की रूपरेखा तय करेंगें, तो फिर आम आदमी भी उन पर उसी तरह उंगली उठाएगा जिस तरह डॉ रहीस सिंह जी की पत्नी ने खुद को दुनिया का नंबर एक कहे जाने वाले अखबार प्रचारित करने वाले समाचार पत्र के खिलाफ उठाई थी।
           जो देश की सरकारी नीतियों में आम जनता के साथ हो रहा है, वही समाचार माध्यमों के साथ भी हो रहा है। देश में प्रत्यक्ष योजनायें आम आदमी के विकास की बनायी जाती हैं, लेकिन उद्यमियों के हितों के लिए उसी आम आदमी की जमीनें जबरन अधिगृहीत कर ली जाती हैं, उन्हें बेघर कर दिया जाता है और आम आदमी के विरोध करने पर उस पर बर्बरतापूर्वक पुलिस की लाठियों और गोलियों से उसका दमन किया जाता है।पश्चिम बंगाल का सिंगुर और नंदीग्राम तथा उत्तर प्रदेश का भट्ठा-पारसौल व दादरी इसके जीते-जागते उदाहरण हैं।यही समाचार माध्यमों की भी दशा है। मीडिया हाउसों के उद्यमी मालिकान, मीडिया संगठनों के शीर्ष पर कारपोरेट घरानों के कर्ता-धर्ता  और मान्यता समितियों में दलालों के वर्चस्व के चलते आप मीडिया से निष्पक्षता की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? भारत के दृश्य-श्रृव्य एवं प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) की नीतियों के अनुसार सरकारी विज्ञापनों का 70 फीसदी लघु एवं मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों को और शेष 30 फीसदी बड़े अखबारों को दिया जाना तय है, लेकिन जब से मीडिया हाउसों पर कारपोरेट घरानों का आधिपत्य हुआ है तब से डीएवीपी भी उल्टी गंगा बहा रहा है।वजह यह है कि वहां भी सरकारी अधिकारी/कर्मचारी ही बैठे हैं जो सत्ता तंत्र के निर्देशों की अवहेलना नहीं कर सकते। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि राज्यों से लेकर केंद्र तक की सत्ता अब बड़े उद्यमियों और दलालों के इशारे पर नाचने को विवश है। वे राजनैतिक दलों के बड़े आर्थिक मददगार हैं, मीडिया हाउसों के मालिक भी हैं, इसलिए सरकारें उनके हितों की नीतियाँ बनाने को विवश हैं।
          आज का मीडिया खबरें गढ़ कर प्रसारित करता है, जो सच से शायद ही वास्ता रखती हों। वह सनसनी बेचता है, अपराधों की रोंगटे खड़ी कर देने वाली कहानियां बेचता है, सेलिब्रिटीज़ के प्रेम-प्रसंग, गाशिप, मंगनी, शादी और किसका किसके साथ अफेयर चल रहा है। किसी बड़े उद्यमी ने शादी में आये बारातियों को कौन से महंगें तोहफे दिए, दहेज़ में कौन-कौन सा कीमती सामान दिया गया, दुल्हन के लहंगे और चोली कहाँ बनें, कितने कीमती थे और उनका रंग कौन सा था, दूल्हे ने कौन सा लिबास पहन रखा था, उसे किस नामी डिज़ायनर ने डिजाइन किया था। दावत में कौन-कौन से लज़ीज़ व्यंज़न बने थे और उनमें कौन सी बड़ी हस्तियों ने शिरकत की, अब यही ख़बरें मीडिया की प्राथमिकता में है। विश्वास नहीं होता तो अभी हाल में ही संपन्न हुई सैफ-करीना की शादी या पिछले वर्षों में ऐश्वर्या-अभिषेक बच्चन की शादी के समय अखबार और पत्रिकाओं का कलेवर देखिये और देखये की कैसे महीनों तक बेगानी शादी के ये अब्दुल्ला दीवाने अब्दुल्ला महीनों तक उन्हीं कहानियों को चटखारे ले-लेकर पाठकों और दर्शकों को परोसते रहें।
          उनके तर्क हैं कि आज का पाठक और दर्शक यही कुछ देखना चाहता है। फिर वह पाठक कौन है जो फेशबुक, ब्लॉग और अन्य सोशल साइट्स पर इस सबके खिलाफ आक्रामक है ? आज का पाठक वर्ग पहले से अधिक विवेकशील है, वह कल्पनालोक में जीना भी चाहता। यही वह वज़ह है कि दो दशक पूर्व जिन सिनेमा हालों की टिकट खिड़की पर दर्शकों की गहमागहमी के कारण पुलिस को लाठियां भांजनी पड़ती थी, उन्हें दर्शक नहीं मिल रहे तो वहाँ मल्टीप्लेक्स विकसित किये जा रहें हैं। इस सच से बेखबर नहीं है मीडिया लेकिन मानने को तैयार नहीं।
            कारपोरेट हांथों में मीडिया के जो भी माध्यम हैं उनके लिए देश का आम आदमी महज एक ग्राहक है, बाज़ार है। उनका ईमान बाजार है, उनकी संवेदना को उनके गुरूर और अहंकार ने जाने कब निगल लिया था। उनकी समझ तिकड़म में बदल चुकी है और जनसरोकारों की जगह वे सनसनी बेंच रहे हैं तो आप उनसे सच की, समाचारों के स्तर की और सामाजिक सरोकारों की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? पाठक और प्रसार संख्या के फर्जी आंकड़े प्रसारित कर खुद के सबसे बेहतर और सबसे आगे कहना अलग बात है और होना अलग बात, एक नंबर, दो नंबर, तीन-चार वाले नम्बरदार मीडिया को भले ही यह अभी अहसास न हो लेकिन उनकी मानसिकता, कार्यप्रणाली और सच छिपाने की प्रवृत्ति के खिलाफ समाज में व्यापक विरोध दिख रहा है और कई बार उनके उन संवाददाताओं को अभ्रद्ता के रूप में सहना पडा है जो अपने अखबार की नीतियों के प्रति जिम्मेदार ही नहीं हैं। जो जिम्मेदार हैं वो अपने वातानुकूलित दफ्तरों में खुद को सुरक्षित महसूस भले ही करते हों लेकिन जब जनता का आक्रोश मुखर होता है तो फिर कोई सुरक्षित नहीं रह पाटा। क्या कभी समझेगा कारपोरेट मीडिया इस सच्चाई को ?

Monday 15 October 2012

मीडिया पर हमला

                                          मीडिया पर हमला 

  अशोक कुमार सिंह 

 लखनऊ 17 अगस्त।अलविदा की नमाज होने तक शहर में ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था कि इस तहजीब के शहर में कुछ अघटित होने वाला है। जो कुछ भी हुआ वह अप्रत्याशित था। हमेशा की तरह आम मुसलमान मस्जिदों से नमाज पढ़कर, अपनों और अवाम की खुशहाली की दुआ मांगकर बाहर निकल रहा था। शायद उन्हें भी किसी अनहोनी की आशंका नहीं रही होगी, नहीं तो वे अपने साथ अपने बच्चों तक को लेकर क्यों आते। रामजान के महीने का मुसलमानों का सबसे ख़ास और सबसे अजीम दिन, इसलिए मीडिया के कैमरे भी कल के अखबारों और समाचारों के लिए छायाचित्र और चलचित्र उतारने को बेताब थे। नमाज के समय और फिर उसके बाद अपने घरों की और लौट रहे लोगों , उनके त्यौहार की खुशियों भरे चेहरों को दर्शाना चाहता था मीडिया। कहीं कोई तल्खी या वादविवाद की बात भी नहीं थी। यद्यपि महज एक सप्ताह पहले देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में मीडिया और पुलिस वालों के साथ उग्र मुस्लिम समुदाय ने जो बदसलूकी की थी वह जेहन में तो था, लेकिन लखनऊ में भी कुछ ऐसा होगा या हो सकता  है इसकी आशंका किसी को भी नहीं थी।
      सब कुछ ठीक ठाक था। लखनऊ की जो संस्कृति है, जो तहजीब है उसी तरह आम मुसलमान और मीडियाकर्मियों के बीच भी दुआ-सलाम और ईद पर आने, बुलाने की चर्चा थी। अचानक एक भीड़ उमड़ी, शायद ये लोग नमाजी नहीं थे, लेकिन वे लग मुसलमान ही रहे थे। उनके हाथों में लाठी-डंडे थे और लग रहा था जैसे वे कहीं धावा बोलने, किसी पर हमला करने जा रहे थे। उनके आक्रामक तेवरों से आम मुसलमान भी भौचक्का था। उसे भी यह समझ नहीं आ रहा था कि वे लोग इस कदर गुस्से में क्यों हैं। हम लोग अर्थात हमारे पत्रकार और छायाकार साथी उनसे कुछ पूछने, उग्रता की वजह जानने के लिए आगे बढे और सबसे पहले उनके आक्रोश का वे ही निशाना बने। फिर तो  प्रायः हर मीडियाकर्मी निशाने पर था और विशेषकर छायाकार, क्योंकि उनके कैमरे दूर से ही उनकी पहचान करा रहे थे कि वे मीडिया वाले हैं। कैमरे तोड़े गए, मीडिया से मारपीट की गयी। शर्मशार हुआ लखनऊ क्योंकि इससे पहले अदब के इस शहर में ऐसी बेअदबी पहले कभी नहीं हुयी थी।
       बाद में उन उग्र लोगों ने जो कुछ भी किया, शायद वह पूर्व नियोजित था जैसे बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध और जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्तियों पर हमला, उन्हें ईंट पत्थर चलाकर अपमानित करना और हथौड़े फावड़ों से उन्हें तोड़ना। नमाज़ के साथ काफी संख्या में पुलिस बल भी तैनात था। सुरक्षा एजेंसियां इस अनहोनी घटना को रोकने के लिए पहले से ही चक चौबंद थी। अप्रिय हादशा न हो प्रशासन भी इस घटना का पूर्वाभास लगा चुका था लिहाजा उदासीनता या लापरवाही का आरोप भी नहीं लगाया जाना चाहिए। ये दीगर बात है कि उग्र भीड़ पर पुलिस अपना रोल अदा करती इससे पहले ही घटनास्थल पर तैनात हल्का अधिकारी को ऊपर की ओर से तत्काल फोन करके इस बात का स्पस्ट निर्देश दिया गया की प्रशासन की ओर से कोई भी ऐसी कार्यवाही नहीं की जाएगी जिससे आक्रोश और तनाव बढे। वहीँ होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। इस अदब-ओ-अमन के शहर लखनऊ को धार्मिक उन्माद में जबरन धकेल दिया गया। अल्लामा इकबाल का तराना कि 'मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' झूठा साबित कर दिया उन्हीं के चाहने वालों ने।




Thursday 11 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र - 5

                        हम अपराधी हैं गांधीजी के 

   जिस व्यक्ति ने देश  की स्वाधीनता के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन और स्वाधीनता के पश्चात अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए हों, यदि उसे वह स्वाधीन  राष्ट्र भूल जाय तो क्या इसे कृतघ्नता की अति नहीं कहना चाहिए? महात्मा गांधी ने अपने लिए तो क्या अपने परिवार के लिए भी स्वतंत्र भारत राष्ट्र से कुछ नहीं चाहा था और कृतघ्नता की पराकाष्ठा यह कि उसके बाद जिन सियासतबाजों ने गांधी के नाम पर राजनीति की , खुद को उनका अनुयायी बताते रहे, उनहोंने भी महात्मा गाँधी के परिवार और परिजनों को भारतीय राजनीति में प्रवेश नहीं करने दिया। हम अर्थात हम भारतवासी भी कम दोषी नहीं हैं क्योंकि देश के 95 फीसदी से भी ज्यादा लोग यह नहीं जानते और न ही यह जानने की कोशिश की कि जिस व्यक्ति ने देश और देशवासियों के हित के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उसका परिवार इस स्वाधीन भारत में कहाँ और कैसी हालत में है।
      सत्ता और शासक का अपना स्वभाव होता है। वह स्वयं को सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान मानता है। वह समझता है कि सिर्फ वही सही है और वह जो कुछ भी कर रहा है वही ठीक है। रावण और राम राज्य में बहुत अधिक अंतर मानना उचित भी नहीं है क्योंकि राजा रावण हो तो सीता का अपहरण होगा और राजा राम हो तो सीता का परित्याग होगा। न्याय की अपेक्षा और सम्पूर्ण न्याय की अपेक्षा आप रामराज्य में भी नहीं कर सकते क्योंकि यदि किसी को न्याय मिलेगा तो किसी के साथ अन्याय भी अवश्य होगा। शायद यही सोचकर स्वाधीन भारत के लिए समाजवादी लोकतंत्र का चयन किया गया था कि शासक आम जनता होगी , वह अपने विवेक के अनुसार व्यवस्था का संचालन करने के लिए जनप्रतिनिधियों का चयन करेगी। जनप्रतिनिधि जनता और जनहित के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह होंगे, लेकिन क्या ऐसा हो रहा है?
      स्वाधीन भारत के पैंसठ वर्षों में देश की राजनैतिक प्रगति यह है कि तंत्र दिनोंदिन शक्तिशाली होता गया और लोक निरीह बना दिया गया। राजनेता व्यापारी बन गए, आम जनता के मताधिकार को भी क्षेत्रीयता, जातीयता, साम्प्रदायिकता आदि के खांचों में बाटकर पथ भ्रमित कर दिया गया। जिस तरह व्यापारी अपने खराब माल को भी अच्छा बताकर ग्राहकों के सर मढ़ने का प्रयास करता है उसी प्रकार सियासतबाजों  ने भी खुद को और खुद के दलों के सिद्धांतों को दूसरों से बेहतर बताकर राजनीति का व्यवसायीकरण कर दिया। सारा एश भ्रमित होकर राजनेताओं के चक्रव्यूह में फँसा  है। किसी से भी बात करें, भ्रष्टाचार को कोसता नज़र आता है, किन्तु उन्हीं से पूछिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या कर रहे हैं , तो किसी के भी पास उत्तर नहीं है। आम आदमी का जवाब होगा कि वह कर ही क्या सकता है। यदि यही गांधीजी ने भी सोचा होता , यही स्वाधीनता सेनानियों और क्रांतिकारियों ने सोचा होता तो शायद यह देश कभी भी गुलामी से मुक्त नहीं हो पाता।
      गांधीजी, उनके सहयोगियों और क्रांतिकारियों के अथक प्रयासों से प्राप्त हुयी आज़ादी को यदि हम अक्षुण नहीं रख पा रहे हैं, यदि आज़ादी हमारी अकर्मण्यता के चलते भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती जा रही है तो क्या हम स्वयं अपराधी नहीं हैं? हम विरोध नहीं करना चाहते और चाहते हैं कि सब कुछ ठीक हो जाए, तो क्या यह संभव है? यदि ऐसा ही गांधीजी और स्वाधीनता सेनानियों ने भी सोचा होता तो? हम अपनी विवशताओं का रोना रोते हैं लेकिन क्या उनके सामने विवशताएँ नहीं थीं? आज जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और जो उनका समर्थन कर रहे हैं, उन सबको तिरस्कृत किये जाने की आवश्यकता है, यह साहस कौन जुटाएगा ? ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर सारा देश मौन है। जो ऐसे विरोधों की मुहीम चलाते भी हैं , उनको समर्थन देने के बजाय उनमें ही दाग खोजने की कोशिश होने लगती है।
      अभी पिछले दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का जनांदोलन जब उबाल पर था और सारे देश में " मैं भी अन्ना - मैं भी अन्ना " के स्वर गुंजायमान हो रहे थे , उसी समय सत्तारूढ़ दल के एक प्रवक्ता ने कहा , " अन्ना तुम भी ईमानदार नहीं हो " इस वाक्य का सीधा अर्थ यह निकलता है कि मैं बेईमान हूँ तो तुम भी ईमानदार नहीं हो। पार्टी प्रवक्ता का अर्थ पार्टी पार्टी का मुह होता है, मतलब यह कि उस प्रवक्ता ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि उसका दल बेईमान है। फिर भी देश के, देश मीडिया तंत्र के किसी भी व्यक्ति ने यह नहीं पूछा कि यदि तुम बेईमान हो तो तुम्हें सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? इतना ही नहीं , अन्ना  टीम के सदस्यों पर हमले करने के लिए बाकायदा किराए के गुंडों को लगा दिया गया और आरोप लगाए जाने लगे कि अन्ना आन्दोलन को आर .एस .एस . का समर्थन प्राप्त है। मतलब भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज को भी साम्प्रदायिक करार देने की साजिश और जनता के बीच से कहीं विरोध के स्वर नहीं। क्या इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि हम खुद भ्रष्टाचार को मौन समर्थन दे रहे हैं ?
      लूटतंत्र अंग्रेजों के समय भी अवश्य रहा होगा लेकिन उतना नहीं जितना कि इन दिनों है। कमजोरों पर अन्याय तब भी होता होगा लेकिन क्या आज उससे कम है ? तब विदेशी लूटते थे , आज उनकी मानस संतानें लूट रही हैं। जब गांधीजी ने विदेशी लुटेरों के खिलाफ विरोध का बिगुल बजाया था तब सारा देश उनके साथ उठ खडा हुआ था, आज जब देशी लुटेरों के खिलाफ कोई आवाज उठती है तो हम उसे नैतिक समर्थन देने का साहस भी नहीं करते , फिर  हम सब कुछ व्यवस्थित और ठीक हो जाने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? और यदि हम अन्याय , अनाचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का साहस नहीं कर सकते तो क्या हम स्वयं गुनहगार नहीं हैं ? गांधीजी के जन्मदिवस पर उनके चित्र और प्रतिमा पर माल्यार्पण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेना झूठी श्रृद्धांजलि है। यदि हम विरोध का साहस नहीं जुटा सकते , अन्याय, उत्पीड़न सहकर भी मौन हैं , गलत लोगों को व्यवस्था से बाहर करने की पहल नहीं करना चाहते , तो हम स्वयं अपराधी हैं और गांधीजी तथा गांधीवाद के विरोधी हैं।
                 - शर्मा पूरन 

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र - 4

राजनेताओं के स्वार्थ ने ही भुला दिया गांधीवाद 

  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चिंतन केवल भारत तक ही सीमित नहीं था। उनका चिंतन सम्पूर्ण विश्व और मानवता के हित का था। यह सच है कि शायद हिंसात्मक आन्दोलन से भारत को अंग्रेजों की परतंत्रता से शीघ्र मुक्त करा लिया जाता लेकिन वह हिंसा से प्राप्त आज़ादी के दुष्परिणामों से परिचित थे। वह नहीं चाहते थे कि आज़ादी के बाद उस हिंसा के अवशेषों से भारत का रूप विकृत हो, यही वह वजह थी कि गांधीजी ने देश को गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए अहिंसात्मक मार्ग अपनाया। तब भी देश ने आज़ादी के साथ ही विभाजन की त्रासदी का भी सामना किया। उस विभाजन में लाखों हिन्दू-मुसलमानों का रक्त बहा। वह कषक आज भी बरकरार है और देश में जहां कहीं भी साम्प्रदायिक फसाद होते हैं उनके पीछे वही मानसिकता आज भी दिखाई देती है। बाद में पाकिस्तान का विभाजन और बांग्लादेश का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय भी हिंसा की कोख से ही हुआ था और उसके बाद से लेकर आज तक बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में शान्ति स्थापित नहीं हो पायी, क्या यह उसी हिंसात्मक प्रवृत्ति की परिणति नहीं है? क्या यह सब देखने के बाद भी गांधीजी के अहिंसात्मक आन्दोलन के बारे में कोई प्रश्न , कोई शंका करने की गुंजाइश शेष रह जाती है?
     उनका दर्शन सम्पूर्ण मानवता का हित था, इसीलिये वह तब भी हिंसा का विरोध करते रहे जब अंग्रेजों की कुटिल मानसिकता के कारण जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ और लाखों भारतीयों को बेवजह मौत के घाट उतार दिया गया। अंग्रेज इस देश पर अनाधिकृत और बलात काबिज थे , तब भी गांधीजी नहीं चाहते थे कि भारत के लोग उनके खून से अपने हाथ रंगें।प्रगति और उसके स्थायित्व का हेतु शान्ति में है, हिंसा में नहीं। आज भारत में जो भी हिंसात्मक घटनाएँ हो रही हैं या आज़ादी के पैंसठ वर्षों के बीच हुयी हैं, उनका कारण राजनैतिक स्वार्थपरता है। वे जो अपनी स्वार्थपरता के कारण मानव रक्त के प्यासे हैं, उनसे राष्ट्र और समाज हित की अपेक्षा करना भूल है और वह भूल हम लगातार करते आ रहे हैं। जो वर्ग और सम्प्रदाय की दीवारें खड़ी कर राष्ट्र की समरसता को नष्ट करने पर आमादा हैं , उन्हें राष्ट्र का हितचिंतक कैसे माना जा सकता है? काश ! यह बात देशवासियों और मतदाताओं की भी समझ में आती और वे जातीयता, साम्प्रदायिकता तथा क्षेत्रीय हितों से ऊपर उठाकर सम्पूर्ण राष्ट्र और मानवता के हित में सोच पाते। गांधीजी का चिंतन विशद था और हम अपनी संकीर्णताओं से बाहर नहीं आ पा रहे हैं, यही कारण है कि न तो हम गांधीवाद के प्रति आस्थावान रह गए हैं और न ही गांधीजी के प्रति।
      इस विकृति को मजबूत करने में भारत की राजनीति का बड़ा योगदान है। सम्प्रदाय और जातिवाद के पक्षधर दलों के बाद क्षेत्रीय हितों की राजनीति करने वाले कितने ही दल अस्तित्व में आये और फूले-फले। यह कहना भी गलत होगा कि शिक्षा के अभाव के कारण लोग ऐसे दलों के बहकावे में आ गए। शिक्षित समाज भी इस विकृति के लिए कम दोषी नहीं है।यह बात अलग है कि शिक्षित समुदाय नेतृत्व के ज्यादा निकट हो जाता है और ज्यादा लाभ भी उठाता है, किन्तु क्या वे अपने निजी स्वार्थों के लिए आम आदमी और राष्ट्र के साथ घात नहीं कर रहे हैं? कालान्तर में वोट की राजनीति और क्षेत्रीय दलों की प्रतिद्वंदिता में राष्ट्रीय कहे जाने वाले दलों ने भी वही नीति अपनाई और राजनेताओं के सत्ता मोह में गांधीवाद क्या गांधीजी स्वयं भी तिरोहित कर दिए गए।
     गांधीजी को भारतीय मुद्रा पर अंकित कर दिया गया और प्रायः हर बड़े शहर के चौराहे पर गांधीजी को पत्थर की मूर्ती के रूप में स्थापित कर राष्ट्र ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली। हर वर्ष 2 अक्टूबर अर्थात जन्मदिवस और 30 जनवरी अर्थात निर्वाण दिवस पर इन गांधी प्रतिमाओं पर तथाकथित राजनेता पुष्पांजलि अर्पित कर और कथित गांधीवादी गोष्ठियों का आयोजन कर और अखबारों में प्रेस विज्ञप्तियाँ भेजकर अपने अपना कर्त्तव्य पूर्ण मान लेते हैं। यह परम्परा बन गयी है। इन दो तिथियों के अतिरिक्त वर्ष भर ये प्रतिमाएं पक्षियों की बीट से सनी रहती हैं। अनेक प्रतिमाओं के चबूतरों पर दारूबाजों की बोतलें लुढ़कती नजर आती हैं, जुआरिओं द्वारा ताश की गड्डियां फेटी जाती हैं या युवा प्रेमी युगलों का प्यार परवान चढ़ता और बिखरता है। पुलिस के जवान कहीं सूट - बूट  से लैस सिगरेट के काश खीचते नजर आते हैं, या गिरहकट जेबतराशी का रोजनामचा तैयार करते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत है जिसे प्रशासनिक अमला भी अनदेखा करता है और राजनेता भी। वे क्यों रोकें- टोकें, क्यों अपने मतदाताओं को नाराज करें। क्या यही है राष्ट्रपिता का सम्मान?
      देश के राजनेताओं ने गांधीजी के नाम का इश्तेमाल प्रायः वोट हथियाने के अश्त्र के रूप में किया है। देश की प्रायः सम्पूर्ण राजनीति का आधार ही झूठ है। वे संवैधानिक पदों की निष्ठा की शपथ लेते हैं और बाद में उस शपथ के सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। यदि ऐसा न होता तो देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा भी नहीं होता। सच यह है कि राजनीति के वर्त्तमान स्वरुप के बरकरार रहते गांधीवाद और गांधीजी के सपनों के भारत के साकार हो पाने की कल्पना करना रेत पर रेत का महल तैयार करना है और इसके सिवा कुछ नहीं।
                                                                            - डॉ . हरीराम त्रिपाठी 

Friday 5 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र-3

            बाबा- ए - कौम महात्मा गाँधी 


दुनिया की जिन सख्शियतों ने शोहरत की बुलंदियां हासिल कीं उनमें गांधीजी का नाम सबसे अज़ीम है। उनहोंने सारी ज़िंदगी अहिंसा के नाम कर दी , सारी दुनिया को अहिंसा का उपदेश देते रहे और खुद हिंसा का शिकार होकर शहादत पायी। मालदार परिवार के तीन भाइयों में सबसे छूते होने की वजह से उन्हें परिवार का प्यार और परवरिश दोनों ही अच्छी मिलीं। बचपन माँ की परवरिश में ज्यादा गुजरा जो एक धार्मिक महिला थीं। उनसे सूनी सत्यवादी हरिश्चंद्र और श्रवण कुमार की कहानियों का उन पर गहरा असर हुआ और वह उनके साथ सारी ज़िंदगी रहा।
     जाति से वैश्य होने के बावजूद उनके परिवार का माहौल पूरी तरह सामाजिक था। उनके दादा जूनागढ़ रियासत के दीवान थे इसलिए उनके यहाँ लोगों का आना- जाना ज्यादा था जिनमें हिन्दू और मुसलमान सभी होते थे। इसी माहौल ने उन्हें पूरी तरह धर्म निरपेक्ष बनाने में भारी मदद की। देश में अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद वह वकालत की तालीम हासिल करने इंग्लॅण्ड गए और वहां से बैरिस्टर बन कर वापस लौटे। वह चाहते  तो उन्हें कोई बड़ा सरकारी ओहदा भी मिल सकता था या वह खुद वकालत कर शोहरत और पैसा कमा सकते थे लेकिन अंग्रेज सरकार की ज्यादती और जुल्म तथा भारत के लोगों की दीन - हीन दशा ने उन्हें द्रवित किया और उन्होंने हिन्दुस्तान को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद कराने का फैसला किया। एक हिन्दू पतिवृता औरत की तरह उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा बाई जिन्हें लोग बा के नाम से जानते थे , ने भी गांधीजी को पूरा सहयोग किया और उनकी ताकत बन गयीं।
     हालांकि उस दौर में अंग्रेजों की मुखालफत शुरू हो चुकी थी लेकिन वह विरोध एकजुट नहीं था जिसका फ़ायदा अंग्रेजों को मिल रहा था और वे उन विरोधों का आसानी से दमन कर देते थे। इसकी वजह यह थी की मुखालफत करनेवालों का कोई नेता नहीं था जो उन्हें संगठित कर सके। इसी बीच जलियानवाला हादसा हो गया जिसमें अंग्रेजों ने हैवानियत की हदें पार करते हुए हजारों लोगों को जिनमें बच्चे, बूढ़े और औरतें भी थीं गोलियों से भून डाला। यह कत्लेआम हिन्दुस्तानियों के दिलों में दहशत पैदा करने के लिये किया गया था। जवानों में इस घटना  के खिलाफ गुस्सा था तो आम आदमी में खौफ भी था।उस घटना ने गांधीजी को नयी सोच दी लेकिन सच के लिए उनका फैसला और पक्का हो गया। वह जानते थे कि निहत्थे हिन्दुस्तानी अंग्रेजों की गोलियों से तभी बचाए जा सकते   वे उनका  अहिंसात्मक विरोध करें, उनकी नीतियों का विरोध करें और यह विरोध सारे मुल्क की आवाज़ बन जाय।
    यह वह दौर था जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में फिरकापरस्ती के बीज बो चुके थे और हिन्दुओं- मुसलमानों के बीच नफ़रत की खाई चौड़ी होती जा रही थी। उस वक्त मुल्क को एक ऐसे लीडर, एक ऐसे रहनुमा की जरूरत थी जिस पर सब भरोसा कर सकें और जो सबको साथ लेकर चल सके। यह काम केवल वही आदमी कर सकता था जिसमें लालच न हो, सहन करने की ताकत हो, ईमानदारी हो और लीडर बनाने की काबिलियत भी हो। ये सारी खाशियतें गांधीजी में थीं। वह उच्च शिक्षा प्राप्त बैरिस्टर थे, तर्कों से अपनी बात साबित कर सकते और मनवा सकते थे और सबसे बड़ी सच्चाई की ताकत भी उनके साथ थी। जिसके साथ सच्चाई की ताकत होती है उसके साथ सारी कायनात के मालिक यानी कि खुदाई ताकत मानी जाती है। उसी ताकत की बदौलत बिना हथियारों की लड़ाई लड़े उन्होंने अंग्रेजों पर फतह हासिल की, मुल्क को गुलामी से आज़ाद कराया लेकिन वह अपनों से हार गए।
      उनके ज़ज्बे, उनके त्याग को सारे हिन्दुस्तान ने सलाम किया और उन्हें बाबा-ए - कौम ( राष्ट्रपिता ) के खिताब से नवाजा गया। काश, यह मुल्क उनके बताये रास्ते पर चल पाता , काश उनके ख़्वाबों का हिन्दुस्तान हकीकत में बदल पाता , तो यह मुल्क फिर सारी दुनिया का ताज़ होता। हम सवा सौ करोड़ हिन्दुस्तानी सारी दुनिया के सातवें हिस्से से भी ज्यादा हैं, हमारे पास जेहनियत की भी कमी नहीं है, लेकिन जिन हाथों में आज हिन्दुस्तान की बागडोर है उनकी नीयतें साफ़ नहीं हैं। जम्हूरियत से अच्छी कोई हुकूमत नहीं मानी जाती , लेकिन इन दिनों हिन्दुस्तान में जो जम्हूरियत है उससे तो बेहतर किसी तानाशाह की हुकूमत कही जा सकती है। वहाँ केवल एक ही लुटेरा होता है बादशाह, लेकिन इस मुल्क की हुकूमत में शायद हर कुर्सी लूट के लिए ही बनायी गयी है।बापू नहीं हैं लेकिन यह सब देखकर उनकी रूह को तकलीफ तो होती ही होगी। काश! हम इतना एहसानफरामोश न होते।
          - समीना फिरदौस 

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्तमान लोकतंत्र - 2

      नेताओं ने बेच दिया ईमान को 

                 
     
      जिनका ईमान ही बिक गया हो , वे क्या नहीं बेच सकते।जिनकी बदौलत देश को आज़ादी मिली, वे सौदागर नहीं थे। उन्हें आज़ादी की लड़ाई के बदले कुछ चाहिए भी नहीं था, लेकिन सियासी नेताओं की जात और जमात ने कुछ दिनों तक उन आज़ादी के दीवानों की कुर्बानियों को बेचा , फिर उनके नाम को बेचा और अब मुल्क को बेच रहे हैं। इस मुल्क में अंग्रेजों को पैर जमाने का मौक़ा तब मिला था  जब मुल्क के हुक्मरान ऐयाशियों में डूबे थे। आज हालात फिर वही हैं , रोज ही सियासताबाजों की, नौकरशाहों की रंगरेलियों की नयी- नयी कहानियां सामने आ रही हैं। जो खुद अपनी नीयत नहीं संभाल सकते वे मुल्क संभाल रहे हैं तो मुल्क के जैसे हालात होने चाहिए वैसे ही हो रहे हैं। हुक्मरानों ने खुद को विदेशी हाथों में गिरवी रख दिया है , देश और देशवासियों का सौदा तय हो चुका है। यह जो ऍफ़ डी आई का शोर सुनायी दे रहा है, वह देश के खुदरा बाज़ार पर विदेशी कब्ज़ा कराने की देशी साजिश है। जब सारी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रही थी , तब भी इस मुल्क में आर्थिक मंदी नहीं आयी जैसी कि अमरीका आदि मुल्कों में आयी थी। इसकी वजह यह थी कि यहाँ पूंजी का बहाव थमा नहीं था। हर चौराहे और नुक्कड़ पर, हर गली और मोहल्ले में छोटी- छोटी दुकानें और सुबह से लेकर शाम तक छोटी- छोटी जरूरत की चीजों की लगातार खुदरा बिक्री ने ही इस मुल्क को आर्थिक मंदी से बचाए रखा था।
      अब अगर विदेशी पूंजी देश के बाज़ारों पर काबिज होगी तो उनके बड़े- बड़े शापिंग माल खुलेंगे। चूंकि देश के हुक्मरान इस मुल्क के खुदरा व्यापार का विदेशी हाथों सौदा कर चुके हैं, इसलिए उनके हितों के लिए वे गली- मुहल्लों, नुक्कड़ और चौराहों की फुटकर और छोटी- छोटी दुकानों का धंधा बंद करा देंगे। तब बेरोजगारी और बढ़ेगी। वही ईस्ट इंडिया कंपनी का दौर एक बार फिर देश में दस्तक दे रहा है। तब एक मुल्क की एक कंपनी आयी थी , अब कितने मुल्कों की कितनी कम्पनियां आयेंगी इसका शुमार नहीं है। 
      हमारा ही पानी हमारे ही हाथों बंद बोतलों में बेचा जा रहा है 15 रुपये बोतल। जो मुफ्त मिला करता था क्योंकि वह अपना था , वही अब महंगे दामों पर खरीदना पड़ रहा है। पैसा विदेश जा रहा है क्योंकि बोतलबंद पानी बेचने वाली ज्यादातर कम्पनियां दूसरे मुल्कों की हैं। हमारे साथ क्या हो रहा है , इसे हम समझना नहीं चाहते। यह शुरुआत थी , कल जब और सारी चीजें भी ऐसे ही बिकेंगी तो हम और भी, इससे भी ज्यादा मजबूर होंगे। 
    गांधीजी के ख़्वाबों के हिन्दुस्तान में मुल्क की सत्तर फीसदी आबादी थी , उसकी खुशहाली के तरीके थे। गावों में रोजगार पैदा करने के तरीके थे, खेती करने वाले किसान थे, मज़दूर थे और मेहनतकश थे। अब वे वोट देने की मशीन बना दिए गए हैं। हर चुनाव में सियासतबाज उन्हें नए ख्वाब दिखाते हैं , वोट बटोरते हैं और अगले चुनाव तक के लिए उन्हें खुदा के भरोसे छोड़ कर अपनी तिकड़मों में लग जाते हैं। हर रोज एक नए घोटाले की खबर सामने आती है और वह घोटाला लाखों का नहीं , कभी करोड़ों का होता है , कभी अरबों का और कभी लाखों करोड़ का। ऐसे घोटालों के खिलाफ उठाने वाली सियासी आवाजें भी ईमानदार नहीं होतीं। जिनके हाथ में हुकूमत होती है वे लूटते हैं , जो मुखालिफ दल होते हैं वे इसलिए चिल्लाते हैं कि उन्हें नहीं मिला। आज देश में कोई ऐसी सियासी पार्टी नहीं बची जो सत्ता में पहुँची हो और उसके नाम मुल्क के लूट की हिस्सेदारी न दर्ज हो। 
     हर सियासताबाज अपने लिए मौक़ा चाहता है। मौक़ा नहीं मिलता तभी तक वह ईमानदार है। लूट के तरीके वे बताते हैं जो नौकरशाह हैं। सारे कुएं में ही भांग है और हमाम में सभी नंगे हैं। जब भ्रष्टाचार का विरोध होता है तो अवाम में उम्मीद जगती है। लोग उसके साथ जुटाने लगते हैं, खड़े होने लगते हैं लेकिन चाँद रोज बाद ही उनकी हकीकत भी सामने आ जाती है। अन्ना आन्दोलन में मेरी भी दिलचस्पी बढ़ी थी, लेकिन दूध का जला मट्ठा  भी फूंककर पीता है। हम इससे पहले के कई ऐसे आन्दोलन देख चुके हैं। उनका हस्र भी देख चुके हैं और जो विरोध कर रहे थे उनके दामन भी दागदार होते देख चुके हैं। हमारे पास भी लोग आते हैं , सबको और सबकी असलियत को समझ पाना भी आसान नहीं है, यही वजह है कि  किसी के साथ खड़े होने में भी कई बार सोचना पड़ता है। जो चहरे पर दिख रहा है वही दिल में भी है यह समझना और जान पाना आसान नहीं है।
      जर्नलिस्ट्स , मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन की और से जब उसके प्रोग्रामों में शिरकत की बात की गयी और उसका जो भी साहित्य मेरे सामने आया , उससे मुझे तसल्ली हुयी कि ये लोग वास्तव में मुल्क और अवाम की बहतरी के लिए आवाज उठा रहे हैं। मैं हर अच्छे काम में साथ हूँ और जहां यह मीडिया तंजीम मुझे बुलाना चाहेगी मैं हाज़िर होऊँगा। और भी लोगों को मुल्क और अवाम की हमदर्दी है , कुछ करने की चाहत है। आप कुछ अच्छा करने के लिए एक कदम बढ़ाएं , लाखों लोग आपका साथ देंगे , बशर्ते आप सच्चाई के साथ सच्चाई के लिए लड़ रहे हों।

                          - मौ .अबुल इरफ़ान मियाँ फिरंगीमहली

Thursday 4 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्तमान लोकतंत्र -1

देश ही नहीं, दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं गांधी 

                                         - विजय कुमार सिंह 
                                 गांधीजी  व्यक्ति  ही  नहीं   विचार  थे , और विचार कभी मरते नहीं। विचारों को सीमाओं में भी नहीं बाँधा जा सकता , इसलिए गांधीवाद और गांधी दर्शन भी सीमाओं से परे है। कोई मनीषी कभी नहीं मरता और इसका इससे बड़ा दूसरा प्रमाण क्या हो सकता है कि किसी भी रचनाकार, लेखक और विचारक के मृत्योपरांत भी उसके नाम के साथ स्वर्गीय  का प्रयोग कभी नहीं किया जाता।वह अपने सृजन, अपने विचारों में जन- जन के बीच सदैव जीवित रहता है। फिर भी रचनाकारों की सीमाएं होती हैं , वे जिस भाषा में भी सृजन करते हैं उस भाषा का ज्ञान रखने वालों के बीच ही उनके विचारों का आलोक रह पाता है , और कभी किन्हीं उत्कृष्ट रचनाओं के भाषानुवाद प्रकाशित होने पर ही वह दूसरी भाषाओं  के जानकारों तक पहुँच पाता  है।किन्तु गांधीजी के लिए जाति , धर्म,सम्प्रदाय, भाषा  या देश ऐसी छोटी सीमाएं हैं जिनमें उनके विराट स्वरुप का समा पाना ही संभव ही नहीं है। 
       अभी हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि गांधीजी का दर्शन सारी दुनिया के लिए प्रेरक है। वह स्वयं अपने आप को गांधीजी का अनुगामी कहते हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह कि गांधी जहां पैदा हुए , जिस राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे , जिस राष्ट्र और समाज के उत्कर्ष के लिए अपने सम्पूर्ण भौतिक सुखों का परित्याग कर दिया , उस भारतवर्ष में ही न केवल उनकी ह्त्या हुयी , वरन उनके बाद उन्हीं के नाम पर राजनीति करनेवालों, उनके नाम का सहारा लेकर सत्ता की सीढ़ियाँ तय करने वालों ने लगातार गांधीजी के सिद्धांतों, विचारों और उनकी उन्नत भारत की परिकल्पनाओं की हत्याएं की हैं। आज सारा देश हिंसा, अपराध, व्यभिचार, झूठ, पाखण्ड, भ्रष्टाचार और अनैतिकता से त्रस्त है और सच यह है कि इन समस्याओं से मुक्ति पाए बिना भारत के लोकतंत्रात्मक स्वरुप को सुरक्षित बनाए रख पाना संभव भी नहीं है। समाधान का उपाय केवल और केवल गांधीवाद है, इसलिए स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष बाद इस देश के लिए गाँधीजी पुनः अनिवार्य रूप से प्रासंगिक हो उठे हैं। आवश्यक यह है कि इस दिशा में जागरुक जनता हो, देश हो , क्योंकि स्वार्थ में डूबे सत्ताधारियों और सत्ता प्राप्त करने के लिए साजिशें कर रहे राजनैतिक तंत्र से अपेक्षाएं करना बेमानी है।
     इस दिशा में पहल होती दिख रही है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गाँधी भवन स्थित करन भाई सभागार में गांधी जयन्ती की पूर्व संध्या पर आज पहली अक्टूबर को " पत्रकारों, वेब एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रतिनिधियों तथा कलमकारों के राष्ट्रीय साझा मंच " जर्नलिस्ट्स , मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन " द्वारा आयोजित सेमीनार " गाँधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र " का आशय और विषयवस्तु  उसी पहल का प्रारम्भिक चरण माना जा सकता है। सामाजिक सरोकारों के प्रति किन्हीं अन्य की अपेक्षा मीडिया की प्रतिबद्धता कहीं अधिक है। मीडिया लोकतंत्र का सजग और जागरुक प्रहरी माना जाता है तो अघोषित चौथा स्तंभ भी। वह सचेतक भी है और मार्गदर्शक भी। समाज को सचेत करने और दायित्वों तथा अधिकारों के प्रति जागरुक करने की जिम्मेदारी भी मीडिया के ही कन्धों पर ही है। कभी हम और हमारा सोच भी गलत हो सकता है इसलिए जब मसले गंभीर हों तो मीडिया उन मसलों पर विचारकों और बुद्धिजीवियों की राय भी आमंत्रित करता रहा है।
       कालान्तर में यह परम्परा समाप्त सी होने लगी थी और उसी का परिणाम है कि राजनीति और सत्ता , प्रतिभाओं की बजाय तिकड़मी, अवसरवादी, भ्रष्ट और बेईमान लोगों के हाथों में चली गयी। ऐसे जनजागरण वाले मुद्दों पर होने वाले सेमीनार और विचार गोष्ठियों का निष्कर्ष  केवल समाचारों तक सीमित न रहकर आम पाठकों तथा जनता तक भी पहुँचना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती और स्वस्थ जनतंत्र की पहली शर्त यही है कि बुद्धिजीवियों की सूनी जाय और उस पर अमल भी किया जाय। चूंकि समाचारों पर अब शासन और प्रशासन भी वह तत्परता नहीं दिखाता जो आज से दो- तीन दशक पहले तक दिखती थी , इसलिए भी आवश्यक हो गया है कि जनसमस्याओं और जनहित के मुद्दों को सार्वजनिक मंच पर अभिव्यक्ति मिले और उनमें जन साधारण की भागीदारी के लिए मीडिया पहल करे।
      हम कारपोरेट घरानों और उद्द्यमियों के हाथों बंधक मीडिया से यह अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि वे शुद्ध रूप से व्यवसायी हैं जो सबसे पहले अपना आर्थिक हित देखते हैं। आज का स्वतंत्र और वास्तविक मीडिया तंत्र वही है जो लघु और मध्यम समाचार माध्यमों की श्रेणी में गिना जाता है। हम जन सरोकारों को सार्वजनिक मंच प्रदान करने के लिए संगठन के प्रयास को एक बार पुनः साधुवाद देते हैं और " लोकसेवा ब्यूरो " के इस अंक में संगठन द्वारा आयोजित गोष्ठी " गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र " विषय के विचारों को विशेष सामग्री के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। हमें अपने सुधी पाठकों से भी इस सन्दर्भ में प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा है।
       -  विजय कुमार सिंह 

Sunday 16 September 2012

लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान -4

    " मुसलमानों की देशभक्ति पर कोई संदेह नहीं "


       आतंकी नेटवर्क भारत के बाहर से संचालित हो रहा है , हम उसका खामियाजा भुगत रहे हैं और दुर्भाग्य से  लालच या नासमझी में हमारे अपने देश के कुछ लोग भी उस आतंकी नेटवर्क के हाथों खेल रहे हैं। ऐसे लोग किसी सम्प्रदाय विशेष के ही नहीं हैं , वे हिन्दू भी हो सकते हैं, मुसलमान भी, सिख भी और ईसाई भी, लेकिन चूंकि भारत में आतंकी वारदातों को अंजाम देने में पड़ोसी देश पाकिस्तान की भूमिका स्पष्ट हो चुकी है जोकि एक मुस्लिम राष्ट्र है और भारत से ही अलग होकर बना है , इसलिए जब भारत में कोई ऐसी घटना होती है तो सबसे पहले मुस्लिम समुदाय को ही संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगता है। यह पूर्वागृह है जिसके कारण कई बार असली गुनाहगार बच निकालने में कामयाब रहते हैं , तो जो बेगुनाह पुलिस और कानूनी प्रताड़ना का शिकार बनाते हैं उनमें विद्रोह और आक्रोश पनपने लगता है। ऐसे आक्रोश को देशद्रोह का नाम दिया जाना उचित नहीं कहा जा सकता।
     ध्यान देने की बात है कि जब स्वाधीनता से पूर्व देश का बटवारा हुआ था और भारत , हिन्दुस्तान तथा पाकिस्तान दो टुकड़ों में बाता जा रहा था , उस समय भारत के मुसलमानों के सामने खुला विकल्प था कि वे चाहें तो भारत में रहें और न चाहें तो पाकिस्तान चले जाएँ। जो भारत को छोड़कर चले गए वे अपने नहीं थे और उनसे यह देश अपने प्रति किसी निष्ठा की अपेक्षा भी नहीं करता , लेकिन जिन मुसलमानों ने विकल्प मौजूद होने के बावजूद इस देश को, अपने मादरे वतन को छोड़कर जाना मंजूर  नहीं किया , उनकी इस देश के प्रति निष्ठा को संदेह की दृष्टि से कैसे देखा जा सकता है ? आज पकिस्तान की स्थिति क्या है अथवा भारत से पाकिस्तान गए मुसलमानों की वहां हैसियत क्या है , यह एक अलग प्रश्न है लेकिन जो बटवारे के समय दिखाए गए सपनों और सब्जबागों से प्रभावित हुए बिना इस देश की मिट्टी के प्रति अपने प्यार को छोड़ नहीं पाए उनकी इस देश के प्रति निष्ठा निर्विवाद है। 
     आज हमारे अपने ही बच्चे व्यावसायिक शिक्षा की डिग्रियां हासिल कर , अपने माँ - बाप, अपने देश को छोड़कर कैरियर के नाम पर , अपने सुखी भविष्य की उम्मीद में निःसंकोच देश छोड़कर जा रहे हैं। दूसरे देशों की नागरिकता हासिल कर प्रवासी भारतीय कहे जाने पर गर्व महसूस करते हैं। उनकी इस देश के प्रति निष्ठा की अपेक्षा तो उन भारतीय मुसलमानों की निष्ठा लाख गुना बेहतर है जो विकल्प के बावजूद भारत में रहे, भारत के रहे। 
      मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी अशिक्षा के अन्धकार में है। यही तबका मौकापरस्तों और राजनीतिबाजों का सबसे आसान शिकार है। कुर्सियां पाने , सत्ता हथियाने और राजनीति में जगह बनाने के लिए कुछ लोग साजिशें रचाते हैं। गरीब और अशिक्षित तबका ही ऐसे लोगों की साजिश का शिकार बनाता है और उसका खामियाजा समाज को और कई बार तो सारे देश को भुगतना पड़ता है। मुम्बई में मीडिया पर हमला, लखनऊ में अलविदा की नमाज के बाद लाठी- डंडों से लैस मीडिया पर हमला , इस देश के खिलाफ एक सुनियोजित षडयंत्र है। कोई भी नमाजी कभी लाठी- डंडे लेकर नमाज पढ़ने नहीं जाता , फिर उपद्रवियों के हाथों में डंडों का होना क्या यह साबित नहीं करता कि जिन्होंने भी ऐसा किया वे मुसलमान नहीं थे, वे साजिश के तहत मुसलमानों को बदनाम करने आये थे और करीब- करीब अपने मकसद में कामयाब भी रहे। ज़रा गौर करें , दिन भर के रोजे और तपती धूप में क्या रोजेदारों में इतनी ताकत हो सकती है कि वे हमलावर हों और शहर भर में पत्थर बरसाते घूमें ? इसका मतलब साफ़ है कि जिन्होंने भी हमला किया वे नमाजी नहीं थे और वे इस्लाम में आस्था रखने वाले मुसलमान भी नहीं थे। 
       जो भी हुआ , वह दुखद था , लेकिन जरूरी यह है कि उन जड़ों को तलाशा जाए जहां से इन विवादास्पद घटनाक्रमों की शाखाएं फूटीं। प्रहार जड़ों पर ही किया जाना चाहिए , क्योंकि जब तक ऐसे विवादों की जड़ें नहीं ख़त्म की जातीं तब तक वे कभी भी अपने अनुकूल वातावरण पाकर सर उठा सकती हैं। यद्यपि यह कहना आसान नहीं है कि परदे के पीछे साजिशें कौन रच रहा है , लेकिन इतना तय है कि जो कुछ भी हुआ वह साजिशों का ही परिणाम था। चाहे मुम्बई हो या लखनऊ , एक साथ एक बड़ी भीड़ का आक्रामक मुद्रा में निकल आना और हमलावर हो उठना जहां एक ओर साजिश का इशारा करता है वहीं देश के खुफिया तंत्र को चुनौती भी देता है। आखिर हथियारबंद इतनी बड़ी भीड़ कहाँ छुपी बैठी रही कि उसकी भनक सतर्कता एजेंसियों को भी नहीं लग पायी ?
      हम बहस कर सकते हैं लेकिन ऐसी घटनाओं पर विराम लगाने का काम तो शासन और प्रशासन को ही करना है। जरूरी है कि सरकारें ऐसी दुस्साहसिक घटनाओं को चेतावनी और चुनौती के रूप में स्वीकार करें और बिना किसी पक्षपात के उनसे सख्ती से निपटें। इन घटनाओं को हादसा अथवा किसी घटना की प्रतिक्रिया का नाम देकर चुप बैठ जाना भविष्य के किसी बड़े हादसे को आमंत्रित करना है। यदि दोषियों को सजा नहीं दी जाती तो जहां एक और उनके हौसले बढ़ेंगे वहीं उनकी देखादेखी दूसरे उग्रपंथी भी ऐसी हरकतें कर सकते हैं। माओवाद और नाक्सलवाद जैसे उग्रपंथी आन्दोलनों से यह देश पहले ही जूझ रहा है , यदि ऐसी घटनाओं की पुनः आवृति हुयी तो यह कोढ़ में खाज जैसी स्थिति होगी और जिस प्रकार हम पाकिस्तान के आतंरिक वर्ग संघर्ष पर खुश हो रहे हैं , हमें खुद ही वैसी ही विषम परिस्थियों का सामना करना पद सकता है।
     दुर्भाग्य से देश का राजनैतिक तंत्र अपने स्वार्थों के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रहा है। विपक्ष सरकार की फजीहत पर खुश होता है कि शायद उसी के बीच से उसे रास्ता मिल जाए और सत्तापक्ष अपने मद में विपक्ष से रचनात्मक सहयोग की अपील भी नहीं करना चाहता। ऐसी परिस्थिति में देश के बुद्धिजीवी वर्ग की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उन्हें बंद कमरों की बहस से बाहर निकालकर  जागरूकता प्रयास की पहल करनी चाहिए क्योंकि देश को तोड़ने और लोकतंत्र के ताने- बाने को संदिग्ध बनाने की जिस प्रकार की साजिशें हो रही हैं वे भारत के भविष्य के लिए गंभीर संकट पैदा कर सकती हैं।

                                                                          -    प्रो . रमेश दीक्षित 

लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान -3

                "  सारे विवाद की जड़ सियासत "


     इस देश में प्रायः हर हादसे के पीछे सियासत ही होती है तो हर मांग, हर आन्दोलन और हर सामूहिक विरोध या समर्थन का मकसद भी सियासत से जुदा होता है। दुर्भाग्य यह है कि ऐसे आन्दोलनों, प्रदर्शनों में सबसे ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने वाले लाभ पाने के मामले में सबसे पीछे रह जाते हैं। यह हमेशा से होता आया है और आज भी हो रहा है। देश भर में जिस तेजी से नए- नए राजनैतिक दलों का उभार हुआ , उसके पीछे सियासत के झंडाबरदारों की अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा थी। उनके जनांदोलनों, प्रदर्शनों में जिन मांगों, जिन अपेक्षाओं को आधार बनाया गया था वे बहुत शीघ्र ही नेपथ्य में चले गए और राजनैतिक मठाधीशों का लक्ष्य महज सत्ता हासिल करना या सत्ता में भागीदारी हासिल करना भर रह गया। राज्यों से लेकर केंद्र तक आज जिस गठबंधन राजनीति का दौर जारी है और जिस प्रकार एक- दूसरे के धुर विरोधी दल स्वार्थों की रोटियाँ सेक रहे हैं उसे देखकर भी यदि आम आदमी को देश की राजनैतिक नीयत समझ में नहीं आती तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।
        हिन्दुओं के बाद इस देश में सबसे अधिक तादाद मुसलमानों की है। यह इतना बड़ा वोट बैंक है कि वह जिस दल के भी पक्ष में करवट ले ले , उसकी विजय सुनिश्चित हो जाती है, और शायद यही वह लालच है कि देश के प्रायः सारे ही राजनैतिक दल उन्हें अपने पाले में लाने या उनमें बिखराव पैदा करने की रणनीति में जुटे हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण के पक्षधर खुद को धर्मनिरपेक्षता का ठेकेदार मानते है और जो इस तुष्टीकरण के पक्ष में नहीं हैं उन्हें साम्प्रदायिक करार देने पर आमादा। सच यह है कि तुष्टीकरण और विरोध दोनों ही गलत रास्ते हैं और इससे देश की सामाजिक समरसता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली का बाटला हाउस मुठभेड़ काण्ड लिया जा सकता है, जिसमें कुछ उग्रवादी मुस्लिम युवाओं से मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के एक जांबाज इंस्पेक्टर को अपनी जान गंवानी पडी थी। जाँच एजेंसियों ने भी उस मुठभेड़ की सत्यता के पक्ष में अपनी मुहर लगाई थी और उस मुठभेड़ में शामिल रहे गुमराह मुस्लिम युवाओं को गुनाहगार ठहराया था , लेकिन पिछले वर्षों उक्त मुददे को लेकर जो सियासत होती रही उससे दुखद क्या हो सकता है कि बिना जांच- पड़ताल के ही कोई नेता मुस्लिम वोटों की लालच में मुठभेड़ को ही गलत ठहरा दे और मुठभेड़ में शहीद हुए अपने ही जांबाज इंस्पेक्टर की मौत का मजाक उडाये।
         एक और मसला गुजरात के बहुचर्चित सोहराबुद्दीन की कथित मुठभेड़ में ह्त्या किये जाने का है , जिसको लेकर वर्षों से देश भर की सियासत गर्म है और अखबारों ने उक्त मसाले को लेकर जाने कितने पन्ने काले किये हैं। यह पूरी तरह प्रमाणित है कि सोहराबुद्दीन एक कुख्यात अपराधी था, उसका आतंकी नेटवर्क से गहरा रिश्ता था , वह जघन्य आपराधिक मामले में लम्बे समय तक जेल में भी बंद रहा था और उसके पास से दो दर्जन विदेश निर्मित एके - 47 रायफलें बरामद हुयी थीं। क़ानून की नजर में ऐसे अपराधी की ह्त्या किया जाना भले ही अनुचित हो, लेकिन समाज और देश हित में क्या उसका मारा जाना अपराध था ? यहाँ एक और भी प्रश्न है कि यदि सोहराबुद्दीन जाती से मुसलमान न होता और उसकी फर्जी मुठभेड़ में ह्त्या की गयी होती तो भी क्या देश की सियासत में उक्त मुठभेड़ को लेकर ऐसा ही भूचाल आया होता ? अपराधी केवल अपराधी होता है , उसका कोई धर्म नहीं होता। क़ानून क्या कहता है , यह दीगर बात है लेकिन मेरा अपना नजरिया है कि जो भी देश के खिलाफ आपराधिक गतिविधियों में शामिल हो , उसका केवल एक ही इलाज है सजा- ए - मौत , फिर चाहे वह पुलिस की गोली से हो, लोगों के गुस्से से हो या अदालत के आदेश से।
         देश की व्यवस्था के स्तर पर हिन्दू और मुसलमान की बात बंद होनी चाहिए। विरोध और तुष्टीकरण दोनों ही बंद होने चाहिए। वोटों की लालच की राजनीति का विरोध किया जाना चाहिए और सार्वजनिक योजनायें जाति , धर्म, सम्प्रदाय के हित की बजाय सार्वजनिक हित की बनायी जानी चाहिए, हाँ आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को मदद अवश्य की जानी चाहिए। वे जो सत्ता के सौदागर हैं, उन्हें अपने स्वार्थ से आगे कुछ दिखाई नहीं देता, लेकिन अब समय आ गया है कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग देश को जगाये और देश की अवाम को समझाये कि उसका कौन लोग और किस प्रकार शोषण कर रहे हैं। कौन लोग उनकी भावनाओं को भड़काकर देश और समाज को तोड़ने की साजिशें रच रहे हैं।
         पराधीनता से देश को मुक्त कराने के लिए स्वाधीनता संघर्ष में जितना योगदान हिन्दुओं का रहा है,उससे कहीं अधिक मुसलमानों का रहा है। फिर देश के बटवारे के समय जो मुसलमान भारत को छोड़कर पाकिस्तान चले गए, उनकी इस देश के प्रति निष्ठा हो भी नहीं सकती लेकिन जिन्होंने भारत को छोड़ना स्वीकार नहीं किया उनकी निष्ठा पर संदेह भी नहीं किया जा सकता। देश के सर्वोच्च अर्थात राष्ट्रपति पद पर डॉ . जाकिर हुसैन, डॉ . फखरुद्दीन अली अहमद और डॉ . ए .पी . जे . अब्दुल कलाम जैसी महान विभूतियाँ आसीन रह चुकी हैं, अर्थात जिनके आलोक में सारे देश की छवि को देखा जाता रहा है। क्या वे किसी वर्ग विशेष के प्रतिनिधि होने के नाते उस ऊँचाई तक पहुंचे ? इस देश को संवारने में सबकी सामान भागीदारी है , इसलिए धर्म और जाति के आधार पर कोई आकलन, कोई तुष्टीकरण उचित नहीं कहा जा सकता।
           सच यह है कि मुस्लिम सम्प्रदाय के खिलाफ साजिशें तो इस देश की सियासत भी करती रही है। उन्हें दीनी तालीम के प्रति परोक्ष रूप से प्रेरित करना और दुनियावी तालीम से महरूम बनाए रखना क्या साजिश नहीं है ? देश का मुस्लिम तबका अब भी अन्य वर्गों की अपेक्षा उस सिक्षा के मामले में बहुत पिछड़ा है जो शिक्षा सामाजिक सोच विक्सित करती है और रोजी - रोटी का जरिया आसान करती है। जो शिक्षित नहीं हैं वे शिक्षा के महत्व को भी आसानी से नहीं समझ सकते कि उनका कौन अपने मकसद के लिए कहाँ और कैसे इश्तेमाल किये ले रहा है। वे आसानी से बरगलाए और बहकाए जा सकते हैं। वे धार्मिक आस्थाओं पर बिना परिणामों की परवाह किये उग्र हो सकते हैं, और गत माह देश के जिन भी हिस्सों में मुसलमान उग्र हुए , वे सारी ही घटनाएँ ऐसी ही सियासती साजिशों की परिणति थीं। गुनाहगार तो वे हैं जो पर्दों के पीछे से अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए खेल, खेल रहे हैं। उन्हें बेनकाब किया जाना चाहिए ताकि देश की एकता बरकरार रहे और भारतीय लोकतंत्र की राह बाधित न हो।
                                                            - आर .एस . उपाध्याय
        


लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान -2

                 " हमलों के पीछे सुनियोजित साजिश "

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             स्वाधीन और लोकतांत्रिक भारत का यह इतिहास रहा है कि यहाँ के मीडिया जगत ने समाचारों के मामले में कभी धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया। कालान्तर में कुछ ऐसे समाचार- पत्र प्रकाशित अवश्य हुए जो किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के प्रति आशक्ति से भरे थे किन्तु उन्हें जनस्वीकार्यता कभी नहीं मिल पायी। वे पानी के बुलबुलों की तरह उठे और खुद ही कालकवलित हो गए, फिर मीडिया की धर्मनिरपेक्षता पर उंगली कैसी उठायी जा सकती है ? अयोध्या की विवादित धार्मिक इमारत, चाहे वह बाबरी मस्जिद रही हो या राम जन्मभूमि, उसे ध्वस्त करने वालों, उपद्रवियों को उकसानेवालों के चहरे मीडिया ने ही बेनकाब किये थे तो अनेकों बार ऐसा भी हुआ है कि सौहार्द के खिलाफ साजिशों को बेनकाब करने में मीडिया ने अहम् भूमिका निभाई है। हम एक बार मीडिया हाउस मालिकों की नीयत पर तो उंगलियाँ उठा सकते हैं लेकिन मीडियाकर्मियों,  समाचार- पत्र  प्रतिनिधियों की  निष्ठा, ईमानदारी और जिम्मेदारियों के प्रति समर्पण पर संदेह नहीं कर सकते। वे घटनाओं और समाचारों का सच अपने प्रकाशनों और प्रसारण  केन्द्रों तक पहुंचाते हैं, लेकिन कई बार वह सच मीडिया हाउस मालिकों के स्वार्थ, उनके व्यावसायिक हितों के कारण समाज तक नहीं पहुँच पाता और यही वह गडबडी है जिसके कारण दोषी न होने के बावजूद मीडियाकर्मियों की ईमानदारी को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है।
           रमजान के महीने में मुस्लिम समुदाय की जो आक्रामकता मुम्बई में मीडियाकर्मियों के साथ नज़र आयी, उसकी घोर निंदा की जानी चाहिए लेकिन उस आक्रामकता और आक्रोश की जो ध्वनि बाहर आ रही थी उसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। कहा जा रहा था कि मीडिया मुस्लिम नेताओं और धर्मगुरुओं से जुडी खबरों को तो प्राथमिकता देता है लेकिन मुस्लिम समुदाय की पीड़ाओं, परेशानियों और उनकी समस्याओं को नज़रंदाज करता है। यदि ये आरोप सही हैं तो मीडिया को भी अपनी भूमिका का पुनः आकलन करना चाहिए कि क्या वह अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पा रहा है ?अपनी अनदेखी के प्रति किसी समुदाय विशेष का गुस्सा भी स्वाभाविक है , लेकिन लोकतंत्र में विरोध का तरीका भी लोकतांत्रिक होना चाहिए। अपनी बात कहने के लिए हिंसा को माध्यम बनाने वालों की बात शायद ही कोई सुनाने को तैयार होगा। यदि मुम्बई में और फिर बाद में उसी तर्ज पर लखनऊ में मीडिया पर हमले आम मुसलमानों की उपेक्षा के कारण मुसलमानों द्वारा ही किये गए हों , तो क्या उससे मीडिया उन्हें महत्व देने लगेगा ? निश्चित है कि ऐसा नहीं होगा। किसी पर हमला करके आप हमेशा के लिए उसकी अपने प्रति हमदर्दी को गँवा देंगे। यह बात आम मुसलमान भी समझता है , इसलिए उक्त दोनों ही शहरों में मीडिया पर हुए हमलों में आम मुसलमान की भूमिका किसी तौर पर भी समझ से परे है।
          हमले हुए हैं, हमले करने वाले लोग भी मुस्लिम समुदाय के थे, लेकिन वे मुसलमान नहीं थे। अलविदा की नमाज केवल अपनी सलामती के लिए नहीं , सारी कायनात की सलामती और खुशहाली के लिए अदा की जाती है। हर नमाजी शायद अलविदा के दिन ऐसी दुआ मांगता भी है, फिर वह उसी समय कोई मारपीट, कोई हमला क्यों और कैसे कर सकता है ? इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि मीडिया पर हमला करनेवाले लोग  किराए  के   गुंडे थे और जो कुछ भी हुआ वह एक सुनियोजित साजिश के तहत हुआ। साजिश क्यों रची गयी, साजिश को अंजाम देने के लिए वही वक्त क्यों मुक़र्रर किया गया, जब मस्जिदों में नमाज़ पढ़कर भारी संख्या में मुसलमान बाहर निकल रहे थे ?
           इन सवालों के जवाब खोजना कठिन नहीं है। यह साजिश शायद मीडिया को मुसलमानों का दुश्मन बनाने के लिए रची गयी, ताकि नाराजगी में मीडिया के लोग एक समूचे सम्प्रदाय की ही उपेक्षा करने लगें। नमाज़ के ठीक बाद का वक्त शायद हमले के लिए इसलिए भी तय किया गया होगा, कि हमलावरों के पहनावे को देखकर लोगों में उनके मुसलमान होने का भ्रम पैदा हो और पुलिस तथा प्रशासन का दबाव बढ़ने पर हमलावर आसानी से अपने को नमाजियो की भीड़ ं के बीच छिपा सकें। शायद साजिशकर्ताओं को पूरी तरह यकीन रहा होगा कि साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने के भय से पुलिस और प्रशासन हमलावरों पर बल प्रयोग करने और उन्हें पकड़ने से गुरेज़ करेगा। यह भारतीय लोकतंत्र की राजनैतिक विवशता रही है कि प्रशासन साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ने के भय से कई बार खून के घूँट निगलने को विवश हुआ है। ऐसा ही बाबरी ध्वंश के समय भी हुआ था और वही मुम्बई तथा लखनऊ में मीडिया पर हमले के समय भी हुआ। साजिशकर्ताओं ने देश की व्यस्थागत कमजोरी का फ़ायदा उठाया और सम्प्रदाय विशेष तथा मीडिया के बीच नाइत्तिफ़ाकी पैदा करने में बहुत हद तक फौरी तौर पर ही सही, कामयाब भी रहे।
        एक बात और भी गौर करने की है कि मुम्बई और लखनऊ दोनों ही शहरों में मीडिया पर हमले रमजान के पाक महीने में और आम मुसलमान के रोजों के दौरान  हुए। रोज़ेदार रोजा रखते हुए लार निगलना, झूठ बोलना और किसी के लिए अपशब्दों का प्रयोग करना भी गुनाह सामझता ह, तो वह उस दौरान मारपीट, तोड़-फोड़ करके रोज़े के शबाब का हकदार कैसे हो सकता है ? यह बात तो एक गैर पढ़ा- लिखा और जाहिल मुसलमान भी समझता और मानता है, फिर ऐसी घटनाओं में आम मुसलमानों की भागीदारी क्या संदेहास्पद नहीं मानी जानी चाहिए ?
           भारतीय लोकतंत्र में भारत के मुसलमानों को पूरी तरह यकीन है और वे जानते हैं कि इस देश में उनके हक़ को कोई खतरा भी नहीं है। जहाँ तक सवाल मीडिया का है तो मीडिया किसी धर्म, मज़हब, फिरके या सम्प्रदाय विशेष की नुमाइंदगी नहीं करता। मीडिया आम आदमी के हितों की हिफाजत के लिए है, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए पूरी तरह समर्पित भी है और उस आम तबके में सभी धर्म, सम्प्रदाय तथा जातियाँ शामिल हैं। जिन पर हमले हुए उनमें मुस्लिम सम्प्रदाय के मीडियाकर्मी भी थे और वे बख्शे भी नहीं गए, फिर वे हमलावर कैसे मुसलमान थे जिन्होंने नमाज़ अदा करने के बाद अपनी ही बिरादरी के लोगों से मारपीट की ? इसका सीधा सा अर्थ है कि जो कुछ भी हुआ, वह साजिश का परिणाम था और ऐसी साजिशों के खिलाफ भारतीय लोकतंत्र के जिम्मेदार लोगों, बुद्धिजीवियों ,मीडियाकर्मियों   ,  आम मुसलमानों और देश की अवाम     को एक  होना   ही होगा।ै
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लोकतंत्र , मीडिया और मुसलमान -1

                           बुद्धिजीवी आगे आयें 

  शरीर का संचालन और नियंत्रण मस्तिष्क करता है। किसी उद्यम , योजना, कारखाने का नियंत्रण, प्रबंधन और संचालन उसके प्रबंधक द्वारा किया जाता है अर्थात उनका मस्तिष्क प्रबंधन में स्थापित होता है। तब समाज और देश का नियंत्रण और संचालन किनके कन्धों पर होना चाहिए ? साधारण जवाब होगा मस्तिष्क अर्थात बुद्धिजीवी वर्ग ! लेकिन क्या आज भारत में ऐसा हो रहा है ? बहुत पुरानी  कहावत है और आम प्रचलित भी कि " प्रजातंत्र मूर्खों का शासन होता है " अंग्रेजी भाषा में कहें तो  "democracy  is the government of fools " . अंग्रेजी के इस फूल् शब्द का अर्थ विदूषक अर्थात जोकर और मूर्ख दोनों ही होता है, तो क्या आज भारत का लोकतंत्र विदूषकों और मूर्खों द्वारा शासित और संचालित नहीं हो रहा है ? मुट्ठी भर लोगों का देश अमेरिका आज यदि सारी दुनिया का बेताज बादशाह बना बैठा है तो उसकी वजह यह है कि वहाँ की व्यवस्था में देश की आतंरिक और वैदेशिक नीतियों तक का संचालन करने के लिए राष्ट्रपति विभिन्न क्षेत्रों और विषयों के पारंगत विद्वानों को अपने मंत्रिमंडल के लिए चयनित करता है। वहाँ राष्ट्रपति के समक्ष ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वह जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों , सीनेटरों को मंत्रिमंडल में स्थान दे।
     अमेरिका में राजनैतिक विरोधी को शत्रु भी नहीं माना जाता और इसका इससे बड़ा कोई दूसरा सबूत हो भी नहीं सकता कि जिन हिलेरी क्लिंटन ने अमेरिका के वर्त्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा के खिलाफ राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था , उन्हें ही ओबामा ने राष्ट्रपति बनाने के बाद उनके विदेश संबंधी ज्ञान को देखते हुए विदेश मंत्रालय जैसी सर्वाधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी। भारत में सब कुछ उलटा- पुल्टा है। यहाँ कृषि मंत्रालय उसे सौंप दिया जाता है जिसने शायद ही कभी खेत की मेड पर पाँव रखा हो। ग्रामीण विकास उसे सौंप दिया जाता है जिसने गाँव देखा ही नहीं और योजना आयोग उस व्यक्ति के हवाले कर दिया जाता है जो भारत को ही सही तरीके से नहीं जानता। रक्षा मंत्रालय संभालनेवाला खुद के चलने में दूसरों की मदद चाहता  है।क्या यह मज़ाक नहीं है और क्या आज देश के सामने जो समस्याएं हैं, उनकी सबसे बड़ी वजह भी यही नहीं है ?
     भारतीय लोकतंत्र का वर्त्तमान सच यह है कि अब देश में राजनैतिक विचारधाराओं और उनके प्रति प्रतिबद्धता का पूरी तरह लोप हो चुका है। उसकी जगह पूंजीवाद, अवसरवाद और माफियावाद स्थापित हो चुका है। अवसरवादी राजनेता हमेशा तिकड़म के खेल खेला करते हैं और बहुत बार तो यह खेल सत्तातंत्र द्वारा भी खेला जाता है। प्रायः देखने में आया है कि जब सरकारों की नीतियों के खिलाफ जनाक्रोश मुखर होने लगता है तो नए विवाद, नए मसाले जन्म लेने लगते हैं और वे मसाले ऐसे होते हैं कि सारे देश का ध्यान उनमें उलझकर रह जाता है। प्रायः ऐसे विवाद और मसले सत्तातंत्र द्वारा प्रायोजित होते हैं।
      मुंबई में बलवाइयों द्वारा महिला पुलिसकर्मियों के साथ अभद्रता की गयी, पुलिसवालों के हाथों से रायफलें तक छीन ली गयीं और पुलिस ने सख्ती नहीं दिखाई। खबर है कि ऊपर से निर्देश थे कि उपद्रवियों के साथ सख्ती न की जाय। अलविदा की नमाज़ के दिन अर्थात 17 अगस्त को नमाज़ के बाद लखनऊ में लाठी- डंडों से लैस उपद्रवी तोड़- फोड़ कर रहे थे और पुलिस अधिकारियों को ऊपर से निर्देश दिए जा रहे थे कि उपद्रवियों के साथ सख्ती न की जाए। इसका सीधा सा अर्थ है कि शायद इस उपद्रव की जानकारी शासन और प्रशासन को पहले से ही थी। शायद यह सब प्रायोजित था ,शायद इसका आशय एक नया विवाद पैदा कर जनाक्रोश की दिशा को बदलना रहा हो। संभव यह भी है कि यह प्रायोजन उनके द्वारा किया गया हो जो सरकार को बदनाम कर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकना चाहते हों। जो अपने राजनैतिक भविष्य के रास्ते तलाश रहे हों और सरकार ने बलवाइयों पर सख्ती न करने की हिदायत इसलिए दी कि विवाद को और अधिक बढ़ने से रोका जा सके। उपरोक्त दोनों बातों में से कम से कम एक बात तो सच जरूर है और सच यह भी है कि इस अमन के खिलाफ साजिश में कोई विदेशी हाथ हो या न हो लेकिन सियासत के हाथ ज़रूर शामिल रहे हैं।
       प्रश्न यह है कि जो कुछ भी हुआ उसमें जान बूझकर मीडिया को ही निशाना क्यों बनाया गया ? आखिर मुसलमानों को मीडिया से क्या शिकायत थी कि वे उनके कैमरे तोड़ने और उनके साथ मारपीट करने लगे ? एक ज़वाब तो यह हो सकता है कि मीडिया द्वारा समाचारों में आम मुसलमान की पीड़ा को यथोचित स्थान न दिए जाने के खिलाफ यह आक्रोश था। यह ज़वाब सम्पूर्ण नहीं है क्योंकि इससे पहले आम मुसलमानों की और से कोई ऐसी बात नहीं उठायी गयी थी कि मीडिया आम मुसलमानों की परेशानियों को कोई अहमियत नहीं दे रहा है। फिर सवाल उठाता है कि क्या मुसलमानों का साजिश के तहत इश्तेमाल किया गया और उन्हें जानबूझकर मीडिया के खिलाफ उकसाया गया ? सच यह भी हो सकता है , हाँ बलवाइयों को जितना करने के निर्देश थे , शायद उनमें युवाओं की अधिकता और उनमें भी अति उत्साह में कुछ ज्यादा ही उत्पात हो गया जिनमें महात्मा बुद्ध और जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी की प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त किया जाना भी शामिल है।
       हमेशा बलवों, विवादों तथा उग्र गतिविधियों में मुसलमानों का वह तबका ही आगे नज़र आता है जो कम पढ़ा- लिखा है अथवा जिसका दायरा केवल दीनी तालीम तक ही सीमित है। निश्चित है कि नफ़रत के सौदागर ऐसे लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर उनका अपने निजी स्वार्थों के लिए उपयोग करते हैं। ऐसे मुसलमानों और फिर उनकी भावी पीढी को भी दुनियावी तालीम से दूर रखने की साजिश सियासत और मुस्लिम समुदाय के ही कुछ बड़े मौलानाओं द्वारा आज़ादी के बाद से ही की जाती रही है , और वह साजिश आज भी हो रही है। सियासी ज़मातें मुसलमानों को हमेशा वोट बैंक बनाए रखना चाहती हैं और यह तभी तक संभव है जब तक मुसलमानों में शिक्षा का अभाव कायम रहेगा और वे अपनी रोजी- रोटी की समस्याओं से जूझते रहेंगे।
       मुस्लिम समाज को बेहतरी के रास्ते पर लाने , उनमें विवेक की ताकत पैदा करने , उन्हें भारतीय लोकतंत्र का वास्तविक हिस्सेदार बनाने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें शिक्षित किया जाए , उनके लिए दीनी ही नहीं दुनियावी तालीम के रास्ते आसान किये जाएँ। यह उम्मीद सरकारों से नहीं की जा सकती क्योंकि वे सियासत की नीतियों से चलती हैं। यह उम्मीद मौलानाओं से भी नहीं की जा सकती क्योंकि तब उनकी इमामत और उनकी अपनी ही रोजी- रोटी के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। यह ज़िम्मेदारी मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवी तबके को उठानी होगी, और साथ ही लोकतंत्र में घुस बैठे चोरों के खिलाफ देश के सभी बुद्धिजीवियों को जनजागरण की अलख जगानी होगी , तभी सुरक्षित रह सकेगा लोकतंत्र, देश की सामाजिक समरसता और हमारा अपना देश भारत।
                              - एस . एन . शुक्ल

Monday 25 June 2012

राजनीति से मुक्त हो राष्ट्रपति पद

 राष्ट्रपति जैसे  महत्वपूर्ण और गरिमामय पद के निर्वाचन में यदि सियासती तिकड़मबाजी और दांव- पेंच का खेल होने लगता है तो यह राजनेताओं ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए शर्मिन्दगी का विषय है / संवैधानिक व्याख्या के अनुसार राष्ट्रपति पद , राजनैतिक निष्ठाओं से पूरी तरह परे है , इसलिए बेहतर यही होगा कि इस गरिमामय पद को ही राजनीति से मुक्त किया जाय और राष्ट्रपति को निर्वाचित करने का अधिकार आम भारतीय मतदाता को दिया जाय /

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद , सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन और डॉ जाकिर हुसैन को छोड़कर उनके बाद के प्रायः हर राष्ट्रपति का निर्वाचन सत्तापक्ष और विपक्ष के द्वंद्व का शिकार हुआ तो यह भी देखा गया कि वे निर्णयों के मामले में भी पूरी तरह निष्पक्ष नहीं रह पाए / राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सत्ताकाल में राष्ट्रपति निर्वाचित हुए डॉ ए .पी. जे . अब्दुल कलाम , राधाकृषण के बाद दूसरे गैर राजनैतिक व्यक्ति थे तो उनका  भी पूरी तरह गैरविवादित रहा , और यह भी एक सच्चाई है कि पदमुक्त होने के बाद भी सारे देश में उनकी जो लोकप्रियता और  प्रतिष्ठा बरकरार है ,   उनके पूर्ववर्ती किसी अन्य निवर्तमान राष्ट्रपति को प्राप्त नहीं हुयी / डॉ . कलाम किन परिश्थितियों और किन विशिष्टताओं के कारण राष्ट्रपति चुने गए , यह अलग विषय है , लेकिन यह प्रयोग इतना  रहा कि अब आम आदमी भी कहने लगा है कि राष्ट्रपति तो गैर राजनैतिक व्यक्ति ही होना चाहिए / यह इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि जिस दिन देश के तेरहवें राष्ट्रपति के लिए कांग्रेस ने अपने वरिष्ठ नेता प्रणब मुखर्जी को उम्मीदवार घोषित किया तो प्रणब ने राष्ट्र के बजाय अपनी पार्टी और पार्टी अध्यक्ष के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की , अर्थात खुद ही उन्होंने अपने निष्पक्ष रहने के प्रति आम जन के मन में आशंका पैदा कर दी /
    राष्ट्रपति पद का पिछला निर्वाचन जिसमें प्रतिभा देवी सिंह पाटिल निर्वाचित हुईं , सबसे विवाद पूर्ण रहा / तब उनके विगत जीवन के कई किस्से सार्वजनिक हुए , जिनमें भ्रष्टाचार और हेराफेरी की कहानियां भी थीं , लेकिन चूंकि वह सत्तापक्ष की प्रत्याशी थीं इसलिए आरोपों की बाधाओं के बावजूद वह निर्वाचित हुईं तो आरोपों को भी गहरे दफ़न कर दिया गया / उनके क्रियाकलापों और राष्ट्रपति के रूप में उनके द्वारा लिए गए निर्णयों पर फिलहाल कोई टिप्पणी नहीं , लेकिन क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि जो व्यक्ति सारा जीवन किसी दल विशेष की नीतियों और सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान रहा हो , जो अपने दल के बचाव में उचित - अनुचित तर्क देता रहा हो , वह सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचकर उस दल के प्रति निष्ठा से मुक्त हो जाएगा ?
     देश के सर्वोच्च पद के लिए प्रत्याशी बनाने,फिर समर्थन और  बनाने में जिन राजनेताओं और राजनैतिक दलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही होती है , उनके प्रति राष्ट्रपति के मन में कृतज्ञता की भावना पैदा हो जाना स्वाभाविक है / उनसे सम्बंधित गंभीर मसाले जब राष्ट्रपति के सामने निर्णय के लिए आते हैं तो क्या निष्पक्ष रह पायेगा राष्ट्रपति ?भारत का राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च  न्यायाधिपति भी होता है / उसे मृत्यु दंड प्राप्त अपराधी तक को क्षमा कर देने का अधिकार प्राप्त होता है / पूर्व में कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जब राजनैतिक दबावों की विवशता में जघन्य हत्यारे तक राष्ट्रपति की वैधानिक शक्तियों से क्षमा प्राप्त करने में सफल रहे / यदि उस समय इस गरिमामय पद पर कोई गैरराजनैतिक व्यक्ति बैठा होता तो शायद जघन्य अपराधियों का क्षमा प्राप्त करना इतना आसान नहीं होता /
     कहा जाता है कि भारत के राष्ट्रपति का पद स्वर्णिम शून्य है , लेकिन यह पूरी तरह सच भी नहीं है / आपात स्थितियों में वह असीम शक्तियों का स्वामी होता है / संविधान में पूर्व में हुए शंसोधन के बाद अब निर्वाचित राज्य सरकारों को अपदस्थ करना बहुत आसान नहीं रह गया है लेकिन 80 के दशक तक सत्तारूढ़ दल के  पर राष्ट्रपति द्वारा विपक्ष शासित राज्य सरकारों को कभी एक  सी त्रुटी पर और कभी  अनर्गल आरोपों में बेदखल करने का खेल खूब खेला गया /विपक्ष के तीखे विरोध के बावजूद लोकसभा और  राज्यसभा में बहुमत की दशा में सत्तारूढ़ दलों ने तत्कालीन राष्ट्रपतियों से मनचाहे बिलों पर हस्ताक्षर करवाकर खूब मनमानी की / अब तक के कुल 12 राष्ट्रपतियों में से डॉ . राधाकृष्णन और डॉ. कलाम दो लोग ही गैर राजनैतिक थे और सारा देश मानता है कि जितनी लोकप्रियता उक्त दोनों राष्ट्रपतियों को मिली उतनी किसी अन्य को नहीं / 
         प्रश्न योग्यता का नहीं है / प्रश्न सम्मान का भी नहीं है / डॉ .राजेन्द्र प्रसाद , आर . वेंकटरमण और के . आर. नारायणन जैसे लोग राजनैतिक प्रष्ठभूमि से होने के बावजूद सभी दलों द्वारा सामान रूप से सम्मानित थे क्योंकि सर्वोच्च पद पर आसीन होते ही उनहोंने दलीय  को तिलांजलि दे दी थी / यह कहना भी उचित नहीं होगा कि राजनैतिक  व्यक्ति राष्ट्रपति बनाकर पक्षपातपूर्ण निर्णय ही करेगा , लेकिन जैसी गठबंधन सरकारों का दौर इन दिनों चल रहा है उसे देखते हुए राष्ट्रहित इसी में है कि राष्ट्रपति पद पर किसी गैरराजनैतिक व्यक्ति को बिठाए जाने की परम्परा डाली जाय , और यदि आवश्यक हो तो इसके लिए संविधान में उपयुक्त प्राविधान किया जाय /
    हम अमेरिका की राष्ट्रपति निर्वाचन प्रणाली से सीख क्यों नहीं लेते , जहां सारा राष्ट्र राष्ट्रपति चुनाव में भागीदारी निभाता है और राष्ट्रपति अपने राष्ट्र के प्रति सर्वाधिक निष्ठावान होता है / वह सीनेट के निर्वाचित सदस्यों के बजाय क्षेत्र विशेष की प्रतिभाओं का अपने मंत्रिमंडल के लिए चयन करता है / यही वजह है कि जनसंख्या में भारत के सामने नगण्य सा अमेरिका विश्व शक्ति बना हुआ है और हम उसके सामने बौने हैं /आज के जैसे राजनैतिक हालात हैं , उनमें राजनैतिक प्रष्ठभूमि से आये किसी राष्ट्रपति का पूरी तरह से गैर राजनैतिक बने रह पाना यदि  असंभव नहीं तो  मुश्किल अवश्य है / गठबंधन सरकारों के दौर और राजनैतिक अनिश्चितताओं के  माहौल ने राष्ट्रपति भवन में अपने मनमाफिक व्यक्ति को बैठाने की राजनैतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा  कर दी है / नयी सरकार के गठन के समय राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत के  नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ शपथ लेने के लिए आमंत्रित करता है / तब यह उसके  पर निर्भर करता है कि वह सबसे बड़े दल के नेता को बुलाये या सबसे बड़े गठबंधन के नेता को / यही कारण है कि गठबंधन सरकारों की मजबूरियां और क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं राष्ट्रप्रमुख जैसे गरिमामय और सर्वोच्च पद को द्वंद्व का शिकार बना रही है /
    जनता के बीच भी छोटा ही सही , राजनैतिक पद हासिल करने की लालसा जिस तरह बढ़ने लगी है , उससे कहीं अधिक राजनेताओं के प्रति वितृष्णा  भी बड़ी है / इसका कारण राजनेताओं और राजनैतिक दलों का दिनों दिन पतित होता चरित्र ही है /  लोगों का मानना है कि जिस तरह भारत का राजनैतिक चरित्र पतित होता जा रहा है , उससे विश्व समुदाय के बीच भारत की छवि धूमिल हुयी   है / राष्ट्रपति देश का संवैधानिक मुखिया होता है , उसे आये दिन दूसरे देशों की यात्रा भी करनी पड़ती है / यदि उक्त पद पर राजनैतिक व्यक्ति ही बैठा होगा तो उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाएगा और उसे वह सम्मान तथा विश्वसनीयता हासिल नहीं हो पायेगी जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष को मिलनी चाहिए / यह आशंका निर्मूल भी नहीं है , क्योंकि राजनेताओं ने अपने आचरण के कारण ही अपनी छवि खराब की है / यदि राष्ट्रपति पद को गैर राजनैतिक क्षेत्र के लिए आरक्षित कर दिया जाय और उसका निर्वाचन आम भारतीय मतदाताओं के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप में कराया जाना सुनिश्चित किया जाय तो यह राष्ट्र के भी हित में होगा और वैश्विक विश्वसनीयता के लिए भी / जरूरी है कि सभी दल इस मुद्दे पर आम सहमति बनाएं /
            
                                                  - एस . एन . शुक्ल 


Sunday 24 June 2012

प्रिय महोदय
                                    "श्रम साधना "स्मारिका के सफल प्रकाशन के बाद
                                                      हम ला रहे हैं .....
स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष और भारतीय संसद के छः दशकों की गति-प्रगति, उत्कर्ष-पराभव, गुण-दोष, लाभ-हानि और सुधार के उपायों पर आधारित सम्पूर्ण विवेचन, विश्लेषण अर्थात ...

                                               " दस्तावेज "

जिसमें स्वतन्त्रता संग्राम के वीर शहीदों की स्मृति एवं संघर्ष गाथाओं, विजय के सोल्लास और विभाजन की पीड़ा के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र की यात्रा कथा, उपलब्धियों, विसंगतियों,राजनैतिक दुरागृह, विरोधाभाष, दागियों-बागियों का राजनीति में बढ़ता वर्चस्व, अवसरवादी दांव-पेच तथा गठजोड़ के दुष्परिणामों, व्यवस्थागत दोषों, लोकतंत्र के सजग प्रहरियों के सदप्रयासों, ज्वलंत मुद्दों तथा समस्याओं के निराकरण एवं सुधारात्मक उपायों सहित वह समस्त विषय सामग्री समाहित करने का प्रयास किया जाएगा, जिसकी कि इस प्रकार के दस्तावेज में अपेक्षा की जा सकती है।
     इस दस्तावेज में देश भर के चर्तित राजनेताओं, ख्यातिनामा लेखकों, विद्वानों के लेख आमंत्रित किये गए है। स्मारिका का आकार ए-फोर साइज (11गुणे 9 इंच ) होगा तथा प्रष्टों की संख्या 1000 के आस-पास। इस अप्रतिम, अभिनव अभियान के साझीदार आप भी हो सकते हैं। विषयानुकूल लेख, रचनाएँ भेजें तथा साथ में प्रकाशन अनुमति, अपना पूरा पता एवं चित्र भी। विषय सामग्री केवल हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेजी भाषा में ही स्वीकार की जायेगी। लेख हमें हर हालत में 15 नवम्बर, 2012 तक प्राप्त हो जाने चाहिए ताकि उन्हें यथोचित स्थान दिया जा सके।
                          -हमारा पता-
जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड राइटर्स वेलफेयर एसोसिएशन 
 19/ 256 इंदिरा नगर, लखनऊ-226016
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Monday 28 May 2012

समाधान क्या है ?

            लूट तो हर जगह है और समस्याएं भी अनंत/ आज जनता से जुडी प्रायः हर समस्या का कारण भ्रष्टाचार है/ जन लोकपाल बिल कानून का रूप ले भी ले तो क्या
आम आदमी की बिजली, पानी, सड़क, सफाई और राशन कार्ड जैसी सम्स्याओं का समाधान हो जाएगा ? इसके
लिए तो खुद ही लड़ना पडेगा/ जीवन है तो समस्याएं भी रहेगी और उनके समाधान के लिए संघर्ष भी, और जीतेगा
भी वही जो लडेगा/
            भारत का संविधान किसी ने नहीं बनाया/ सैकड़ों विद्वानों, विधिवेत्तायों, धर्माधार्यों आयर मनीषियों की 2
बरस 11 माह 18 दिन की म्हणत और माथापच्ची के बाद निर्मित किये गए संविधान में उसके लागू होने के बाद
से ही संशोंधन भी शुरू हुए और वे आज तक हो रहें हैं/ इसका स्पस्ट कारण है की भारतीय संविधान अभी तक पूर्ण
नहीं है और शायद भविष्य में भी नहीं हो पायेगा/ परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है और उस परिवर्तन के साथ
परिस्थितियां तथा आवश्यकताएं भी बदलतीं हैं तब कई जरूरतों के लिए संविधान में नए आयाम जोड़े जायेंगें,
लेकिन उससे पुराने की उपयोगिता समाप्त भी नहीं हो जायेगी/ यह हर उस देश में होता है जहां लिखित संविधान
प्रभावी है इसलिए भारत के संविधान में भी वे अपेक्षाएं रहेगीं लेकिन इससे वर्तमान संविधान अनुपयोगी और
निष्प्रयोज्य नहीं हो जाता/
            समय के साथ लोगों की प्रवृत्ति बदलती है, अच्छे बुरे लोगों का अनुपात बदलता है/ वर्तमान में असंतोष
बढ़ा है और सच्चाई यही है की असंतोष का कारण देश की भौतिक प्रगति ही है/ जब पड़ोसी ओर संबंधी हमसे
ज्यादा वैभव और सुविधायों का भोग कर रहें हों, तो हम भी उन्हें हासिल करने के लिए लालायित हो उठते हैं/ परिवार और बच्चों की जिद और दबाव के आगे कितने ऐसे लोग हैं जो उचित-अनुचित की सीमाओं में बंधे रहते
हैं ? अन्दर कहीं कसमसाहट होती है की हम पड़ोसी या रिश्तेदार के बच्चों जैसी सुविधाएं अपने बच्चों को नहीं दे
पा रहें हैं, और यहीं से नैतिक-अनैतिक की सीमाएं टूट जाती हैं/ भ्रष्टाचार की यहीं से शुरुवात हो जाती है/
परिवर्तन चाहे कैसा भी हो उसके साथ बहुत से दोस्त निश्चित रूप से आते हैं ऋतुएं बदलती हैं और दो-दो ऋतुयों
के संधिकाल में प्रायः शारीरिक व्याधियां भी धावा बोलती हैं/ तब लोग सर्दी, जुकाम, सिरदर्द, खासी, बुखार आदि 
का प्रायः सामना करते हैं, उनका इलाज भी किया जाता है/ भारत में इन दिनों उसी तरह का पुरातन और नवीन 
मान्यताओं का, रूढ़िवादिता और प्रगतिशीलता का, पश्चिम के प्रभाव का, बढ़ते संसाधनों और सुविधायों का 
संधिकाल है, अर्थात जटिलताओं भरा संधिकाल/ जिस प्रकार व्याधियों से घिर जाने पर शरीर का इलाज किया 
जाता है उसी प्रकार परिवर्तन जनित व्याधियों से घिरे समाज और राष्ट्र का इलाज भी जरूरी है/
            बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्र जागरण अभियान या अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल को 
लेकर किये गए आन्दोलन और लोकपाल शब्द से पूर्व जन शब्द जोडनें का उद्देश्य महज एक था, देश भर में 
व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रभावी विराम लगाना, जनहितकारी योजनाओं को अंतिम और पात्र व्यक्ति तक 
सुनिश्चित तौर पर पहुचाया जाना तथा विकास की दिशा को सर्वांगीण और सर्वव्यापी बनाना/ जो लोग इन 
आन्दोलनों के विरोधी रहें हैं अथवा हैं उनकी समाज और राष्ट्र के प्रति निष्ठा सन्देह से परे नहीं है/ फिर भी 
उम्मीदें समाप्त नहीं हुयी हैं/ जब एक बार राष्ट्र विरोध में खड़े होने का साहस जुटा लेता है, तो फिर वह बार-बार खडा होता है, और ऐसा हो चुका है/
              अभी उम्मीदें समाप्त नहीं हुईं हैं/ इस देश का आम आदमी हजारों वर्षों से उम्मीदों के सहारे जीता 
गया है/ यह प्रकृति प्रदत्त है/ आकाशीय वर्षा के भरोसे फसल बोने वाला किसान सोचता है की वर्षा अच्छी 
होगी तो उसकी फसल भी अच्छी होगी/ बरसात अच्छी नहीं होती, फसल सूख जाती है, तब भी वह उसे 
अपना प्रारब्ध मानकर संतोष कर लेता है/ फिर खेतों में नयी उम्मीदों के ताने-बाने बुनते हुए बीज डालता है, चाहें वे वर्षों-वर्ष न पुरे हों/ यहाँ आततायी और अन्यायी का मुकाबला करने के लिए देवी-देवताओं, पीरों-फकीरों, मजारों की अद्रश्य शक्तियों से मदद माँगने और याचना की पुरानी परम्परा है/ लोग सोचते हैं की ईश्वर हर 
अन्यायी को सजा अवश्य देगा/ एक विदेशी आक्रान्ता ने मुट्ठी भर सेना के बल पर सोमनाथ मंदिर को लूट 
लिया और हजारों भक्त देखते रहे की भगवान शिव अभी अपनी तांडव मुद्रा में प्रकट होंगें और आक्रान्ता 
सेना का विनाश हो जाएगा/ वह नहीं हुया लेकिन न देवता और न ही उस मंदिर के प्रति लोगों की आस्था कम 
हुयी/
           2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा जेल चले गए, लोग इतने भर से खुश हैं की उसे कर्मों की सजा मिली 
है/ वे नहीं जानते की यह इतना बड़ा घोटाला था, इतनी बड़ी धनराशि की हेराफेरी थी की राजा उस धन से शायद 
एक टापू खरीदकर वास्तव में राजा बन सकता था/ यहाँ आदमी  बीमार होता है और दुर्भाग्यवश बीमारी कुछ लम्बी खिचती है तो लोग औलिया, पीर, औघड़, गंडडा- ताबीज, और मंदिरों 
की शरण में जाते हैं/ ईश्वर दंड देगा, ईश्वर सब कुछ ठीक कर देगा/ यह अंध आस्था इतनी है की सड़क के 
किनारे रात में किसी पेड़ पर लाल रंग की एक झंडी बाँध दो तो अगले दिन से लोग उस पेड़ की पूजा करने लगते 
हैं/ जीवित आदमी चाहें भीषण ठंढ में फुटपाथ पर ठिठुरकर दम तोड़ दे, उसकी मदद के लिए कोई बिरला हांथ 
ही आगे आयेगा, लेकिन मंदिर-मस्जिद की तामीर के नाम पर लाखों दान करने में भी संकोच नहीं/
             लोग कहते हैं भारत आस्थाओं का देश है, लेकिन जहां तक मैं समझ सका हूँ, यह भीरु जन से घिरा 
हुआ देश है जहां कुछ करने की बजाय कुछ पाने की अपेक्षा अधिक रहती है/ हम अपने दायित्व का निर्वहन कर 
रहे हैं या नहीं इसे देखना नहीं चाहते, किन्तु हम दूसरों की और उंगली उठाने, उन्हें उनका दायित्वबोध कराने 
से नहीं चूकत आयर इतना ही नहीं यदि कोई कुछ करता है तो उसमे दोष निकाकानें उसकी आलोचना करने 
का अवसर भी हम अपने हाँथ से जाने जाने नहीं देना चाहते/यह आलोचना आज अन्ना हजारे की मुहीम की भी 
हो रही है, बाबा रामदेव की भी हो रही है और शान्तिभूषण की भी/ लोग जिन उम्मीदों के साथ इस आन्दोलन के 
पक्ष में खड़े हुए थे वे अनंत हैं तो वे सभी हल भी नहीं हो सकतीं, जब तक की लोग खुद कुछ करना नहीं चाहेंगें/ जब चुनाव होता है तो देश का आम आदमी उसमें मतदान को अपना कर्त्तव्य मानकर योगदान नहीं करता/ सही और गलत प्रत्याशी का खुद फर्क नहीं करता/ यदि योग्य और ईमानदार प्रत्याशी का चयन हो, संसद और 
विधानसभाओं में अच्छे लोगों की संख्या बढ़ जाये तो देश की और आम जमता से जुडी 50 फीशदी से अधिक 
समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाएगा/ यह लोग समझते भी हैं जानते वही हैं लेकिन मानते नहीं/
              भारत लोकतांत्रिक देश है, अर्थात जनता द्वारा शासित लेकिन जनता यह समक्ष नहीं या रही की वह 
स्वयं शासक है/ वह अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए खुद तैयार नहीं हैं और अपनी ही गलतियों का दोष 
दूसरों के सर मढ़ रही है/ जो मतदान में भागीदारी नहीं निभातें, उनकी संख्या भी आधी है तो कहीं-कहीं आधी 
से अधिक भी, और सच्चाई यही है की वे ही व्यवस्था के दोषों के सबसे बड़े आलोचक भी हैं/ स्पस्ट है की वे 
वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं, लेकिन यदि वे अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं करते तो क्या उन्हें दूसरों से 
ईमानदारीपूर्वक कर्त्तव्य निर्वहन की अपेक्षा करनी चाहिए/
             किसी बाबा के पास, किसी समाजसेवी के पास जादू की छडी नहीं है की वह मंत्र फूंकेगा और सब कुछ 
सही हो जाएगा/ व्यवस्था बदलनें के लिए सुधार की शुरूवात खुद से करनी होगी, निजी स्वार्थों को तिलांजलि 
देनी होगी, अन्याय के प्रतिकार में खड़े लोगों को समर्थन देना होगा, छोटे से छोटे भ्रष्टाचार का विरोध करना 
होगा और यह विरोध संगठित रूप से करने के लिए दूसरे ऐसे लोंगों की लड़ाई में भागीदारी निभानी होगी और 
सबसे बड़ा काम यह है की आगामी हर चुनाव में इमानदार और कवक इमानदार प्रत्याशी के पक्ष में मात्रां का 
संकल्प लेना होगा तभी बचाया जा सकेगा राष्ट्र का स्वाभिमान/
                                                                       
                                                                                                                                  एस. एन. शुक्ल