Followers

Wednesday 25 April 2012

अभिशाप नहीं है बढ़ती आबादी 


देश की बढ़ती जनसंख्या क्या वास्तव में अभिशाप है ? सरकारों और बुद्धिजीवी वर्ग की बंद कमरों में होने वाली गोष्ठियों की चिंता को देखें तो लगता है कि शायद देश की सारी समस्याओं की मूल वजह बढ़ती जनसंख्या ही है / अब से महज चार दशक पीछे लौटें तो अभाव , अकाल , भुखमरी , गरीबी कहीं वर्त्तमान से भी ज्यादा नज़र आती है / इन चालीस वर्षों में देश की जनसंख्या बढ़कर ढाई गुना  से भी ज्यादा हो गयी , लेकिन फिर भी समस्याएं उतनी नहीं हैं जितनी कि तब थीं / जनसंख्या बड़ी , वाहनों की तादाद बीस गुने से भी ज्यादा हो गयी तो सडकों पर , ट्रेनों में , अस्पतालों में भीड़ का बढ़ना भी स्वाभाविक है / तब आदमी पैदल या साइकिल से चलता था , अब स्वचालित दुपहिया या चौपहिया    वाहनों  पर , जो  आदमी की अपेक्षा  कई  गुना ज्यादा जगह  घेरते  हैं , तो फिर भीड़ तो बढ़ेगी  ही और रास्ते  भी सकरे  होते  जायेंगे  / तब जानलेवा  बीमारियों  , महामारियों  में असमय  मौतों  की संख्या  सर्वाधिक  थी  , इसी  वजह से आम  आदमी की औसत आयु बहुत  कम थी / अब दुर्घटनाओं  की बहुतायत  के  बावजूद  औसत आयु दर  बढ़ी है / इसका  सीधा  सा  अर्थ  है कि सुविधाएं  और स्वास्थ्य सेवायें  भी बढ़ी हैं , भले  ही वे  अभी  विक्सित  राष्ट्रों  की तुलना में बहुत कम    हैं /
    अब ज़रा  जनगणना के आंकड़ों  पर गौर  करें  /  बीते  वर्ष 31 मार्च  2011 को जनगणना के जारी  किये  गए  आंकणों में भारत की आबादी 1.21 अरब  अर्थात 121 करोड़  बतायी  गयी थी / उस  लिहाज से देखें तो दुनिया  की जनसंख्या में भारत की आबादी का प्रतिशत बढ़कर 17.5 हो गया   / पिछली  जनगणना  2001 की तुलना  में जनसंख्या में वृद्धि का प्रतिशत  15 से 16 रहा  , अर्थात  जनसंख्या विस्फोट  के मुहाने  पर बैठे भारत  के उन  माता  - पिताओं  को सद्बुद्धि  आ  गयी जो प्रजनन  और जनसंख्या वृद्धि में योगदान  को ही अपना  एकमात्र  धर्म  मान  बैठे  थे  / उन्होंने शायद खुद ही जनसंख्या वृद्धि की दुरूहताओं और अपनी संतानों को उचित परवरिश देने के लिहाज से कम संतान पैदा करने के सिद्धांत को अपनाया / यह वृद्धि निश्चित तौर पर सुखद परिणाम ही मानी जायेगी क्योंकि दस वर्ष में जनसंख्या की पंद्रह - सोलह फीसदी बढ़ोत्तरी तब कोई मायने नहीं रखती जबकि औसत आयु में अप्रत्याशित वृद्धि हुयी हो /
        वे जो साथ - सत्तर वसंत देख चुके हैं , देश के ऐसे बुजुर्गों की करोड़ों की तादाद आगामी एक - दो दशकों में अपनी आयु पूर्ण कर लेगी , और संतानोत्पत्ति के मामले में जैसी जागरूकता आज समाज में दिख रही है , यदि वह बरकरार रही तो आगामी दो दशकों में ही जनसंख्या की बढ़त और मृत्यु दर का आंकड़ा बराबरी पर पहुँच जाएगा / अर्थात जितनी संख्या में नवजीवन शरीर धारण करेगा लगभग उतने ही लोग इस दुनिया को अलविदा भी कह चुके होंगे / इस समय भारत सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला देश है , अर्थात उनका जिनकी आयु १८ से ४० वर्ष के बीच है / ये युवा अचानक और करीब - करीब एक साथ बूढ़े भी होंगे और पृकृति के नियमानुसार इस दुनिया से विदा भी लेंगे / शायद तब बिना किसी प्रयास के अचानक लगेगा जनसंख्या वृद्धि पर विराम / इसका सीधा सा अर्थ यह है कि यदि अब बढ़ती आबादी रोकने  के सरकारी  प्रयास न  भी किये जाएँ  तो भी जनसंख्या के बढ़ने के खतरे नहीं हैं / 
     अब प्रकृति के खेल पर भी गौर करें / उसका अपना खेल है, जो प्रकृति से खेलने लगता है तो प्रकृति उससे खेलने लगती है / जनगणना के आंकड़ों पर ही गौर करें तो लकड़ियों की लगातार घटती तादाद और पुरुष तथा महिलाओं की तादाद में बढ़ता आनुपातिक अंतर वास्तव में चिंता काविशय है / जन्म दर घटी है और उसमें भी लड़कों की अपेक्षा लाकदियं की ज्यादा घटी है / यदि यही स्थिति बरकरार रही तो आगामी दस वर्ष बाद भारत के बीस फीसदी से भी अधिक पुरुषों के लिए पत्नी मिलना मुश्किल हो जाएगा / यद्यपि अब बेटी और बेटों में बहुत अंतर भी नहीं रह गया है , वरन सच्चाई यह है कि बेटियाँ अपने माता - पिटा के प्रति बेटों की अपेक्षा कहीं ज्यादा चिंतित और कहीं ज्यादा वफादार होती हैं , फिर भी भारतीय समाज बेटों की चाह के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहा है / भले ही भ्रूण ह्त्या अपराध की श्रेणी में आता हो लेकिन अब भी गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण और गर्भ में बेटी होने की पुष्टि पर गर्भ समापन खूब हो रहा है / 
     यह प्रकृति का नियम है कि चरम पर पहुँचने के बाद उतार ही होता है और शायद जनसंख्या वृद्धि के मामले में इस समय भारत अपने चरम पर है / परवरिश की द्रिध्ती से कम बच्चे पैदा करने की विकशित होती सोच , समाज में नारियों का घटता अनुपात और हर पुरुष को भविष्य में पत्नी न मिल पाने के संभावित खतरे के चलते भविष्य में जनसंख्या बढ़ने के बजाय घटने की संभावनाएं कहीं अधिक हैं / सवाल यह है कि क्या तब जनसंख्या वृद्धि के उपाय किये जायेंगे ? दुनिया के कई देशों को इस परिस्थिति का सामना करना पद रहा है , इसलिए यदि भविष्य में भारत को भी उसी परिस्थिति का सामना करना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं होगा / जहाँ तक जनसंख्या वृद्धि को अभिशाप मानने का मामला है तो जो ऐसा मानते हैं वे महज एक ही पक्ष देख रहे हैं , उनके लिए जरूरतें पूरी करने और संसाधन जुटाने का पक्ष / वे उनकी शक्ति के सदुपयोग की बात नहीं कर रहे हैं / दुनिया के दूसरे देश हमारी प्रतिभाओं की योग्यता और शक्ति का अपने हित के लिए उपयोग कर समृद्धि की उंचाइयां छू रहे हैं , और हम किंकर्तव्यविमूढ़ हैं / क्या यह देश अपनी ही प्रतिभाओं और श्रम शक्ति का अपने हित में उपयोग कर समृद्धि की ऊँचाइयां नहीं छू सकता ? इसलिए यदि कहा जाय कि बढ़ती जनसंख्या अभिशाप नहीं वरन इस देश की नीतियाँ और नीयत खुद अभिशप्त हैं , तो गलत नहीं होगा /
 

Tuesday 24 April 2012

जर्नलिस्ट्स , मीडिया एण्ड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन

     जिस प्रयोजन से " जर्नलिस्ट्स , मीडिया एण्ड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन " को मूर्त रूप दिया गया है , वह प्रयोजन है , समाज के बीच अपनी कलमकार बिरादरी की विश्वसनीयता बनाए रखने की प्रतिबद्धता और सत्ता तथा समाज की दृष्टि में अपनी उपयोगिता तथा महत्ता को सिद्ध करने की कड़ी परीक्षा में सफलता / इस नए संगठन की किसी सामान उद्देश्य वाले संगठन से कोई  प्रतिस्पर्धा  या  प्रतिद्वंदिता   नहीं  है / जब परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ती है तो नवीन निर्माण अथवा नया घर बनाने की आवश्यकता होती ही है , और वही हम भी कर रहे हैं / वे चाहे पत्रकार हों , इलेक्ट्रानिक या वेब मीडिया से जुड़े लोग , लेखक या कवि , वे सभी संवेदनाओं से भरे हैं / समाज एवं  सत्ता की पल -पल की गतिविधि  पर  उनकी  सतत  सतर्क दृष्टि ही उन्हें मीडिया जगत में विश्वसनीय बनाती है , तो कलमकारों और रचनाकारों को स्रजन की दिशा प्रदान करती है / हम सत्ता और समाज के बीच मध्यस्थ हैं , सेतु हैं , उनके पथ प्रदर्शक हैं , उन्हें सच्चाई से अवगत कराते हैं और सच्चे अर्थों में हम ही समाज के सजग प्रहरी हैं /
     हम वास्तव में जनता के गैर निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं और यह भूमिका हमने स्वेक्षा से स्वीकार की है तो हमें उसका निर्वहन भी सम्पूर्ण निष्ठा से करना चाहिए / इस बात को स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं है कि विगत दो दशकों में कमियाँ हमारे वर्ग के बीच भी आयी हैं , किन्तु फिर हम उन कमियों के लिए अपने इस वृहद परिवार को पूरी तरह दोषी मानने के लिए तैयार नहीं हैं / आज का जो राजनैतिक और प्रशासनिक चरित्र है , वह काजल की कोठारी है , कीचड और गन्दगी से भरा मार्ग है / चूंकि हमें उसी गन्दगी के बीच से होकर गुजरना है तो हम कालिख और गन्दगी से पूरी तरह बचकर भी नहीं nikal सकते / मैं yahaan उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जो गन्दगी के पक्षधर  हैं  और सच  पर  पर्दा  डालकर  दोषियों  से उपकृत  होकर अपने  को  गौरवान्वित  महसूस  करते  हैं / और न मैं उनकी बात कर रहा हूँ जो मौसम के साथ अपना मिज़ाज बदल लेते हैं , तथा जो भी सत्ता या प्रशासन की कुर्सी पर हो , उसका गुणगान करने लगते हैं / मैं बात उनकी कर रहा हूँ जिनके ह्रदय में समाज की पीड़ा है और जो समाज को पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्षरत हैं /
     ऐसे संघर्षरत सरस्वती पुत्र अपनी सारी मेधा के प्रयोग और समाज के प्रति समर्पण के बाद भी वह सम्मान हासिल नहीं कर पाते जिसके  वे अधिकारी  हैं /वे अपने उन  सेवायोजकों  द्वारा  भी सम्मान नहीं पाते जिनके लिए वे जूझ रहे होते हैं / उनकी सेवाओं के बल पर समृद्धि की उंचाइयां छूते प्रकाशन संस्थानों में भी उन्हें महज नौकर समझा जाता है तो उनकी सेवाओं के बदले उन्हें दिया जाने वाला पारिश्रमिक भी पर्याप्त नहीं होता / उनकी कलम भी स्वाधीन नहीं रह पाती क्योंकि उद्यमी और व्यापारिक घरानों के आधिपत्य में संचालित प्रकाशन समूहों और इलेक्ट्रानिक चैनलों के स्वामी अपने व्यावसायिक हितों और आर्थिक लाभ के लिए प्रतिभाओं को अपने अनुरूप चलने को विवश कर देते हैं /
       जब मीडिया अपने कर्त्तव्य मार्ग पर डगमगाता है तो समाज उसके लिए कभी मालिकों को दोषी नहीं ठहराता / चूंकि समाज के प्रहरी की भूमिका हमारी है , इसलिए दोषी हमें ही माना जाता है / हम पर खबरों को तोड़ - मरोड़कर प्रस्तुत करने या पेड़ न्यूज़ छापने और दिखाने के आरोप लगते हैं / यदि ऐसा सच भी हो तो भी क्या उससे वास्तविक पत्रकार और मीडिया प्रतिनिधि लाभान्वित होता है ? सरस्वती पुत्र , लक्ष्मी पुत्रों के सामने बौने नज़र आते हैं / प्रतिभा को पंगु बनाने और गुलाम बनाए रखने का कुचक्र अनवरत जारी है / हमारा , हमारे कर्म का अस्तित्व संकट में है / समूचे राष्ट्रों का इतिहास - भूगोल बदलने की क्षमता रखने वाली कलम शायद ही कभी इतनी असहाय रही हो , जैसी कि इस दौर में है / फिर भी हम बाधाओं से लादे हैं और जीते भी हैं / हर पढ़ा - लिखा व्यक्ति जानता है कि देश को लूटकर अपनी तिजोरियाँ भरने वाले  यदि जेल की शालाखों के पीछे भेजे जा सके तो उसका श्री केवल और केवल मीडिया के खाते में है /
      ऐसे लोग कलम की स्वाधीनता  के शत्रु हैं और सच को दबाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं , जा भी रहे हैं / जाने कितने निर्भीक पत्रकारों को सच उजागर करने के बदले सत्ता और रसूख वालों की प्रताड़ना सहनी पडी तो जाने कितने हर वर्ष मौत की नींद सुला दिए जाते हैं / यदि देश भर के असमय मौत की नींद सुला दिए गए पत्रकारों की वास्तविक संख्या देखी जाय तो शायद वह संख्या सीमा पर देश की रक्षा करते हुए जान गंवाने वालों की संख्या से कहीं अधिक ही होगी / यह तथ्य इस सच्चाई का प्रमाण है कि यदि सैनिक भारतीय सीमाओं के रक्षक हैं तो हम देश की आतंरिक सुरक्षा , सामाजिक समरसता और लोकतंत्र के रक्षक तथा सजग प्रहरी हैं , और यह जिम्मेदारी हम बिना सरकार से पारिश्रमिक लिए निभा रहे हैं / सत्ताधारियों की बार- बार लोकतंत्र के चीरहरण की कुचेष्टा को नाकाम करने में हमारी बिरादरी की अहम् भूमिका रही है और इस  भूमिका के निर्वहन में हमारे साथियों के साहस , त्याग और बलिदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता /
      दुर्भाग्य यह है क़ि इतना सब होते हुए हम भी अपने को उन दोषों से बचा नहीं पाए जो भारत की वर्त्तमान राजनैतिक   व्यस्था  ने  सम्पूर्ण  भारतीय  समाज  में  पैदा  कर  दिए हैं / धर्मानिरपक्षता  के  कथित पक्षधर  राजनेताओं  और राजनैतिक दलों ने सामाजिक व्यवस्था को छिन्न - भिन्न कर दिया है / राष्ट्र का सम्पूर्ण समाज फिरकों में बटा है / पड़ोसी , पड़ोसी पर भरोसा करने को तैयार नहीं है , तो वही दोष हमारे अपने बीच तेजी से विस्तारित होते जा रहे हैं / चाहे वे प्रिंट मीडिया के लोग हों , इलेक्ट्रानिक या वेब मीडिया के लोग या कलमकार , सभी का लक्ष्य एक है लेकिन सभी फिरकों में बाते हैं / इस वृहद् परिवार के किसी सदस्य पर संकट आने पर अब बिरादरी के बीच वैसी एकजुटता नहीं दिखती जैसी क़ि दो - ढाई दशक पूर्व तक दिखती थी / अर्थात सच्चाई यह है क़ि हमारा अपना ही अस्तित्व , हमारे पेशे का अस्तित्व संकट के दौर से गुजर रहा है / दुनिया भर को समझाने की जिम्मेदारी ढोते हुए भी हम शायद अपने ऊपर   घिर   रहे संकट को समझ  पाने में नाकाम   हैं , या समझते  हुए भी कुछ  करना नहीं चाहते / इस परिस्थिति पर निर्णायक  विजय  के लिए संगठित प्रयासों की आवश्यकता को ध्यान  में रखकर  हम- आप  ने पत्रकारों , मीडियाकर्मियों और कलमकारों का एक राष्ट्रीय साझा मंच बनाने  का प्रयास किया है , और इस मंच को नाम दिया है  जर्नलिस्ट्स , मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन /
                                           हमारे प्रयास और लक्ष्य 
१- हम वर्त्तमान व्यस्था को बदलना चाहते हैं , तथा संगठित प्रयासों से कलमकारों एवं मीडिया प्रतिनिधियों  की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करना चाहते हैं /
२- हम सारे भारत के पत्रकारों , इलेक्ट्रानिक एवं वेब मीडिया कर्मियों तथा कलमकारों का एक सशक्त साझा मंच तैयार करना चाहते हैं और उस मंच को इतना शक्तिशाली बनाना चाहते हैं क़ि हमारी विरोधी शक्तियाँ , हमारे वृहद् परिवार के किसी भी सदस्य की ओर कुदृष्टि का साहस न कर सकें /
३- हम प्रेस की स्वतन्त्रता , निष्पक्षता और स्वस्थ पत्रकारिता के मानदंडों के उन्नयन के लिए , पत्रकारिता , मीडिया और लेखन जगत से जुड़े लोगों को संगठित करना चाहते हैं और संगठन का विस्तार क्षेत्र स्तर से लेकर जिलों, राज्यों और राष्ट्रीय स्तर तक करना चाहते हैं / हमारा प्रयास होगा क़ि सभी इकाइयों में पदाधिकारियों का चुनाव सदस्यों के बहुमत के आधार पर हो /
४- हम सामान उद्देश्यों वाले अन्य संगठनों के साथ सामंजस्य बनाकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक सरोकारों में मीडिया की सक्रिय भूमिका का निर्वहन करना चाहते हैं / 
५- हम देश भर के लघु एवं माध्यम श्रेणी के प्रकाशनों के लिए न्यूनतम शुल्क पर बेहतर समाचार , फीचर एवं रिपोर्ताज उपलब्ध कराने के लिए सांगठनिक सहयोग से समाचार एवं फीचर एजेंसी की स्थापना करना चाहते हैं /
६- संगठन के माध्यम से पत्रकारिता एवं मीडिया क्षेत्र के प्रति युवाओं को जागरुक और प्रोत्साहित करने के लिए हम प्रशिक्षण pa    केन्द्रों  की भी स्थापना करना चाहते हैं और समाचार संस्थानों  को कुशल  कर्मी  उपलब्ध कराना  चाहते हैं /
7- सरकारी  या संस्थागत  सर्वेक्षण  संस्थाओं  के साथ अनुबंध  कर  हम कार्यदायी संस्थाओं  को ईमानदार परिणाम देना चाहते हैं तो संगठन के सदस्यों के लिए आवश्यकतानुसार रोजगार भी उपलब्ध कराना चाहते हैं /
८- हम श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा के सरकारी द्रष्टिकोण और मापदंड को बदलना चाहते हैं और छोटे प्रकाशनों  , जिनमें महज एक - दो लोगों द्वारा ही सारे कार्य संपादित किये जाते हैं उन्हें श्रमजीवी पत्रकार की शासकीय मान्यता दिलाना चाहते हैं /
९-  पत्रकारों की जिन्दगी सबसे अधिक जोखिम भरी है / वह माफिया के खिलाफ आवाज उठाता है तो उसे धमकियां मिलाती हैं और कभी- कभी गोलियां भी / प्रशासनिक भ्रष्टाचार की परतें उघाड़ता है तो प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ता है और राजनीति को आइना दिखाने का प्रयास करता है तो राज्कनेता उसके विरोधी हो जाते हैं / यदि वे अपने जोखिम भरे काम में अपनी जिन्दगी भी गँवा बैठते हैं तो भी समाज और सरकार की और से उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाटा जिसके वे अधिकारी हैं / हम संगठित प्रयासों से इस परिस्थिति को बदलना चाहते हैं /
१०- हम एक ऐसे पत्रकार कल्याण कोष के स्थापना करना चाहते हैं , कि किसी  पत्रकार साथी  , मीडियाकर्मी या लेखक को किसी आकस्मिक आपदा की स्थिति में आर्थिक मदद की जा सके और उसक परिवार को सम्मानजनक जिन्दगी दी जा सके /
११- हम स्वस्थ पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रीय और समन्वित भागीदारी निभाना चाहते हैं और वह सब करना चाहते हैं जो व्यावहारिक है तथा पत्रकारिता के मानदंडों के अनुरूप है /
नोट ---यदि आप हमारें सिद्धांतों से सहमत हैं तो हमें हमारें ईमेल एड्रेस -------- journalistsindia@gmail.com पर सम्पर्क करें .

Thursday 19 April 2012

(17) श्रमेव जयते ?

मई दिवस , मई का पहला दिन अर्थात अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस / वर्ष में एक दिन श्रीमिकों के नाम , श्रमिकों के लिए और राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रम दिवस के आयोजन, बहस- मुबाहसे , सेमीनार, परिचर्चाएं / शायद संगठित श्रम क्षेत्र के लिए कुछ घोषनाएँ भी हों , और बस / क्या इतने भर से ही सम्मानित हो जाता है श्रम ? बिना श्रमिकों की भागीदारी के दुनिया का कोई भी काम हो पाना संभव नहीं है , फिर भी सर्वाधिक उपेक्षित है श्रम और उसके अधिष्ठाता श्रमिक / संगठित क्षेत्र में श्रमिकों के सांगठनिक दबावों के कारण भले ही उन्हें महत्व दिया जाता हो , भले ही उनकी बात सुन ली जाती हो , लेकिन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की पीड़ा कौन सुनता है ?
      कल्पना करें कि यदि एक दिन के लिए ही सही , सारे श्रमिक काम रोक दें तो दुनिया भर का जीवन और प्रवाह थम जाएगा / खेतिहर मजदूर काम पर न जाएँ , सड़क मजदूर सामूहिक अवकाश ले लें , सफाईकर्मी काम करने से इनकार कर दें , पल्लेदार वैगनों और ट्रकों का माल चढाने - उतारने से इनकार कर दें , बारबर हजामत बनाने से मना कर दें , धोबी कपडे धोने और उन पर इस्तरी करने से इनकार कर दें , वाहनों के मकैनिक  अपना  रिंच - पाना रखकर  छुट्टी  मनाने  लग जाएँ , बाज़ारों और दुकानों में काम करने वाले लोग काम न करें , होटलों और रेस्तराओं के रसोइये तथा बैरे काम न करें , घरों की कामवालियाँ काम पर न जाएँ , कारखानों के श्रमिक काम रोक दें , टैक्सियों और ट्रकों - बसों के चालाक चक्का जाम कर दें , रिक्शे - टाँगे aurठेला खीचने वाले घर बैठ जाएँ , दरजी कपडे सिलने , मोची जूता गाठने  और उस पर पालिश करने , माली बगीचे की निराई - गुडाई , कुम्हार बर्तन बनाने , लुहार खेती के औजार बनाने या उन पर धार रखने , बिजली विभाग के लाइनमैन बिजली के पोल पर चढाने और कनेक्शन की खराबी ठीक करने , वाचमैन रखवाली करने , राजमिस्त्री और मजदूर निर्माण कार्य करने ,लिफ्टमैन लिफ्ट चलाने, संगतराश पत्थर तराशने , आता- मसाला पीसने वाले चक्कियाँ चलाने , रेहड़ी - ठेले वाले रेहड़ीयां लगाने , दूधिये दूध दुहने, उसे घरों तक पहुंचाने से इनकार कर दें /  ईंट भट्ठों के पथेरे , भट्ठों में ईंटें लगाने- निकासी करने वाले , कोयला उतारने वाले , भट्ठों में कोयला झोकने वाले महज एक दिन का अवकाश ले लें, कारखानों के श्रमिक एक दिन की बंदी की घोषणा कर दें तो शायद सारी दुनिया का प्रवाह थम जाएगा और चारों और त्राहि - त्राहि मच जायेगी / कलमकार एक दिन के लिए कलम रोक दें , रिपोर्टर रिपोर्ट बनाने , कम्प्यूटर ओपरेटर कम्प्यूटर चलाने , छपाई मशीन चलाने वाले मशीन चलाने और हाकर अखबारों का वितरण करने से मना कर दें , तो देश- दुनिया की खबरों से कट जाएगा आदमी /
     देश - दुनिया के उच्च पदों पर आसीन बड़ी मानी जा रही हस्तियाँ तो पूरी तरह पंगु ही हो जायेंगी क्योंकि उनकी सारी गतिविधियाँ उनके सेवकों , सहयोगियों के श्रम पर निर्भर करती हैं /वे स्वयं नहीं चला सकते वाहन , स्वयं अपने पेट के लिए भोजन तक नहीं बना सकते , स्वयं कपडे नहीं धुल सकते , इस्तरी नहीं कर सकते , जूतों पर पालिश नहीं कर सकते , स्वयं हजामत नहीं कर सकते , यहाँ तक कि स्वयं अपने हाथ उठाकर पानी भी नहीं पी सकते / यदि महज एक दिन के लिए उन्हें मिलाने वाली उनके सेवकों की सेवाए रोक दी जाएँ तो वे क्या करेंगे ? दुर्भाग्य यह कि जो दूसरों की श्रम सेवाओं पर सर्वाधिक आश्रित हैं वे ही सबसे अधिक उपेक्षा भी करते हैं श्रम और श्रमिकों की / उनकी और उनके बच्चों की नज़र में श्रमिक गंदे आदमी होते हैं , क्योंकि परिवार में उन्हें ऐसा ही बताया भी जाता है / और उनके ही क्यों , आम सनाज में भी थोड़ा सा साफ़ - सुथरा काम करने वाले लोगों का नजरिया भी श्रमिकों के प्रति उपेक्षापूर्ण ही होता है / सरकारी कार्यालयों में एक अदना से कर्मचारी के सामने भी कोई मज़दूर कुर्सी पर बैठ सकने का साहस नहीं कर सकता / ट्रेनों - बसों की भीड़ में सफ़र करते समय प्रायः यह श्रमिक तबका सीटों और बर्थों से नीचे फर्श पर बैठकर सफ़र करता नज़र आता है / सार्वजनिक समारोहों में कुर्सियां उनके लिए नहीं होतीं , जबकि वे निर्माता भी होते हैं और उन समारोहों के नियंता भी / वही लगाते हैं पंडाल , बिछाते हैं कुर्सियां , लेकिन खुद बैठ नहीं सकते / वे अपनी उपेक्षा से आहात भी नहीं होते , क्योंकि लगातार तिरस्कार सहते - सहते वे उसकी अभ्यस्त हो चुके होते हैं /
      प्रश्न यह है कि यदि सारी दुनिया का सभ्य , सुसंस्कृत और समृद्ध समाज उन्हीं श्रमिकों और उनकी सेवाओं पर आश्रित है तो फिर वह उन्हीं के द्वारा उपेक्षित क्यों है ? इसका जवाब कोई नहीं दे सकता क्योंकि सेवकों और श्रमिकों का शोषण तथा उपेक्षा समाज में परम्परा की तरह स्थापित हो चुकी है तो श्रमिकों की पेशेगत मजबूरी और रिजी - रोटी की आवश्यकता इस शोषण और उपेक्षा को स्वीकार भी कर चुकी है / महज मालिकों द्वारा ही नहीं , श्रमिक वर्ग अपने ही वर्ग के अपने से वरिस्थ पदों पर आसीन श्रमिकों द्वारा भी शोषित और उपेक्षित है / यथा राजमिस्त्री बिना मज़दूरों की मदद के किसी इमारत की आमीर नहीं कर सकता , यहाँ 
राजमिस्त्री और मज़दूर दोनों ही श्रमिक हैं , लेकिन राजमिस्त्री द्वारा भी शोषित और उपेक्षित होते हैं मज़दूर / यह परम्परा पढ़े - लिखे तबके में भी है / आफिस का बॉस अपने ही चपरासी को हेय द्रष्टि से देखता है / जिस स्कूल में चपरासी का बच्चा पढ़ने जाता है , उस स्कूल में बाबू अपने बच्चे को भेजना अपनी तौहीन समझता है / और सच मायने में यह अंतर , यह भेदभाव पैदा करने के लिए देश का राजनैतिक और प्रशासनिक तंत्र भी कम जिम्मेदार नहीं है /भारत के लोकतांत्रिक संविधान में सामान नागरिक अधिकारों को व्याख्यायित किये जाने के बावजूद यह भेदभाव स्पष्ट तौर पर दीखता भी है और किया भी जाता है / यदि एक सामान्य व्यक्ति सहमत न होने पर किसी राजनैतिक पदाधिकारी को विरोध स्वरुप काला झंडा दिखाता है तो वह अपराधी है , उसे पुलिस के साथ ही राजनैतिक मठाधीश भी जूतों से रौंद सकते हैं , लेकिन जूते से प्रहार करने वाले राजनैतिक व्यक्ति को अपराधी नहीं माना जाता , उसे क़ानून सार्वजनिक जीवन से बाहर करने की सजा नहीं सूना सकता / ( ऐसा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान हो चुका है ) / यदि किसी राजनैतिक विरोधी के साथ ऐसा हो सकता है तो आम आदमी और आम श्रमिक व निम्न वर्ग के साथ कैसा बर्ताव होता होगा , इसे ज्यादा व्याख्यायित करने की आवश्यकता नहीं है /
       अब शिक्षा का स्तर बढ़ने के साथ जागरूकता भी बढ़ी है  , लेकिन उतनी नहीं जितनी कि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक राष्ट्र में होनी चाहिए / श्रमिक वर्ग में शिक्षा का स्तर अब भी बहुत न्यून है , इसलिए उनमें अभी भी जागरूकता नहीं आ पायी है / प्रौढ़ शिक्षा और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रम भी श्रमिक वर्ग और उनके बच्चों का शैक्षिक उद्धार नहीं कर सके तो निशित रूप से इसके लिए व्यस्था की खामियां ही जिम्मेदार हैं /
       सवाल यह है कि क्या ये व्यस्थागत खामियां कभी दूर की जा सकेंगी ? क्या कभी कोई श्रमिक भी अपने बच्चे को इंजीनियर , डाक्टर या प्रशासनिक अधिकारी बनाने के सपने को देख और साकार कर पायेगा ? क्याकभी किसी मजदूर का बच्चा किसी प्रशासनिक अधिकारी के बच्चे के साथ कक्षा की एक ही बेंच पर बैठकर पढ़ पायेगा ? जब तक इन प्रश्नों का समाधान नहीं किया जाता , तब तक श्रम और श्रमिकों के लिए सम्मान जैसे आयोजन , भाषण और शब्द महज आडम्बर के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं / जब श्रम उपेक्षा का शिकार होता है , श्रम का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता , तभी उभरता है आक्रोश / यह आक्रोश उबला भी है और कई बार उसकी परिणति की भयावह परिणाम भी भोगें हैं देश ने / आक्रोश न उबले , इसके लिए जिम्मेदार लोगों को चिंतन करना चाहिए , उपाय किये जाने चाहिए और उन्हें ईमानदारी पूर्वक कार्यान्वित भी किया जाना चाहिए / तभी सार्थक हो सकेगा श्रमेव जयते /
                                            - एस. एन. शुक्ल

Sunday 15 April 2012

(16) बेघर और खाली घर

देश में २ करोड़ ४६ लाख ७३ हजार घर ऐसे हैं जिनमें वर्षों से कोई रहने वाला नहीं है , लेकिन फिर भी १४ करोड़ से से भी अधिक लोगों को सिर पर छत नसीब नहीं है / वे कहीं झुग्गियों में, कहीं पालीथिन सीट के नीचे , कहीं पेड़ों की छाँव में और कहीं सडकों पर पैदल चलानेवालों के लिए बने फुटपाथ पर जाड़ा, गर्मी, बरसात सहते हुए जिन्दगी बसर करने को मजबूर हैं / यदि इन तालाबंद घरों को आबाद कर दिया जाए और औसत प्रति छः सदस्यों वाले परिवार को एक छत उपलब्ध करा दी जाए तो १४ करोड़ ८० लाख , ३८००० लोगों को अपना घर उपलब्ध कराया जा सकता है /अर्थात फिर किसी को नहीं सोना पडेगा खुले  आकाश के नीचे / फिर शायद सरकारों और विकास प्राधिकरणों को बेघर लोगों के लिए नए घर बनाने, उनके लिए बजट जुटाने और जमीनें खोजने की जद्दोजहद भी नहीं करनी पड़ेगी और वह पैसा जो आवासीय योजनाओं में खर्च करना पद रहा है ,विकास की अन्य आवश्यक योजनाओं , नागरिक सुविधाओं को बेहतर बनाने पर खर्च किया जा सकता है /सच यह है कि सरकारों और देश के तंत्र में ऐसा करने की इच्छाशक्ति का अभाव है, नहीं तो महज एक योजना  , एक अध्यादेश , और देश की सबसे बड़ी समस्या का चुटकियों में समाधान ! लेकिन क्या कभी ऐसा होगा ?
      हम यह नहीं कहते कि बेघरों को घर मुफ्त में दे दिए जाएँ / उनसे घरों की कीमत ली जाए और उसे सुविधानुसार किश्तों में वसूला जाए / वे अदा भी कर सकेंगे अपने  आवास का मूल्य, क्योंकि जब  वे अपने परिवार की सुविधा  और सुरक्षा  के प्रति आश्वस्त  होंगे  , तो वे ज्यादा देर तक , ज्यादा काम कर सकेंगे, ज्यादा कमा सकेंगे और अपना खुद का घर होने का सपना साकार करने के लिए घर की कीमत अदा करने का प्रयत्न भी करेंगे /तब शायद अपराधों का ग्राफ भी गिरेगा क्योंकि अपराधियों के लिए अपराधों के अवसर घटेंगे और सरकारों का क़ानून- व्यवस्था बनाए रखने का भारी बोझ भी घटेगा /
      देश में ढाई करोड़ घर खाली पड़े हैं , जिनमें कोई रहने वाला नहीं है , यह खुलासा केंद्रीय गृह मंत्रालय ने खुद अपने ताज़ा आंकड़ों में किया है / संभव है कि खाली घरों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं और भी अधिक हो , लेकिन अब आम आदमी का सवाल होगा कि ये घर खाली क्यों हैं और किसके हैं ?गृह मंत्रालय के अनुसार पिछले एक दशक में ही खाली घरों की संख्या में एक करोड़ घरों का इजाफा हुआ है / मतलब साफ़ है कि ये तालाबंद एक करोड़ घर या तो नए बनवाये गए हैं या खरीदे गए हैं / एक और सवाल कि यदि घर बनवाये गए या खरीदे गए तो इनमें लोग रह क्यों नहीं रहे हैं ? दरअसल जो इन घरों के मालिक हैं उन्हें घरों की आवश्यकता ही नहीं है / उनके पास पहले से ही पारिवारिक आवश्यकता से कहीं अधिक जगह वाले अपने घर हैं  / जो हिस्सा आवश्यकता से अधिक है , वह किरायेदारों से भरा है और शहरों में मकानों के किराए की दरें भी इतनी ज्यादा हैं कि प्रायः हर किरायेदार दस वर्ष में ही उस आवासीय हिस्से का मूल्य अदा कर देता है जो उसके पास किराए पर है /वह मकान नहीं खरीद सकता क्योंकि उसके पास मकान की एकमुश्त कीमत अदा करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है / इसलिए जिनके पास अकूत पैसा है, काला धन है , वे उसे प्रापर्टी में लगाकर स्थायी संपत्ति में परिवर्तित कर रहें  हैं / चालीस  लाख का मकान 5 लाख में खरीदा  गया  दिखाया  जाता है, अर्थात ३५ लाख रुपया दो नंबर में अदा किया जाता है / अब क्या कर लेंगे इनकम टैक्स वाले ? काली कमाई को छुपाने का इससे बेहतर रास्ता और भला क्या हो सकता है ?
     इतना ही नहीं  सरकारी / अर्धसरकारी आवासीय संस्थाओं तथा नगरीय विकास प्राधिकरणों के भवनों और भूखंडों के आवंटन में सरकारी मशीनरी अपनी जेबें गरम करने का जो खेल खेलती रही है , उससे जिन लोगों के लिए योजनायें बनायी गयी थीं , उनकाशायद ही भला हो सका हो , लेकिन रसूखदार और काली कमाई वालों ने एक ही संस्था से तीन- तीन , चार- चार मकान हासिल कर लिए / परिवार में चार प्राणी और चारों के नाम पर अलग- अलग मकान / कहीं तो एक ही नाम पर तीन- तीन मकान और वह भी एक ही शहर में , एक ही संस्था द्वारा आवंटित करा लिए गए , जबकि उन्होंने आवेदन   के समय नोटरी  द्वारा सत्यापित  शपथ- पत्र   दाखिल  किये थे कि शहर में उनके नाम से कोई अन्य आवास नहीं है / इस गोरखधंधे में विकास प्राधिकरणों के अफसरों से लेकर चपरासियों तक ने खूब काली कमाई की तो शहरों में तैनात  लेखपाल  रातों - रात  करोड़पति  बन  गए / दिल्ली नगर  निगम  से लेकर लखनऊ  विकास प्राधिकरण के बाबुओं की इस हरामखोरी की खबरें समाचार  - पत्रों में कई  बार  प्रकाशित  भी हुईं  और हुआ बस यह कि निजाम  बदला  तो प्राधिकरण के बड़े  अधिकारी को वहां  से हटाकर  किसी दूसरी  मलाईदार  पोस्ट  पर बिठा  दिया गया /
       उत्तर  प्रदेश  की पूर्व  मुख्यमंत्री मायावती के दरी प्रोजेक्ट काशीन्राम शहरी आवास योजना का सच भी यही है कि ज्यादातर आवास उन्हें आव्बंतित किये गए जो पात्र नहीं थे , लेकिन आवंटन अधिकारी की जेबों में नोटों की गद्दी ठूंसने की हैसियत में थे , तो बीते वर्षों में दिल्ली विकास प्राधिकरण का भी भवन आवंटन का ऐसा ही कारनामा महीनों तक समाचारों की सुर्ख़ियों में रहा और फिर बस टाँय- टाँय फिस्स / कर lo जो करना हो , किसी के पास पांच मकान और परिवार के सदस्यों की संख्या चार तो किसी परिवार के १४ सदस्यों के सिर पर फूस का टट्टर भी नहीं /
           जनगणना विभाग के सूत्रों के अनुसार जनगणना २०११ में ऐसे मकानों की भी गणना हुयी थी जो छः महीने या उससे अधिक समय से तालाबंद थे और वे आंकड़े १२ लाख ८० हजार से भी अधिक मकानों के थे / इनमें से अधिकाँश मकान आवासीय योजनाओं के हैं तो उन्हें उन लोगों को पुनः आवंटित करने में क्या समस्या है जिन्हें वास्तव में एक अदद मकान की आवश्यकता है ? जिन लूगों ने झूठे शपथ-पत्रों के आधार पर मकान आवंटित करा लिए , उनके आवंटन निरस्त करने में क्या समस्या है ?
        शायद ऐसा कभी नहीं किया जाएगा , क्योंकि अपात्र होते हुए भी आवासीय योजनाओं में गलत तरीके से मकान हथियाने वाले ज्यादातर लोग सम्पन्न हैं, रसूखदार हैं / वे धनिक वर्ग से हैं और प्रायः हर राजनैतिक दल के आर्थिक मददगार भी / बहुत से तो सीधे राजनैतिक दलों से जुड़े हैं , फिर चाहे जिस दल की सरकार हो , ऐसे झूठे सफेदपोशों के खिलाफ कार्रवाई का साहस कोई कैसे जुटा सकता है ? क्या समझ पायेंगे देश के नीति नियंता इस समस्या को और क्या कभी वास्तव में समस्याओं के निराकरण के ईमानदार प्रयास किये जायेंगे ?
                                                                    - एस. एन शुक्ल