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Monday 28 May 2012

समाधान क्या है ?

            लूट तो हर जगह है और समस्याएं भी अनंत/ आज जनता से जुडी प्रायः हर समस्या का कारण भ्रष्टाचार है/ जन लोकपाल बिल कानून का रूप ले भी ले तो क्या
आम आदमी की बिजली, पानी, सड़क, सफाई और राशन कार्ड जैसी सम्स्याओं का समाधान हो जाएगा ? इसके
लिए तो खुद ही लड़ना पडेगा/ जीवन है तो समस्याएं भी रहेगी और उनके समाधान के लिए संघर्ष भी, और जीतेगा
भी वही जो लडेगा/
            भारत का संविधान किसी ने नहीं बनाया/ सैकड़ों विद्वानों, विधिवेत्तायों, धर्माधार्यों आयर मनीषियों की 2
बरस 11 माह 18 दिन की म्हणत और माथापच्ची के बाद निर्मित किये गए संविधान में उसके लागू होने के बाद
से ही संशोंधन भी शुरू हुए और वे आज तक हो रहें हैं/ इसका स्पस्ट कारण है की भारतीय संविधान अभी तक पूर्ण
नहीं है और शायद भविष्य में भी नहीं हो पायेगा/ परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है और उस परिवर्तन के साथ
परिस्थितियां तथा आवश्यकताएं भी बदलतीं हैं तब कई जरूरतों के लिए संविधान में नए आयाम जोड़े जायेंगें,
लेकिन उससे पुराने की उपयोगिता समाप्त भी नहीं हो जायेगी/ यह हर उस देश में होता है जहां लिखित संविधान
प्रभावी है इसलिए भारत के संविधान में भी वे अपेक्षाएं रहेगीं लेकिन इससे वर्तमान संविधान अनुपयोगी और
निष्प्रयोज्य नहीं हो जाता/
            समय के साथ लोगों की प्रवृत्ति बदलती है, अच्छे बुरे लोगों का अनुपात बदलता है/ वर्तमान में असंतोष
बढ़ा है और सच्चाई यही है की असंतोष का कारण देश की भौतिक प्रगति ही है/ जब पड़ोसी ओर संबंधी हमसे
ज्यादा वैभव और सुविधायों का भोग कर रहें हों, तो हम भी उन्हें हासिल करने के लिए लालायित हो उठते हैं/ परिवार और बच्चों की जिद और दबाव के आगे कितने ऐसे लोग हैं जो उचित-अनुचित की सीमाओं में बंधे रहते
हैं ? अन्दर कहीं कसमसाहट होती है की हम पड़ोसी या रिश्तेदार के बच्चों जैसी सुविधाएं अपने बच्चों को नहीं दे
पा रहें हैं, और यहीं से नैतिक-अनैतिक की सीमाएं टूट जाती हैं/ भ्रष्टाचार की यहीं से शुरुवात हो जाती है/
परिवर्तन चाहे कैसा भी हो उसके साथ बहुत से दोस्त निश्चित रूप से आते हैं ऋतुएं बदलती हैं और दो-दो ऋतुयों
के संधिकाल में प्रायः शारीरिक व्याधियां भी धावा बोलती हैं/ तब लोग सर्दी, जुकाम, सिरदर्द, खासी, बुखार आदि 
का प्रायः सामना करते हैं, उनका इलाज भी किया जाता है/ भारत में इन दिनों उसी तरह का पुरातन और नवीन 
मान्यताओं का, रूढ़िवादिता और प्रगतिशीलता का, पश्चिम के प्रभाव का, बढ़ते संसाधनों और सुविधायों का 
संधिकाल है, अर्थात जटिलताओं भरा संधिकाल/ जिस प्रकार व्याधियों से घिर जाने पर शरीर का इलाज किया 
जाता है उसी प्रकार परिवर्तन जनित व्याधियों से घिरे समाज और राष्ट्र का इलाज भी जरूरी है/
            बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्र जागरण अभियान या अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल को 
लेकर किये गए आन्दोलन और लोकपाल शब्द से पूर्व जन शब्द जोडनें का उद्देश्य महज एक था, देश भर में 
व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रभावी विराम लगाना, जनहितकारी योजनाओं को अंतिम और पात्र व्यक्ति तक 
सुनिश्चित तौर पर पहुचाया जाना तथा विकास की दिशा को सर्वांगीण और सर्वव्यापी बनाना/ जो लोग इन 
आन्दोलनों के विरोधी रहें हैं अथवा हैं उनकी समाज और राष्ट्र के प्रति निष्ठा सन्देह से परे नहीं है/ फिर भी 
उम्मीदें समाप्त नहीं हुयी हैं/ जब एक बार राष्ट्र विरोध में खड़े होने का साहस जुटा लेता है, तो फिर वह बार-बार खडा होता है, और ऐसा हो चुका है/
              अभी उम्मीदें समाप्त नहीं हुईं हैं/ इस देश का आम आदमी हजारों वर्षों से उम्मीदों के सहारे जीता 
गया है/ यह प्रकृति प्रदत्त है/ आकाशीय वर्षा के भरोसे फसल बोने वाला किसान सोचता है की वर्षा अच्छी 
होगी तो उसकी फसल भी अच्छी होगी/ बरसात अच्छी नहीं होती, फसल सूख जाती है, तब भी वह उसे 
अपना प्रारब्ध मानकर संतोष कर लेता है/ फिर खेतों में नयी उम्मीदों के ताने-बाने बुनते हुए बीज डालता है, चाहें वे वर्षों-वर्ष न पुरे हों/ यहाँ आततायी और अन्यायी का मुकाबला करने के लिए देवी-देवताओं, पीरों-फकीरों, मजारों की अद्रश्य शक्तियों से मदद माँगने और याचना की पुरानी परम्परा है/ लोग सोचते हैं की ईश्वर हर 
अन्यायी को सजा अवश्य देगा/ एक विदेशी आक्रान्ता ने मुट्ठी भर सेना के बल पर सोमनाथ मंदिर को लूट 
लिया और हजारों भक्त देखते रहे की भगवान शिव अभी अपनी तांडव मुद्रा में प्रकट होंगें और आक्रान्ता 
सेना का विनाश हो जाएगा/ वह नहीं हुया लेकिन न देवता और न ही उस मंदिर के प्रति लोगों की आस्था कम 
हुयी/
           2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा जेल चले गए, लोग इतने भर से खुश हैं की उसे कर्मों की सजा मिली 
है/ वे नहीं जानते की यह इतना बड़ा घोटाला था, इतनी बड़ी धनराशि की हेराफेरी थी की राजा उस धन से शायद 
एक टापू खरीदकर वास्तव में राजा बन सकता था/ यहाँ आदमी  बीमार होता है और दुर्भाग्यवश बीमारी कुछ लम्बी खिचती है तो लोग औलिया, पीर, औघड़, गंडडा- ताबीज, और मंदिरों 
की शरण में जाते हैं/ ईश्वर दंड देगा, ईश्वर सब कुछ ठीक कर देगा/ यह अंध आस्था इतनी है की सड़क के 
किनारे रात में किसी पेड़ पर लाल रंग की एक झंडी बाँध दो तो अगले दिन से लोग उस पेड़ की पूजा करने लगते 
हैं/ जीवित आदमी चाहें भीषण ठंढ में फुटपाथ पर ठिठुरकर दम तोड़ दे, उसकी मदद के लिए कोई बिरला हांथ 
ही आगे आयेगा, लेकिन मंदिर-मस्जिद की तामीर के नाम पर लाखों दान करने में भी संकोच नहीं/
             लोग कहते हैं भारत आस्थाओं का देश है, लेकिन जहां तक मैं समझ सका हूँ, यह भीरु जन से घिरा 
हुआ देश है जहां कुछ करने की बजाय कुछ पाने की अपेक्षा अधिक रहती है/ हम अपने दायित्व का निर्वहन कर 
रहे हैं या नहीं इसे देखना नहीं चाहते, किन्तु हम दूसरों की और उंगली उठाने, उन्हें उनका दायित्वबोध कराने 
से नहीं चूकत आयर इतना ही नहीं यदि कोई कुछ करता है तो उसमे दोष निकाकानें उसकी आलोचना करने 
का अवसर भी हम अपने हाँथ से जाने जाने नहीं देना चाहते/यह आलोचना आज अन्ना हजारे की मुहीम की भी 
हो रही है, बाबा रामदेव की भी हो रही है और शान्तिभूषण की भी/ लोग जिन उम्मीदों के साथ इस आन्दोलन के 
पक्ष में खड़े हुए थे वे अनंत हैं तो वे सभी हल भी नहीं हो सकतीं, जब तक की लोग खुद कुछ करना नहीं चाहेंगें/ जब चुनाव होता है तो देश का आम आदमी उसमें मतदान को अपना कर्त्तव्य मानकर योगदान नहीं करता/ सही और गलत प्रत्याशी का खुद फर्क नहीं करता/ यदि योग्य और ईमानदार प्रत्याशी का चयन हो, संसद और 
विधानसभाओं में अच्छे लोगों की संख्या बढ़ जाये तो देश की और आम जमता से जुडी 50 फीशदी से अधिक 
समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाएगा/ यह लोग समझते भी हैं जानते वही हैं लेकिन मानते नहीं/
              भारत लोकतांत्रिक देश है, अर्थात जनता द्वारा शासित लेकिन जनता यह समक्ष नहीं या रही की वह 
स्वयं शासक है/ वह अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए खुद तैयार नहीं हैं और अपनी ही गलतियों का दोष 
दूसरों के सर मढ़ रही है/ जो मतदान में भागीदारी नहीं निभातें, उनकी संख्या भी आधी है तो कहीं-कहीं आधी 
से अधिक भी, और सच्चाई यही है की वे ही व्यवस्था के दोषों के सबसे बड़े आलोचक भी हैं/ स्पस्ट है की वे 
वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं, लेकिन यदि वे अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं करते तो क्या उन्हें दूसरों से 
ईमानदारीपूर्वक कर्त्तव्य निर्वहन की अपेक्षा करनी चाहिए/
             किसी बाबा के पास, किसी समाजसेवी के पास जादू की छडी नहीं है की वह मंत्र फूंकेगा और सब कुछ 
सही हो जाएगा/ व्यवस्था बदलनें के लिए सुधार की शुरूवात खुद से करनी होगी, निजी स्वार्थों को तिलांजलि 
देनी होगी, अन्याय के प्रतिकार में खड़े लोगों को समर्थन देना होगा, छोटे से छोटे भ्रष्टाचार का विरोध करना 
होगा और यह विरोध संगठित रूप से करने के लिए दूसरे ऐसे लोंगों की लड़ाई में भागीदारी निभानी होगी और 
सबसे बड़ा काम यह है की आगामी हर चुनाव में इमानदार और कवक इमानदार प्रत्याशी के पक्ष में मात्रां का 
संकल्प लेना होगा तभी बचाया जा सकेगा राष्ट्र का स्वाभिमान/
                                                                       
                                                                                                                                  एस. एन. शुक्ल   
   

कैसे साकार होगा ग्राम स्वराज

भारत गावों का देश है, जहां मेहनतकश लोग रहते हैं, किसान रहते हैं/ वे किसान जिन्हें अन्नदाता कहा जाता है/ कभी महात्मा गांधी, विनोदा भावे, बालगंगाधर तिलक ने ग्राम स्वराज परिकल्पना की थी लेकिन देश की 
स्वाधीनता के चन्द दिनों बाद ही गांधी की असामयिक मृत्यु क्या हुयी, उनके ग्राम स्वराज की भी ह्त्या कर दी 
गयी/ कहने के लिए अभी भी ग्राम पंचायतें हैं, उनके लिए प्रतिनिधियों का निर्वाचन भी होता है/ सर्वशिक्षा 
अभियान, आंगनबाड़ी केंद्र, मध्यान्ह भोजन योजना, स्वास्थ्य केंद्र, मनरेगा और स्वच्छ सौचालय तथा इंदिरा
गांधी आवास योजना, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आवास की योजनायें भी हैं, लेकिन फिर भी अधिकांश 
बच्चे प्राथमिक शिक्षा से भी अभी वंचित हैं, कुपोषण बरकरार है/ 50 फीसदी से अधिक प्रसव घरों के ही 
अस्वस्थ वातावरण में ही होते हैं/ रोजगार के लिए लिए शहरों की ओर पलायन करने का सिलसिला थम नहीं रहा
है और जिन्हें वास्तव में आवास की जरुरत है उनके सिर पर आज भी क्षत नहीं है/ वहीं अब भी गांव की अभिकांश 
आबादी खुले में सौच जाती है/गरीबी अभी भी सबसे अधिक गाँवों में ही है/ सवाल यह है की योजनायें कारगर क्यों 
नहीं हो रहीं हैं और समस्याएं ज्यों की त्यों क्यों बरकरार हैं, इसके बारे में सरकारों ने कभी गंभीर चिंतन क्यों नहीं 
किया और जिनकी समस्याएं हैं उनसे ही उन समस्यायों के निराकरण के सुझाव क्यों नहीं मांगे जाते ?
             देश की 70 फीसदी जनसंख्या अभी भी गाँवों में निवास करती है/ गाँव देश रूपी वटवृक्ष की जड़े हैं देश की 
श्रम शक्ति का सबसे बड़ा श्रोत अर्थात देश की रीढ़ भी है, लेकिन इन जड़ों तक व्यवस्था की गलियों से उपयुक्त 
पानी नहीं पहुँच रहा है, इसलिए जड़ें कमजोर होती जा रही हैं, रीढ़ झुकती जा रही है, फिर स्वस्थ और समृद्ध 
भारत की कल्पना कैसे साकार हो सकती है ? ग्राम पंचायतों के सुदृढीकरण और विकेंद्रीकरण की चर्चा तो हमेशा 
सुनायी पड़ती है लेकिन जहां और जैसी स्थिति में थीं मौजूदा दौर में उससे भी पिछड़ गयीं हैं/ वे आज केवल केंद्र 
तथा राज्य सरकारों की योजनाओं को संचालित करने की एजेंसी मात्र बनकर रह गयीं हैं/जरुरी है की पंचायतें 
जिम्मेदार बनें, गाँवों में सभी को योग्यता और क्षमता के अनुरूप रोजगार के अवसर शुलभ हों, लोग स्वावलंबी 
बनें, इससे जहाँ एक ओर लोगों में अपने बच्चों को शिक्षित करने के प्रति उत्साह बढेगा वहीँ गाँव से हो रहे पलायन 
पर प्रभावी विराम भी लगेगा और सबसे बड़ा लाभ समाज तथा सरकारको यह होगा कि अपराध नियंत्रण में होने 
वाला नियंत्रण खर्च भी घटेगा तो उस बचे धन से विकास के कुछ नए कार्य, कुछ नयी योजनायें भी संचालित की 
जा सकेंगी उपाय क्या हों, और कैसे हों पेश है इस पर एक नज़र-

1- बहाल हो पंचायती न्याय व्यवस्था- 

               अदालतों पर मुकद्दमों का काफी बड़ा बोझ है, इस सम्बन्ध में चिंता राज्य सरकारों से लेकर केंद्र सरकार 
तक व्यक्त की जाती रही है, लेकिन समस्या के निदान के लिए चिंतन शायद ही कहीं पर किया गया हो/ गाँवों के 
जमीन, जायजात के झगडों अर्थात दीवानी मामलों का अदालतों पर सबसे बड़ा बोझ है और फिर कभी 
बदनीयती में और कभी अन्याय के खिलाफ आक्रोश में होने वाले संघर्ष के कारण उन्हीं मामलों से सम्बब्धित 
फौजदारी के नए प्रकरण तो नए मुकद्दमें भी/ पुलिस पर अपराध नियंत्रण और अपराधियों को न्यायालय के 
कटघरे तक लानें का दबाव तो न्यायालयों पर मुकद्दमों का बढ़ता बोझ / प्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की 
पञ्च परमेश्वर की कल्पना को थोड़ा समयानुकूल परिवर्तन के साथ पुनर्जीवित करना ही शायद इस समस्या का 
एक सफल समाधान हो सकता है/ इसके लिए बनने वाली न्यायिक समिति में विवाद के दोनों पक्षकार, दोनों 
पक्षों की मर्जी से दो पैरोकार, पंचायत के दो निर्वाचित सदस्य, गाँव के दो सम्मानित नागरिक और फिर ग्राम 
प्रधान अर्थात 9 सदस्यीय समिति के बीच गाँव के विवादों का निस्तारण हो/ यह समिति क्षेत्रीय लेखपाल और 
सम्बंधित थाणे से पुलिस के प्रतिनिधि को आवश्यकतानुसार साक्ष्य और निर्णय की जानकारी के लिए बुलाएं 
और समिति के बुलावे पर इन कर्मचारियों की अनिवार्य उपस्थिति सुनिश्चित हो/ न्यायिक आवश्यकता के 
तहत निर्णयन समिति दोनों पक्षकारों से शुल्क लेकर एक अधिवक्ता की सेवाएँ भी ली जा सकती हैं/ पंचायत 
के निर्णय पर संतुष्ट न होने पर ही नागरिकों को न्यायालयों में अपीलीय अधिकार हो, किन्तु पंचायत का 
निर्णय अनिवार्य रूप से माना जाय/ शायद इस प्रक्रिया से विवादों का निस्तारण शीघ्र होगा तो न्यायापालिका 
के सर पर लदा मुकद्दमों का बोझ भी घटकर आधा हो जाएगा/

2- ग्रामीण रोजगार उन्नत हों-

                गाँवों में अकुशल श्रमिकों के केवल खेतों में काम के समय ही रोजगार की आवस्यकता है, लेकिन 
भूख और ज़रूरतें तो निरंतर हैं, इसलिए वे रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करतें है/ केंद्र सरकार 
की मह्त्वाकांक्षी योजना मनरेगा भी ऊंट के मुह में जीरा साबित हो रही है, क्योंकि यह योजना अकुशल श्रमिकों 
को एक साल में महज 100 दिन का रोजगार ही उपलब्ध कराती है, फिर वे वर्ष के शेष 265 दिन क्या करेंगें और 
क्या खाएंगे ? कोई मनरेगा मजदूर वर्ष में इस योजना से क्या अपने बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा, भोजन और 
कपडे की व्यवस्था कर सकता है ? 
            यदि नहीं तो फिर उनके लिए स्थायी रोजगार के सृजन की व्यवस्था के उपाय आखिर क्यों नहीं किये 
जा रहे ? जहाँ तक मनरेगा का सवाल है तो इस योजना में कार्ययोजना की स्वीकृति, योजनागत व्यय पर 
स्वीकृति, काम के आबंटन, श्रमिकों को भुगतान और मास्टर रोल बनाने का हर स्तर पर हेराफेरी होती दिख 
रही है/ प्रधान कई बार न चाहते हुए भी मजबूर नज़र आता है/ यदि इसी योजना को थोड़ा परिवर्तन के साथ 
अथवा इसी योजना के साथ स्वरोजगार स्थापन की विविध योजनायों को भी मूर्तरूप दिया जाए तो शायद 
बेरोजगारी पर विराम भी लग सकेगा और पलायन को भी रोंका जा सकेगा/ ग्रामीण कुटीर और लघु उद्द्योगों 
को समूहगत रूप से संचालित किया जाए/ स्वरोजगार के इक्षुक नागरिक समूह बनाएं, स्वरोजगार की प्रकृति 
के अनुरूप अंशदान जमा करें, बैंक बिना रिश्वत लिए अंशदान का पांच गुना तक कर्ज दें/ काम बैंक और गाँव 
की स्वरोजगार समिति की निगरानी में हो और समय से कर्ज अदा करने वाले तथा सफल स्वरोजगार समूहों 
को एक निश्चित प्रतिशत अनुदान और छूट का प्रावधान हो तो स्वावलंबन तथा निर्भरता कोई समस्या नहीं रह 
जायेगी/ ऐसे ग्रामाधारित और कृषि आधारित उद्दमों में मछली पालन, कुक्कुट पालन, मुर्गी पालन, आचार- मुरब्बा निर्माण, सिरका उत्पादन, भेड पालन, मसरूम उत्पादन, रेशम कीट, शहद उत्पादन, फल, सब्जी, फूल,
तथा खाद्द्यान्न प्रसंस्करण जैसे उद्द्योग संचालित किये जा सकते हैं/

3- बुजुर्गों को संरक्षण-


               ग्रामीण बुजुर्ग आज सबसे अधिक उपेक्षित हैं क्योंकि वे किसी सरकारी सेवायों से सेवानिवृत्ति नहीं 
है जो उन्हें पेंशन मिल रही हो और ज़रूरतें पूरी हो रहीं हों/ उनके युवा और कमाऊ पूत अपने खुद के ही बच्चों 
की जरूरतों को ही पूरा नहीं कर पा रहे हैं/, फिर वो बुजुर्ग माँ बाप की उचित देखभाल कैसे करें ? मैं यह नहीं 
कहता की सरकार को बुजुर्गों की चिंता नहीं है, वह पहले से ही विधवा और ब्रद्धावस्था पेंशन योजनायें चला रही 
है, लेकिन साथ ही उन बुजुर्गों के लिए रोजगार के अवसर भी सृजित किये जाने चाहिए जो बहुत अशक्त नहीं हैं 
और घर बैठकर काम कर सकतें हैं/ ग्रामीण स्तर पर टाफी, बिस्किट निर्माण, टोकरी, दलिया, ढलिया, रस्सी, 
बान बनानें जैसी कितनीं ही योजनायें बुजुर्गों को काम, स्वरोजगार और आमदनी का ज़रिया बन सकती है/ फिर वे अपने युवा बच्चों को बोझ भी नहीं लगेंगे वरण आवस्यकता पड़ने उन्हें आर्थिक मदद भी कर सकेंगें/ तब
परिवारों में बुजुर्गों की उपेक्षा भी नहीं नहीं होगी और बुजुर्गों की पेंशन पर सरकार द्वारा किया जाने वाला खर्च भी घटेगा/

4- किसानों की व्यथा का निराकरण हो-

               जनसंख्या बढ़ी, खेतों के बटवारे तो जोत की सीमाएं भी घटी हैं/ आज गाँव के जिन किसानों के 
पास सो से पांच बीघे जमींन है वे न तो किसान रह गए हैं और न ही मजदूर/ खाद, बीज, सिंचाई, रसायन तथा 
श्रम के बाद उत्पादन और लागत लगभग सामान हो जाती है/ छोटे किसान डीऐपी खाद, डीजल की बढ़ती 
कीमतों से परेशान है/ वे किसान सूदखोर से पैसा लेकर फसल की ज़रूरतें पूरी करतें हैं तो फसल काटते ही 
उसकी मढ़ाई भी करनी पड़ती है और सारी मेंहनत करने के बाद किसान खाली हाँथ नज़र आता है/
              कृषि की उन्नत वैज्ञानिक विधियाँ विकसित तो हुयी हैं,लेकिन वे छोटी जोतों के लिए कारगर नहीं साबित हो 
रहीं हैं/ खाद, बीज और सिचाईं के लिए डीजल तक प्राप्त करनें में किसानों कड़ी धूप में दिन-दिन भर कतारों में 
खडा होना पड़ता है, तो कभी पुलिस की लाठियों का सामना तक करना पड़ता है/ आखिर क्या है उनकी 
समस्याओं का निदान ? गाँवों में किसान मित्र भी हैं, लेकिन वे क्या करतें हैं, यह न तो गाँव के लोग ही 
जानते हैं की उनकी भूमिका क्या है ? क्या यह संभव नहीं की ग्रामसभा की खुली बैठक में किसानों के लिए 
उनकी जोत के आधार पर उनके लिए रासायनिक खादों, उन्नत बीज और हवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित 
की जाए/ इससे किसानों का समय भी बचेगा और उन्हें पुलिस की लाठियों से अपमानित भी नहीं होना पडेगा/

5- जल संचयन और जलाशयों का संरक्षण-

                भूगर्भ स्थित जल का स्तर लगातार नीचे की और जा रहा है और इसके लिए भूगर्भ जल के लगातार 
दोहन को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है / प्रश्न यह है की खेतों की सिंचाई तो पहले भी होती थी, भूगर्भ स्थित 
जल का दोहन भी होता था, फिर तब क्यों नहीं गिरता था जल स्तर ? स्पस्ट है की तब भूगर्भ जल के दोहन के 
पास ही वाटर रिचार्ज भी होता था, लेकिन अब स्वच्छता के नाम पर कपडे, बर्तन धोने का पानी भूगर्भ में पुनः 
समाने के बजाय नालियों से बहकर सूर्य के ताप का शिकार हो जाता है/ बुंदेलखंड इसका जीता-जागता 
उदाहरण है, जहाँ के पानीदार लोगों को पीनें के पानी के लाले हैं/ जलाशयों की उपेक्षा भारी पड़ने लगी है, उनके 
संरक्षण के आदेश महज कागजी खानापूरी बनकर रह गये हैं/ जिन पोखर और तालाबों को पाटकर बड़ी-बड़ी 
रिहायशी कालोनियां विकसित कर दीं गयीं, जिन्हें गिराकर पुनः तालाब और पोखर की स्थिति में लाना क्या 
सरल है ? कालोनियों और भवनों को ढहाकर पुनः पुराने जलाशयों को भले ही पुनर्जीवित न किया जा सके 
लेकिन जो जलाशय, पोखर और तालाब अस्तिव के संकट से झूझ रहें हैं उन्हें तो संरक्षित किया ही जा सकता 
है/ ये पोखर, तालाब, झीलें और जलाशय पानी से भरे रहने के कारण अपने चारों ओर की बृहद दूरी तक की 
ज़मीन को अन्दर ही अन्दर नमीं पहुचाते रहते थे, जिसके कारण बाग़ और बन बिना सिंचाई के भी हरे रहते थे/
पशुओं को चारा, जलौनी और इमारती लकड़ी आसानी से शुलभ होती थी तो जंगली जीव-जन्तुयों को भी उनमें 
आश्रय और संरक्षण मिलता था/ आज वे वन-बाग़ भी समाप्ति की ओर अग्रसर हैं तो जंगली जानवर भोजन 
और रिहायश के संकट के चलते बस्तियों की ओर रूख करने लगे हैं/
              वर्षा के जल को भूगर्भ कें उतारनें की व्यवस्था ही भूगर्भ जल के गिरते स्तर को रोक सकती है/ फिर 
शायद भूगर्भ स्थिति जल के दोहन को भी उतनी आवश्यकता नहीं रह जायेगी जितनी की वर्तमान में है/ वर्षा 
जल संचयन और संरक्षण के प्राचीन तथा परम्परागत तरीकों को बहाल किये बगैर बात बनने वाली नहीं, हां 
कुछ नए तरीके भी अपनाए जा सकते हैं/ उन्हें विस्तार से स्थानाभाव के कारण यहाँ प्रस्तुत किया जाना 
संभव नहीं है लेकिन ये ऐसे तरीके हैं जिन्हें आम भारतीय किसान बखूबी जानते हैं/

6- बैंकों में कर्जधारकों का शोषण न हो-

                उत्तर प्रदेश के संभावनाओं से भरे युवा मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव दे शाहूकारों पर लगाम 
लगाने की जो मुहिम चलाई है, वह सराहनीय है, लेकिन शायद उन्हें नहीं पता की छोटे और ग्रामीण कर्जधारकों 
का शोषण बैंकों द्वारा साहूकारों से भी ज्यादा किया जाता है/ प्रायः बैंक छोटे कर्ज देने में आनाकानी करतीं हैं/ यदि कोई ग्रामीण स्वरोजगार स्थापन के लिए बैंक की सहायता चाहता है तो उसके सामनें शर्तों और कागजी 
झमेलों का इतना बड़ा पुलिंदा रख दिया जाता है की वह उन्हें पूरा करने में ही महीनों का समय गंवा देता है/ फिर कर्ज स्वीकृत भी होता है तो उसमें बैंक के विकास अधिकारी, बाबू और मैनेजर तक कमीशनखोरी से बाज नहीं 
आते/  बैंकों की मनमर्जी का आलम यह है की वो बिना घूस खाए किसी की फ़ाइल ही नहीं बढनें देते/
          इस तरह से अभी भी ग्रामीण भारत का स्वराज्य आना शेष है/ देश एक ओर 65 वें स्वाधीनता दिवस 
समारोह की तैयारी कर रहा है दूसरी ओर आज भी आम आदमी आम की तरह चूसा जा रहा है/ हम सब इस 
उम्मीद में की एक दिन अपना राज्य यानी स्वराज्य आयेगा और हम अपनेपन के शासन का अनुभव कर सकेंगें/
शेष फिर कभी ज्यादा इंतजार करना नहीं पडेगा.......जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसियेशन 
लेकर आ रहा है आज़ादी के 65 बरस और वहीं सठियाई संसद के ऊपर एक समग्र विश्लेषण ....... "दस्तावेज"
                                          
                                                                                                                      लालता प्रसाद 'आचार्य'    

Friday 25 May 2012

मज़दूर की व्यथा

मज़दूर की व्यथा

मैं मज़दूर , मुझे देवों की बस्ती से क्या /
मैनें अगणित बार धरा पर स्वर्ग बसाए /
   इस पंक्ति के साथ मैं कुछ कहना चाहता हूँ, अपने उन लोगों के बारे में जिन्हें दुनिया के बड़े लोग 
मज़दूर, मज़लूम, मज़बूर और कमजोर न जाने क्या-क्या कहकर पुकारते हैं / वे आर्थिक दृष्टि से 
कमजोर हैं और वह भी तब, जबकि वे सबसे अधिक मेहनत करते हैं / सवाल यह है कि उनकी दशा में सुधार कैसे हो ? इनकी दयनीय दशा को लेकर देश में बड़े-बड़े सेमीनार आयोजित 
होते हैं , विचार और भाषण, लेकिन देश की आज़ादी के 65 वर्षों बाद भी वे जहां थे, अब भी वहीं हैं /
उनकी दशा, उनकी आर्थिक और सामजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं /  सुधार के बजाय  उनकी 
हालत और भी दयनीय होती गयी /  मज़दूरों की लड़ाई लड़ते-लड़ते जाने कितने नेता जमीन से 
उठाकर आशामान पर पहुँच गए, देश की राजनीति के शिखर पर पहुँच गए, लेकिन मज़दूर वहीं के 
वहीं हैं, जबकि सभी जानते हैं कि बिना मज़दूरों के कोई भी काम संभव नहीं है / जैसे बिना नीव के
 इमारत नहीं खादी की जा सकती उसी तरह बिना मजदूरों के दुनिया का कोई भी काम नहीं किया 
जा सकता /जिस देश का मजदूर और किसान भूख से मर रहा है वह देश कभी तरक्की नहीं कर
 सकता /देश और प्रदेश  कि सरकार चलाने वाले चंद गलत रिपोर्ट पेश करके जो भी स्थिति को 
दिखावें परन्तु अपने देश में मजदूरों की स्थिति काफी ख़राब है /और ये जो पौष्टिक भोजन की 
बात कर रहें हैं उन्हें क्या पता कि श्रमिक वर्ग को पौष्टिक भोजन तो छोड़ दो पूरे परिवार को रोज 
खाना ही नसीब नहीं हो जाये यही बड़ी बात है/कुछ मजदूरों के परिवार को एक ही समय का अन्न 
नसीब होता है/मेरा तो मनना है कि जब तक मजदूरों के बारे में सरकार सही निर्णय लेकर नीति 
नहीं बनाएगी, तब तक इनकी स्थिति में सुधार होने वाला नहीं और इसमें इमानदारी से कम करने 
की जरूरत है/ एस शेर के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ/
अल्लाह में ग़ुरबत कहीं गुमराह न कर दे /
राजी पे रजा हूँ अभी हर बात बनी है /
                                                                   धनञ्जय शर्मा 

Thursday 24 May 2012

चौथे स्तम्भ की लोकतान्त्रिक सत्ता पर गहराते संकट

चौथे स्तम्भ की लोकतान्त्रिक सत्ता मौजूदा दौर में सवालों के घेरे में है/ स्वयं पत्र व्यवसाय ही व्यावसायिकता 
के काकस में घिरा हुआ है/ जहाँ एक तरफ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का व्यावसायिक स्वार्थ चौथे स्तम्भ के  बुनियादी ढाँचे के लिए एक तरह का खतरा है तो वहीं भारत की विभिन्न राजनैतिक पार्टियों का गणित एक दुसरे
प्रकार का खतरा है/ एस व्यावसायिक स्वार्थबद्दधता के कारण आज पूरे भारत की पत्रकारिता दो समूहों में बंट
गयी है/ इसमे से एक पत्रकार समूह जनता के प्रति समर्पन का भाव रखता है और चौथे स्तम्भ के मूल रूप को
बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है तो दूसरी स्थिती का पत्रकार समूह सत्ताधीशों तथा प्रशासनिक अभिकारियों के
हितों के लिए प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से कार्यरत है/ यह स्थिती पत्रकारिता के लिए समग्र चिंतनीय होने क्र साथ-साथ चौथे स्तंभ की स्वतंत्र सत्ता के ऊपर गहराते खतरे के रूप में देखा जा सकता है/
               कहना गकत न होगा कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता के ऊपर संकट के बादल होने की शुरुआत
आपातकाल के समय से हुयी थी/ बावजूद इसके उत्तर भारत के क्षेत्रीय पत्रकारों में सन 1970 तक जनता में
समर्पण का भाव नजर आता था/ यह जन समर्पण का भाव आज भी स्थानीय स्तर के पत्रकारों में मौजूद है/ आंचलिक पत्रकारिता आज भी उर्जावान है/ यद्यपि  उसके विषय बहुत अधिक रोचक और स्थाई नहीं हैं पर फिर भी गाँव, देहात, खेत, खलिहानों से जुड़े बुनियादी सवाल, आंचलिक भाषा के तेवर और भारत की
प्रसिद्ध लोकोक्तियों से भरपूर ग्रामीण भाषा की गर्मी एस आंचलिक पत्रकारिता से नए रंग देती रही है/ मिटते-मिटते भी आज की पत्रकारिता का यह जिवित धरातल है जो  के अक्षर बीनती उँगलियाँ और हाँथ से चलते
छापाखानों की काली स्याही की छाप से शुरू हुआ यह सफ़र कम्पूटर पर कम करती उँगलियों से होता हुआ आफसेट
की आधुनिक मशीनों तक पहुँच गया है लेकिन पुरानी कार्यशैली आज तक प्राणवंत है और मानवीय है/
             वहीं आज ज़माना आधुनिकता का है/ आधुनिक तकनीकी, भाषा को निरंतर क्लिष्ट होने के साथ-साथ
निष्प्राण भी है और बहुधा निरर्थक निष्प्रयोज्य भी है ज्यादा तर पत्रकार पब्बे काले करते हैं/ और इधर उधर से
कंचे की गोलियों की तरह सरकते निष्ठाहीन राजनीतिज्ञों के हालिया बयानों को ही जनता से जुडी पत्रकारिता कहकर
लिखते रहते हैं/ हम जानते हैं की इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है/
             संजय गांधी और इंदिरा गांधी के मर्यादाहीन शासनकाल में भारत की पत्रकारिता घुटनों तले बैठकर
अभ्यर्थना में मश्गुल थी/ केवल उत्तर भारत तथा मध्यप्रदेश के कुछ प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्रों सने एस
आपातकाल स्तुतिगान से खुद को बचाकर रखा था पर महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, हिमांचल प्रदेश और
राजस्थान में शायद ही कोई समाचार पत्र रहा हो जिसके सम्पादक मंडल अथवा किसी विशेष संवाददाता को सरकारी
यंत्रणा का शिकार न होना पडा हो/ इसके विपरीत अपने सीमित शाधनों की व्यस्थ व्यवस्था में से ही उत्तर
भारत के अधिकांश समाचार पत्रों ने अपनी गुणवत्ता तथा जन सापेक्ष द्रष्टि को बनाए रखा जिससे कि जनता को
कहीं से कोई खतरा नहीं पहुंचा/ आपातकाल के भयभीत अन्धेरों में भी अगर दिल्ली में जनसत्ता, दैनिक
हिंदुस्तान, और नव भारत टाएम्स निरंतर निष्पक्ष पत्रकारिता के समाचार पत्र बने रहे/ तब इलेक्ट्रानिक
मीडिया नहीं था रस वक्त दूरदर्शन भी इतना प्रसारित नहीं था बावजूद इसके आकाशवाणी और दूरदर्शन
सरकारी प्रचार के रूप में कार्य कर रहा था/ ऐसे समय में इंदिरा गांधी, संजय गांधी और युवा कांग्रेश कम्पनी
के अत्याचारों की राई रत्ती समीक्षा केवल एस हिन्दी भाषी समाचार पत्रों के माध्यम से ही माता पुत्र
प्रशासन की पोल-पट्टी खोलती है और भारत की बहुसंख्यक ग्रामीण और शहरी जनता तक सच्चाइयां बहुत
साफ तरीके से पहुचती थीं/ भारत का लोकतंत्र एन कलम के सिपाहियों का सदैव कर्जदार रहेगा/ जिनके साहस
तथा निष्पक्षता के कारण ही आपातकाल के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को जनता का अभूतपूर्व
समर्थन मिला और जयप्रकाश नारायण आन्दोलन इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गया और
सन 1977 में जनता पार्टी कांग्रेस के विकल्प के रूप में सामने आयी/
                जनता पार्टी सरकार के पतन के साथ ही भारत में पत्रकारों तथा पत्रकारिता पर भी खतरे बढनें लगे/
जनता के प्रति समर्पण का भाव कम होता गया तथा सत्तापुरुशों को महिमा मंडित करके सुविधाएं प्राप्त करने
के लिए इक्षुक पत्रकारों की एक बाढ सी आ गयी/ आज के युग समाचार पत्रों के अधिकांश प्रकाशन सरकार का
मुंह देखकर ही हो रहें हैं/ सुचनायों का संग्रहण कम होता जा रहा है तथा सरकारी प्रचार-प्रसार माध्यमों पर
निर्भरता बढ़ती जा रही है/ इस खतरे से हम कैसे निबतेंगे ये सोचना भी बंद ओ गया है/
               जन समस्यायों के शसक्त पैरोकार के रूप में कल तक बोलने वाले पत्रकार अब चुप हों गए हैं/ धीरे-धीरे जन सामान्य भी एस सर्वव्यापी अन्याय और भ्रष्टाचार का आदी हो गया है/ जनता के बीच में अन्याय के
प्रति एक प्रकार की सहनीयता आ गयी है/ या फिर से वह समाचार पत्रों के मंच को समस्यायों के निदान के लिए
पूर्णतया अनुपयुक्त मान रहें हैं/
                जब भारत का जन सामान्य स्वयं ही सभी समस्यायों का निराकरण कर रहा हो तब समाचार पत्रों
की भूमिका केवल सुचनायों के प्रसारण तक ही सीमित रह जाती है/ कभी समाचार पत्रों का एक साहित्यिक
प्रचार भी होता था पर आज दैनिक पत्रों के माद्यम से बहुत ही सतही किस्म का साहित्य मूलक लेखन सामग्री
भारतीय जन सामान्य तथा पाठक वर्ग तक पहुच रही है/ इसके लिए जरुरत है किसी प्रतिबद्ध साहित्यिक
आन्दोलन की/ जिसमें पत्रकारिता के मूल स्वरुप को बचाया जा सके और चौथे स्तंभ की लोकतान्त्रिक सत्ता
को बहाल किया जा सके/
                                                  अजमेर अंसारी

निज भाषा उन्नत अहै .........

हम हिन्दुस्तान की संतानें हैं, मात्रभाषा हिन्दी है, लेकिन हिन्दी दिवस और हिन्दी पत्रकारिता दिवस जैसे अवसरों
पर भी क्या हम अपनी मां, अपनी मात्रभाषा को वह सम्मान से पाते हैं/ जिसकी एक सुयोग्य संतान से मां अपेक्षा
करती करती है/ एस सच्चाई से तो शायद ही कोई इंकार करेगा कि भारत में किसी अन्य भाषा की अपेक्षा हिन्दी
भाषा की ग्राह्यता, हिन्दी समाचार पत्रों और पत्रिकायों की प्रसार संख्या अघिक है लेकिन फिर भी विज्ञापनों के
मामलों में चाहें वे सरकारी हों, औध्योगिक अथवा व्यवसायिक हों या व्यक्तिगत उनका कोटा और उनकी दर
न्यून है यह सब तब है जबकि भारत की दो तिहाई जनसंख्या लगभग पुरी तरह हिन्दी पर आश्रित है/ देश का सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य उत्तर प्रदेश अपनी खडी बोली, अवधी, बुन्देलखंडी, पांचाली या
भोजपुरी में हिन्दी भाषा का ही प्रयोग केता है तो पड़ोसी राज्य बिहार की मैथिली और भोजपुरी जबाने भी हिन्दी
की ही हैं/ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों की भाषा हिन्दी है तो उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश
जैसे पहाडी राज्यों की स्थानीय भाषा भी हिन्दी है/ राजस्थान की भाषा में स्थानीयता का पुट भले ही हो लेकिन
वह भाषा भी हिन्दी ही है/ वहीं हरियाणा राज्य की स्थानीय हरियाणवी भी हिब्दी ही है राष्ट्रीय राजधानी नयी
दिल्ली की भाषा भी हिन्दी है/ वह महाराष्ट्र जहां के कुछ स्थानीय नेताओं ने अपने राजनैतिक स्वार्थों के वशीभूत
होकर हिन्दी भाषियों के विरुद्द अभियान चला रखा है वहाँ की मराठी भी हिन्दी की ही एक उप शाखा है/ गुजरात में
गुजराती भाषा को भी आप हिन्दी की ही शाखा मानने से इंकार नहीं कर सकते/ उर्दू तो हिन्दी में ही रच बस गयी है/ उर्दू के शब्दों का प्रयोग अब हिन्दी में सर्वाधिक होता है, इसलिए अब उर्दू भी भारत की अपनी भाषा है/
                 एस द्रष्टिकोण से हिन्दी भारत की सर्वाधिक सम्रद्द और स्वीकार्य भाषा है किन्तु दुर्भाग्य यह है कि यदि
देश का कोई जननायक हिन्दी की वकालत करता है तो शाजिश के तहत रसे रुढ़िवादी और पिछड़ी सोच का
ठहराए जाने के कुत्सित प्रयास किये जाने लगते हैं/ यद्द्यपि एस राजनैतिक प्रपंच में नहीं जाना चाहते, लेकिन
पिछले दिनों समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के दौरान अपने चुनावी घोषणा पत्र में युवाओं 
को लैपटॉप देने की घोषणा की थी तो कतिपय विपक्षी नेताओं ने व्यंग्य कसते हुए कहा था कि लगता है कि मुलायम 
सिंह ने अंगरेजी सीख ली है/ उल्लालेखानीय है कि मुलायम सिंह यादव हमेशा से ही हिन्दी के प्रबल पक्षधर रहे हैं और अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में उन्होंने हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाए जाने का पूरा प्रयास भी 
किया था/ सवाल यह है कि क्या हिन्दी का समर्थन करना और उसे प्रोत्साहित करने का प्रयास करना दकियानूसी 
है, अपराध है ?
                  अंग्रेजी वैश्विक संपर्क की भाषा है, तो क्या उसके लोभ में अपनी भाषा तिरस्कृत कर दी जानी चाहिए ? जब हम अपनी भाषा का तिरस्कार कैरने लगते हैं, तो उसके साथ ही अपनी संस्कृति 
ओर अपने संस्कार भी तिरोहित होने लगते हैं और यही एन दिनों हो भी रहा है/ हिन्दी को हेय द्रष्टि से देखने 
वाले भारतीय संस्कृति और संस्कारों से दूर होते जा रहे हैं/ कहा जाता है की यदि किसी देश को नष्ट करना है 
तो सबसे पहले उसकी सभ्यता और संस्कारों को नष्ट करो/ तो क्या हम पतन के मार्ग की ओर अग्रसर नहीं
है/ पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण देश की युवा पीढी को कई व्यसनों की ओर धकेल रहा है, तो कहीं उन्हें 
सामाजिक और पारिवारिक दायित्यों से विमुख भी कर रहा है/ वे इसे परिवर्तन का नाम से रहें हैं और तर्क देते 
हैं की परिवर्तन संस्कृति का साश्वत नियम है, परिवर्तन प्रकृति की साश्वत प्रक्रिया है, उस बात से कौन इंकार
इंकार कर सकता है/ हर वर्ष पतझड़ आता है, पेड़ों के पुराने पत्ते गिरते हैं और उनके स्थान पर नईं कोपलें खिलतीं हैं, फिर नए पत्ते आते हैं, लेकिन पीपल के पेड़ पर बरगद के पत्ते और नीम के पेड़ पर बाबुल की 
पत्तियां तो नहीं निकलती हैं/ यह कैसा परिवर्तन है जो कई पीढी को उसकी सभ्यता उसके संस्कारों और उसकी 
जड़ों से ही प्रथक कर रहा है/
               जड़ों से प्रथक होना स्वविनाश का सूचक है/ माना की युवा पीढ़ी खूब मेहनत कर रही है और सम्रद्धि 
की उंचाइयां छु रही है और इस आपाधापी में वह अपनों से  तथा अपनी भाषा, अपनी संस्कृति से दूर होती
जा रही है / कल को इस युवा पीढ़ी की अगली पीढ़ी भी तैयार होगी / यदि वह  की युवा पीढ़ी से भी चार कदम  आगे हुयी, तो क्या होगा ? यह हिन्दी ही है जहां अपनापन है, रिश्तों की मिठास है, सुख-दुःख में भादीगारी है, वात्सक्य है, स्नेह है, मान का आँचल है, ममता की छाव है, रिश्तें नाते भी संश्कार की ओर से बंधे हैं/ पाश्चात्य 
सभ्यता और भाषा में ऐसा कुछ भी नहीं है/ वहां रिश्ते भी सुविधा और जरुरत के तहत निभाये जाते हैं/ यदि अपनी भाषा और अपने संस्कार हमें अपनत्व, मानवता और एक दूसरे के सुख-दुःख से जोडतें हैं तो वे 
कथित आधुनिकता की द्रष्टि में पिछड़े ही सही लेकिन अति आवस्यक है और वे जो हिन्दी की वकालत करतें हैं,
उसके विस्तार और समृद्धि के लिए प्रयासरत हैं, वे सहज रूप से अपने हैं और उन्हें जन समर्थन मिलना ही 
चाहिए/ हिन्दी दो तिहाई भारत की माँ है क्योंकि संपूर्ण राष्ट्र की सो तिहाई जनसंख्या के बीच जन्म लेने वाला 
बच्चा जब बोलना प्रारंभ करता है तो वह शब्द हिन्दी का ही होता है/ भारत की अन्य भाषाएँ भी अपनी हैं/ वे 
जिन क्षेत्रों में बोली और संची जाती है, वहा के निवासियों की माएं हैं तो हिन्दी भाषियों की मासी हैं/ मासी का 
शाब्दिक अर्थ होता है माँ जैसी, इसलिए भारत की अन्य सभी भाषाएँ भी मातृत्व ही स्वीकार है, लेकिन 
अंगरेजी  भाषा होने के बावजूद भी माँ या माँ जैसी नहीं हो सकती/ उसे सीखना, समझना, जागना जरुरी है 
लेकिन मात्रभाषा की उपेक्षा करके नहीं/
                30 मई उदन्त मार्तंड अर्थात भारत में हिन्दी के प्रथम समाचार का जन्म दिवस है/ यह हिन्दी 
पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है/ एस अवसर पर हम संकल्प लें और हिन्दी के समृद्ध, समर्थ बनाने 
के प्रयास की ओर प्रथम पग बढ़ाने की पहल करें, यही सच्ची श्रद्धा और श्रद्धांजलि होगी तथा स्म्रतांजलि भी/ अपनी भाषा की उन्नति में ही अपने उत्कर्ष का विधान है, इसे महाकवि की महज एक पंक्ति ही परिभाषित 
कर देती है/ "निज भाषा उन्नत अहै, सब उन्नति कै मूल" तो अब आगे भूल मत करना/...........
सम्पादक 

Tuesday 22 May 2012

माफिया तंत्र की मजबूत गिरफ्त

 पैसा है तो माफिया की नज़रों से कैसे बचा रह सकता है / सरकार और प्रशासन में सबसे अधिक पैसा , सबसे अधिक योजनायें तो वहां सबसे अधिक माफियाओं की भी सक्रियता है / वे सरकार बनवाने , सरकार गिराने तक की ताकत रखते हैं , इसलिए अब सियासी दल ही उन्हें पाल रहे हैं / भ्रष्टाचार की मूल वजह भी यही है , फिर आसान तो नहीं है इनके चंगुल से देश को मुक्त कराना /
      माफिया का अर्थ असलहों और बाहुबलियों  से लैस दबंग होना ही नहीं है / भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में माफिया बनाने के लिए यह सारा तामझाम होना ज़रूरी भी नहीं है / यहाँ कमाई के बहुत सारे क्षेत्र हैं / बाहुबली अपनी ताकत के बल पर प्रभावी हैं , तो तिकड़मी अपनी तिकड़म के बल पर / वे राजनेताओं , प्रशासनिक अफसरों के लिए जुगाड़ और कमाई के रास्ते हैं , इसलिए पिछले महज तीन दशकों के अन्दर लगभग सारे देश में राजनेताओं , नौकरशाहों और माफियाओं का ऐसा गठजोड़ तैयार हो चुका है जो सारे देश को आक्टोपस की
 तरह चारों और से जकडे हुए है / वे देश के हर क्षेत्र को निचोड़ रहे हैं / जनता इनसे निजात पाने , इनके चंगुल से व्यवस्था को मुक्त कराने के लिए सरकारों पर सरकारें बदलती रही , लेकिन वे हर बार और बड़ी ताकत बनाते गए  / अब तो हालत यह हो चुकी है कि वे माननीय   जनप्रतिनिधि हैं , विधायक हैं , सांसद हैं , मंत्री हैं और  मुख्यमंत्री पदों  तक पर आसीन हो चुके हैं / सरकारें उनके हितों का पोषण करने वाले  निर्धारित करने के लिए मज़बूर हैं / इस काकश को तोड़ पाना असंभव तो नहीं लेकिन बहुत आसान भी नहीं है / महज सत्ता भर बदल देने से इनसे निजात भी नहीं पायी जा सकती /
     सवाल यह है की यदि व्यवस्था में सुधार और माफिया काकश से निजात आसान नहीं है तो क्या
 शुतुरमुर्ग की तरह तूफ़ान के भय से बालू में सर छिपाकर आँखें बंद कर लेनी चाहिए ? मैंने असंभव नहीं कहा है , मैंने कहा है कि ऐसा कर पाना आसान नहीं है , कारण यह कि देश के व्यवस्था तंत्र की इच्छाशक्ति  समाप्त हो गयी है / अभी बीते वर्ष ही ख्यात फिल्म अभिनेता अनुपम खेर के खिलाफ मामला दर्ज हो गया ,  क्योंकि उनहोंने कहा था कि " भारत का संविधान पुराना हो चुका , उसे फेक देना चाहिए / "
      यही बात यदि खेर ने थोड़ा शब्दों के हेर - फेर के साथ कही  होती , तो शायद यह नौबत नहीं आती / जो लोग  सविंधान बदलने की मांग करते आ रहे हैं , उनका आशय क्या अनुपम खेर की बातों से इतर है ? यदि उन पर संवैधानिक अवमानना का मामला नहीं बन सकता तो अनुपम खेर पर क्यों ? लेकिन यह बात शायद देश भर में कोई नहीं कहना चाहेगा / यहाँ तर्क की गुंजाइश नहीं है , तर्क के लिए अदालतें हैं / सरकार और प्रशासन में भावनाएं और संवेदनाएं नहीं हैं / वे शब्दों को तोलते हैं , शब्दों के हेर - फेर से अपने और अपनों के हित साधते हैं /  यदि वे भावनाओं को समझ पाते , उनकी क़द्र कर पाते तो शायद अब तक 121 करोड़ की आबादी वाला भारत देश , दुनिया के  देशों का सिरमौर बन चुका होता / 
       अन्ना हजारे के अनशन की चर्चा भी ज़रूरी है क्योंकि उनहोंने भ्रष्टाचार के खिलाफ " जन  लोकपाल " बिल की मांग को लेकर -जंतर  मंतर पर अनशन शुरू किया तो देश भर में उनके समर्थन में लाखों लोग इसे  याज्ञिक कर्म मानकर अपने हाथ से भी हव्य समर्पित करने को उतावले दिखे / ऐसे लोगों कांग्रेस विरोधियों की बहुतायत थी , जिनमें बहुत सारे ऐसे लोग भी शामिल थे जिनके अपने दामन पर भी दाग थे ,
 माफिया तंत्र का ही एक वर्ग इस जनांदोलन की भी अगुवाई करने को उतावला दिखा / वह बाबा रामदेव हों , अरविंद केजरीवाल हों या अन्ना हजारे , उनके पास ऐसा कौन सा मापक है जिसके द्वारा वे अच्छे - बुरे , ईमानदार - भ्रष्ट , सभ्य - माफिया का वर्गीकरण कर गलत लोगों को आगे आने से रोक पायेंगे ? 
      सात अप्रैल 2011 को ऐसे ही , अन्ना समर्थक सैकड़ों लोगों का समूह जुलूश की शक्ल में नारेबाजी करते हुए  रहा रहा था / नारा लग रहा था " अन्ना तुम संघर्ष  करो - हम  तुम्हारे साथ हैं " किन्तु समवेत स्वरों की अस्पष्ट ध्वनि आ रही थी " अन्ना तुम संघर्ष  करो - चोर   तुम्हारे साथ हैं " यदि कुछ चोरों के हाथ से सत्ता छीनकर दूसरे चोरों को सौंप दी जाय तो क्या व्यवस्था बदल जायेगी ? मैं इसीलिये कह रहा हूँ कि व्यवस्था का बदला जाना जरूरी है /
       कभी शिक्षा का पेशा सबसे आदर्श माना जाता था लेकिन आज इस क्षेत्र में शिक्षा माफिया का डंका बज रहा है / सबको स्वास्थय सेवायें उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है , वहां सबसे अधिक भ्रष्टाचार है / बीते पांच वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में तीन - तीन सी एम् ओ की हत्याएं , यह समझना कठिन नहीं है कि ये हत्याएं क्यों हुईं / फर्जी नियुक्तियां, दवा माफियाओं का दबाव , आपूर्ति में हेरा- फेरी और फर्जी भुगतान की खुलतीं परतें ही इन हत्याओं का कारण थे / अभी तक किसी गुनाहगार को उसके अंजाम तक न पहुंचाया जा पाना क्या माफियाओं की ऊंची
पहुँच के कारण ही नहीं है ? वही गुनाहगार, वही जांच अधिकारी और अदालतें भी वही , आप क्या उम्मीद कर सकते हैं ? 
     सरकारी  निर्माण कार्यों में तो और भी जंगल राज है , सबसे अधिक माफियावाद और घटिया निर्माण या फर्जी निर्माणों की कहानियां वहीं हैं / महगाई को ही ले लें , सबको पता है कि जब राहुल गांधी ने महगाई का ठीकरा कृषि मंत्री शरद पवार के सर फोड़ा था तो
 किस तरह डैमेज कंट्रोल किया गया और किस तरह देश पर महगाई का कहर धाकर सरकार बचाई गयी / फर्जी राजा, ए. राजा की कहानी तो सबको पता है जिसके अंजाम दिए गए स्पेक्ट्रम घोटाले से देश को
 एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ की चपत लगी / एक ताकतवर काकश जिसमें उद्द्यामी , दलाल और कथित पत्रकार भी शामिल थे / राजनैतिक माफिया , उद्दयम जगत के माफिया , अखबारी माफिया , जनसंपर्क संस्थाओं के  पर दलाली के अड्डे चलाने वाले माफिया और अधिकारों , राजनेताओं को रूपजाल में फांसने के लिए देहाजीवाओं का काकश , फिर कैसे  निजात ?
        अफसरों , और माफियाओं का गठजोड़ प्रायः हर क्षेत्र में प्रभावी है और जो ईमानदार हैं वे
मारे जा रहे हैं / नॅशनल हाइवे अथारिटी आफ इंडिया के इंजीनियर सत्येन्द्र नाथ दुबे ( बिहार ) , इंडियन आयल कारपोरेशन के ईमानदार युवा अधिकारी मंजुनाथ खाद्मुगम ( उत्तर प्रदेश ) और
एस दी एम् यशवंत सोनवाने ( महाराष्ट्र ) की हत्याएं इस बात का जीता - जगता सबूत हैं /
       न्यायपालिका में भी शायद ही कुछ कुर्सियां ईमानदारी के साथ न्याय कर पाती हों ,  क्योंकि उनके
भी परिवार हैं , उन्हें भी अपनों की सुरक्षा की चिंता है / शायद इसीलिये आज तक किसी बड़े अपराधी
नेता , नौकरशाह को जघन्य आपराधिक आरोपों के बावजूद सजा नहीं दी जा सकी / लोकतंत्र के चारों
स्तम्भ विधायिका , कार्यपालिका , न्यायपालिका और स्वतंत्र मीडिया तंत्र सब जगह माफिया
 सक्रिय सक्रीय हैं / सब मिलकर खेल रहे हैं / अधिकारी ईमानदार नहीं रह सकते / ऊंची पढाई , कठिन
प्रतियोगी परीक्षाएं पार कर हासिल की गयी सरकारी नौकरी हर कोई ईमानदारी के नाम पर कुर्बान नहीं
कर सकता और हर कोई टी . एन . शेषण , किरण बेदी , शैलेन्द्र सिंह नहीं बन सकता ,
 इसलिए हाल- फिलहाल   माफियावाद का सफाया होता भी नहीं दिख रहा है / सच यह है कि जब तक इस माफियावाद पर विराम नहीं लगता , तब तक तो व्यवस्था में भ्रष्टाचार कायम ही रहेगा /

Monday 21 May 2012

मतदाता , मालिक या माली ?

" लोकतंत्र में शासन सत्ता के तुम ही निर्माता हो , अपने भाग्य विधाता हो " यह गीत
 रेडियो समाचार प्रसारित होने से पूर्व उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावके प्रथम मतदान 
के दिन प्रसारित हो रहा था  , तो अचानक यह विचार आया कि क्या भारत का मतदाता 
वास्तव में भारत के लोकतंत्र की शासन सत्ता का निर्माता है ? मन में इस प्रश्न के कौंधते
ही कई अन्य सवाल भी मेरे सामने इस शासन सत्ता के निर्माता को लगभग धकियाते ,
 धमकाते हुए आ खड़े हुए , मानो कह रहे हों , उसकी ( मतदाता की ) ज़रुरत बस 
मतदान के समय है ,न उससे पहले और न उसके बाद , इसलिए बेवजह उसका कद 
बढाने में माथापच्ची मत कीजिये / अरे हम हैं न -
   पहले सवाल पर नज़र डाली तो यह वही था जो अन्ना के आन्दोलन के समय उन्हें धमाका 
रहा था , यह कहते हुए कि मैं देश में सबसे बड़ा हूँ / मैं क़ानून बनाता हूँ , देश को अपनी
 लाठी से हांकता हूँ , अपराधी को न्याय और जांच की कुर्सी पर बिठा सकता हूँ , आप मेरी 
और उंगली नहीं उठा सकते / आप मेरी अवमानना नहीं कर सकते , आप क्या, देश में 
कोई भी मेरा अपमान नहीं कर सकता क्योंकि मैं सर्वशक्तिमान हूँ , मैं संसद हूँ /
      दूसरा सवाल वह था  जब प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च अदालत की कई तीखी टिप्पणियों से 
आहात होकर न्यायपालिका को सीमा में रहने की सलाह दे डाली थी / यानी कि प्रधानमंत्री
 ने परोक्ष रूप में कहा था कि न्यायपालिका सरकार से बड़ी  नहीं है / अगर सरकार में शामिल 
 चेहरों में से आये दिन भ्रष्टों और उठाईगीरों के चहरे प्रकट हो रहे हों , वे जेल भेजे जा रहे हों ,
तो भी सरकार सर्वोपरि और न्यायपालिका को उस पर उंगली उठाने का अधिकार न दिया जाए ,
तो स्वंतत्र न्यायपालिका का क्या अर्थ है ? जब भ्रष्टाचार के खिलाफ सारा देश आंदोलित था तो 
सरकार के कई चाटुकारों ने कहा था कि बाबा रामदेव और अन्ना पहले चुनाव जीतकर आयें ,
फिर क़ानून बनाने की बात करें , और जवाब में इंटरनेट की सैकड़ों सोशल साइट्स पर लाखों तीखी प्रतिक्रियाएं उभरीं , जिनमें 
यह भी पूछा गया था कि प्रधानमंत्री को किस निर्वाचन क्षेत्र की जनता ने चुना है ? जवाब तो 
खैर कोई क्या देता लेकिन शायद उसी समय से इंटरनेट की सोशल साइट्स के खिलाफ सरकार 
की त्यौरियां तन गयीं /आनन् - फानन ऐसी साइट्स के भारत स्थित करता- धर्ताओं को बुलाकर धमकाया गया / वह सब
 आज भी जारी है/
      तीसरा सवाल था वह जिसने राष्ट्रमंडल खेलों में तिकड़म का खेल खेलकर अपनी तिजोरियां
बहरीन थीं / सब कुछ साफ़ था लेकिन अखबारों और मीडिया चैनलों के खुलासे के बाद भी सरकार
 कान  में तेल डाले मूकदर्शक बनी रही / भाई - भतीजों की तिजोरियां भर गयीं , जनता के धन की 
खुली लूट का खेल तिकदामाबाजों ने खेला और जनता बेबस / लोकतंत्र की शासन सत्ता
का यह कैसा निर्माता है जो अपने द्वारा ही ऊंची कुर्सियों पर बिठाए गए  लोगों द्वारा अनवरत छाला
जाता है ? 
      और चौथा सवाल यह था जिसमें वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री ने आम 
जनता से वादा किया था कि उनकी सरकार बनाने के महज़ सौ दिनों के अन्दर विदेशी बैंकों  में जमा 
भारत का काला धन वापस ले आया जायेगा / सौ दिन क्या अब तो ग्यारह सौ दिन बीत चुकेहैं/ जिनके 
बारे में स्विस बैंक ने खुद जानकारी दी , सरकार उनके नाम भी सार्वजनिक करने को राजी नहीं थी / 
एक लंगोटीधारी ने हुंकार भरी , देश भर में अलख जगाई और जब सरकार की नाक  के नीचे दिल्ली के
 रामलीला मैदान में अपने हज़ारों समर्थकों के साथ जा  धमका , तो सरकार ने
 रात के  समय सोते हुए सत्याग्रिहियों पर लाठियां चलवाकर अपनी दिखाई / 40,000  लोगों की भीड़ 
थी और उनमें से सब के सब मतदाता थे,अर्थात संवैधानिक व्याख्या के अनुसार लोकतंत्र की शासन 
सत्ता के निर्माता, फिर बड़ा कौन है ?
          पाचवां ताजा सवाल, जिसमें एक छोटी सी लिपिकीय गलती का सहारा लेकर सरकार , सेना 
के मेजर जनरल को समय से एक वर्ष पूर्व सेवानिवृत करने पर आमादा थी / एक अजीब  सा तमाशा 
, पड़ोसी देश पाकिस्तान में सेना , सरकार की उम्र तय करती है और हम चूंकि लोकतंत्र के झंडाबरदार 
हैं  , इसलिए यहाँ सरकार तय कर रही है सेना की उम्र / वजह यह कि सरकार किसी अपने कृपापात्र 
को सेना के  पद पर बिठाना चाह  रही थी सो सेना के मेजर जनरल को समय से एक वर्ष पूर्व ही बेदखल करने पर आमादा थी / 
      सवाल तो और भी ढेर सारे थे , लेकिन अपने बेचारे मतदाता अर्थात लोकतंत्र की शासन सत्ता के
 निर्माता को इन दबंग सवालों द्वारा बार - बार धकियाये जाते देख , मेरे मन में उसके प्रति सहानुभूति 
जगी और मैं उसे एकांत में लेजाकर समझाना चाह रहा था कि तुम वास्तव में निर्माता तो हो लेकिन ऐसे 
निर्माता , जिससे बिना पारिश्रमिक काम लिया जाता है / फिर निर्माता तो बनाता है , वह उसका सुख 
कहाँ भोगता है / बड़े - बड़े शहरों  की छातियों पर खडी  गगनचुम्बी इमारतों को देखो / इन्हें मज़दूरों ने अपने सर पर ईट - गारा ढोकर बनाया है , कारीगरों ने भी तपती धुप में अपना पसीना
बहाया है , उनहोंने तामीर की है लेकिन वे उनमें रह नहीं सकते / सडकों को बनते हुए देखो , इन्हें बनाने वाले
मज़दूर बाद में  उन सडकों की फुटपाथ पर भी तो चलने नहीं दिए जाते / तुम वही हो , लोकतंत्र के निर्माता ,
के भाग्य विधाता , लेकिन तुम भारत नहीं हो / तुम   हिन्दू हो , मुसलमान हो , दलित हो , अगड़े हो , पिछड़े 
हो / तुम महज वोट हो और वोट के अतिरिक्त कुछ भी नहीं / तुम भारत नामक खुशनुमा बगीचे के पौधे निरा सकते हो , उन्हें खाद - पानी दे सकते हो , उन पर फल और फूल खिला सकते हो , लेकिन उनका उपयोग नहीं 
कर सकते / उपयोग और उपभोग वे करेंगे जिन्हें तुम मालिक बनाते हो , मालिक समझते हो / तुम केवल माली हो और तुम्हें माली तथा मालिक के बीच का अंतर समझना चाहिए /
                                                         
                                                                                   - एस . एन . शुक्ल