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Saturday 26 October 2013

पत्रकारिता में पक्षपात

                                    पत्रकारिता में पक्षपात 


     अभी हाल ही में चर्चित समाचारपत्र " द हिन्दू " के मुख्य उपसम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन ने यह कहते हुए अपने पद और अखबार से इस्तीफा दे दिया कि " द हिन्दू " सिर्फ नाम से ही हिन्दू है, जबकि यह अखबार घोर हिन्दू और मोदी विरोधी है। साथ ही उन्होंने आरोप लगाया है कि समाचारपत्र के मालिक कस्तूरी एंड सन्स के चेयरमैन एन. राम उन पर बहुत ज्यादा दबाव डाल रहे थे कि अखबार में हिन्दू विरोधी और मोदी विरोधी खबरें प्रमुखता से लगानी हैं।  आमतौर पर उत्तर और मध्य भारत के मीडिया और खासकर हिन्दी मीडिया पर हिंदूवादी होने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन बदले माहौल में मीडिया हाउस या तो वामपंथियों की गिरफ्त में हैं या ईसाइयों के अथवा उस तंत्र के आधिपत्य में जिसके हाथ में सत्ता है। ऐसा मीडिया सत्ता की खामियां छुपाने की कोशिश तो करता ही है , प्रायः सत्ता पर लगने वाले स्पष्ट आरोपों को भी कहीं कोने में और कहीं इतना छोटा स्थान देता है मानो वे महत्वहीन मसले हों। 
      ये आरोप नहीं हैं क्योंकि हालिया घटित एक जैसे दो मामलों में इसी मीडिया ने दुहरे मापदंड अपनाए। पहला मामला आतंकी सोहराबुद्दीन एन्काउन्टर मामले के आरोपी डीजी बंजारा के उस पत्र का था जिसे जेल से जारी करते हुए बंजारा ने कहा था कि उन्हें जेल से छुड़ाने में गुजरात सरकार ने कोई मदद नहीं की जबकि वह मोदी को अपना भगवान मानते थे। यह पत्र अखबारों में प्रमुखता से छापा तो चैनलों पर पत्र को लेकिर बहस भी हुयी। कांग्रेस को तो मानो मोदी के खिलाफ एक और हथियार मिल गया हो इसलिए उसने बाकायदा पत्रकार वार्ता बुलाकर स्टिंग ऑपरेशन की सीडी भी बांटी। उल्लेखनीय है कि बंजारा का पत्र कम्प्यूटर प्रिंट द्वारा जारी किया गया था लेकिन मीडिया ने यह पूछने की जरूरत महसूस नहीं की कि बंजारा को जेल में कम्प्यूटर कैसे उपलब्ध हुआ और किसने उपलब्ध कराया। 
     जिस दिन यह सब हो रहा था, ठीक उसी दिन एक ऐसी ही ख़ास खबर और भी थी कि न्यूयार्क की एक अदालत ने 1984 में भारत के  सिख विरोधी दंगों के दौरान सिखों की हत्याओं में शामिल रहे हत्यारों को बचाने के आरोप में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पेश होने के लिए समन जारी किया है।इस खबर को न तो अखबारों में जगह दी गयी और न ही खबरिया चैनलों ने ही तवज्जो दी। गुजरात दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी को केवल कांग्रेस ही गुनहगार नहीं ठहराती, वे कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी मोदी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ती हैं जो केवल कागजों में पंजीकृत हैं और जनाधार के नाम पर जिनके खाते में एक विधायक तक नहीं है।

     सवाल यह है कि गुजरात दंगों में तो हिन्दू और मुसलमान दोनों ही मरे थे और उन दंगों के भाजपा ही नहीं कांग्रेस के तत्कालीन विधायकों तक पर आरोप लगे थे, लेकिन 1984 के सिख विरोधी दंगों में तो एक ही समुदाय के लोग मारे गए। तब केवल दिल्ली में ही जितने सिखों का क़त्ल-ए-आम हुआ था गुजरात दंगों में हिन्दू-मुसलमान दोनों तबकों के उतने लोग नहीं मरे। यदि मीडिया गुजरात दंगों के लिए मोदी की ओर उंगली उठाता है तो उसे 1984 के सिख विरोधी दंगे क्यों नहीं याद आते ?यह भी उल्लेखनीय है कि सिख विरोधी दंगों के आरोपी कांग्रेसी नेताओं एचकेएल भगत, जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को अदालत और क़ानून के पंजों से बचाने और निर्दोष साबित करने के लिए कांग्रेस ने पुलिस और जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कर अपने नेताओं को भले ही बचा लिया हो, लेकिन यह गुनाह तो उसके सिर रहेगा ही।
     सिखों के क़त्ल-ए-आम पर तब अपनी टिप्पणी में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है (उल्लेखनीय है कि तब इंदिरा गांधी की ह्त्या के खिलाफ सिखों पर हमले हुए थे) और जवाब में भाजपा नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था " जब धरती हिलती है तभी पेड़ गिरते हैं, पेड़ों के गिराने से धरती नहीं हिला करती। "
       ये बातें तो सियासत की हैं, जहां आरोप और प्रत्यारोप के पीछे भी सियासी स्वार्थ होते हैं लेकिन जब मीडिया खबरों में पक्षपात करता है, गलत को सही ठहराने का प्रयास करता है और साथ ही निष्पक्षता का दम भी भरता है तब यह सवाल उठाना लाजिमी है कि मीडिया की बागडोर क्या किन्हीं दूसरे हाथों में है अथवा पद और पैसे से उपकृत हो रहा मीडिया अपने स्वार्थ की भाषा बोल रहा है? उल्लेखनीय है कि जिन एन. राम पर दबाव डालने का आरोप लगाते हुए सिद्धार्थ वरदराजन ने " द हिन्दू " अखबार की नौकरी छोड़ दी वह नरसिम्हन राम इसलिए  हिन्दू विरोधी हैं क्योंकि उनकी पहली पत्नी सूसन आयरिश हैं और वर्त्तमान में भारत में ऑक्सफ़ोर्ड पब्लिकेशन की इंचार्ज हैं तो हालिया पत्नी मरियम भी कैथोलिक ईसाई हैं। 
    अभी हाल ही में बरखा दत्त की बड़ी आलोचना इसलिए हुयी थी क्योंकि उन्हीं के साक्षात्कार में पकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देहाती औरत कहा था। बरखा दत्त NDTV में काम करती हैं और यही एकमात्र ऐसा चैनल है जो अधिकृत रूप से पाकिस्तान में दिखाया जाता है। बीते सप्ताह ही जावेद अख्तर ने कहा था कि मोदी अच्छे प्रधानमंत्री नहीं हो सकते।  यहाँ बताना आवश्यक है कि जावेद अख्तर "मुस्लिम फॉर सेकुलर डेमोक्रेसी " के प्रवक्ता हैं और यह संस्था तीस्ता सीतलवाड़ के पति जावेद आनंद चलाते है। शायद अब यह भी बताने की आवश्यकता नहीं है कि तीस्ता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों के लिए गुनाहगार ठहराने के लिए क्यों वर्षों से मुहीम चला रही हैं ?
     सीधी बात में अब प्रभु चावला की जगह एंकरिंग करने वाले  करन थापर ITV के मालिक हैं, जो बीबीसी के लिए कार्यक्रमों का निर्माण करती है।  इसके अतिरिक्त करन थापर के पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो आसिफ अली जरदारी की अच्छी मित्रता रही है। फिर आप थापर से कितनी उम्मीद कर सकते हैं कि वह हिन्दुओं के पक्ष में बोलेंगे ? भारत में सक्रिय और सबसे अधिक सर्वेक्षण के लिए चर्चित चैनल CNN-IBN ( मुस्लिम+ईसाई समर्थक ) चैनल हैं।  यदि वे भारत के हित की भाषा नहीं बोलते तो आश्चर्य किस बात का। डेक्कन क्रानिकल के चेयरमैन टी.वी. रेड्डी कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सदस्य रहे हैं तो वर्तमान में डेक्कन क्रानिकल और एशियन एज के सम्पादक एम.जे. अकबर भी कांग्रेस से जनप्रतिनिधि रह चुके हैं। सन टीवी चैनल समूह तथा  तमिल दैनिक दिनाकरन के मालिक कलानिधि मारन पूर्व केन्द्रीय संचार मंत्री दयानिधि मारन के भाई हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि दयानिधि मारन की पत्नी पत्रकार एन. राम की भतीजी हैं। एम. करुणानिधि के पुत्र एम. के. अझागिरी कैलाग्नार टीवी चैनल के मालिक हैं।  करूणानिधि की पुत्री कनिमोझी भी " द हिन्दू " अखबार की उपसम्पादक रही हैं।
   तमिल भाषा का सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अखबार ईनाडु तथा ETV चैनल के मालिक रामोजी राव आन्ध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के अभिन्न मित्र हैं। किसके कहाँ सम्बन्ध हैं और किस नेता का कौन सा अखबार या चैनल है , किस की किस मीडिया समूह में भागीदारी है, यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है फिर भी यह बता दें कि के. के. बिरला की बेटी शोभना भरतिया जो कांग्रेस से राज्यसभा सदस्या भी हैं इस समय हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की अध्यक्ष हैं।  जब अखबारों और टीवी चैनलों पर नेताओं और उद्योगपतियों का ही कब्जा है तो कैसी अपेक्षा की जा सकती है कि वे जनमत की भाषा बोलेंगे और अपने मालिकों की मर्जी के खिलाफ जाकर सच को सच कह पायेंगे ?
         
                                                        -एस. एन. शुक्ल 

Wednesday 23 October 2013

भाजपा या कांग्रेस ?

                                   भाजपा या कांग्रेस ?

      बस दो महीने की प्रतीक्षा और पांच राज्योंके विधानसभा चुनाव परिणाम स्पष्ट कर देंगे कि केंद्र की अगली सरकार किस दल के नेतृत्व में गठित होगी। तीसरा,चौथा या पांचवां कोई भी मोर्चा क्यों न दावा कर रहा हो कि अगली सरकार उसी की बनेगी, लेकिन उनके लिए यह अभी बहुत दूर की कौड़ी है। केंद्र में सरकार भाजपा या कांग्रेस के नेतृत्व में ही पदारूढ़ होगी क्योंकि तीसरे या चौथे मोर्चे की वकालत कर रहे राजनैतिक दलों में से कोई भी दल ऐसा नहीं है जिसका अस्तित्व राष्ट्रीयस्तर पर हो। सवाल यह भी है कि जिस दल का राष्ट्रीय स्तर पर  कोई प्रभाव नहीं है, अन्य क्षेत्रीय दल उसका नेतृत्व स्वीकार करने को क्यों राजी होंगे ?
       लोग तर्क दे सकते हैं कि वीपी सिंह, देवगौड़ा, गुजराल या चंद्रशेखर की सरकारें भी तो केंद्र में पदारूढ़ रह चुकी हैं, वे सरकारें तो भाजपा या कांग्रेस के नेतृत्व में नहीं गठित हुयी थीं ? जवाब यह है कि वे सरकारें भी तभी बन सकीं और तभी तक अपना अस्तित्व बनाए रख सकीं, जब तक कि भाजपा या कांग्रेस में से किसी एक दल का सहयोग या समर्थन उन्हें हासिल था। यह अलग बात है कि कभी भाजपा केंद्र में महज दो सांसदों की ताकत  लेकर ही पहुँच पायी थी और कभी कांग्रेस का उत्तर  भारत से सूपड़ा ही साफ़ हो गया था, लेकिन फिर भीआज का सच यही है कि जनाधार, लोकप्रियता और विस्तार के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति केवल दो ही दलों भाजपा और कांग्रेस के आस-पास ही घूमती है   
        वर्ष २०१४ में देश के लिए आम चुनाव होने हैं, लेकिन उसके भी पहले पाँच राज्यों दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनाव अगले दो माह के भीतर ही संपन्न होने जा रहे हैं। मिजोरम अपेक्षाकृत छोटा राज्य है और वहां होने वाला कोई भी राजनैतिक परिवर्तन केंद्र की राजनीति पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं डालता।दिल्ली,राजस्थान,  मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की राजनैतिक उथल-पुथल केंद्र को निश्चित रूप से प्रभावित करेगी, इसलिए इन राज्यों के सम्पन्न होने जा रहे विधानसभा चुनावों को यदि वर्ष २०१४ के आम चुनावों का सेमीफाइनल मान लिया जाय तो गलत नहीं होगा।इन चार राज्यों में से दो इस समय भाजपा के कब्जे में हैं और दो कांग्रेस के। विधानसभा चुनावों में उथल-पुथल की संभावनाओं  से इनकार नहीं किया जा सकता, तो यह भी तय माना जा रहा है कि उपरोक्त चार राज्यों में से तीन पर जो भी बढ़त हासिल करेगा , केंद्र की अगली सरकार उसी दल के नेतृत्व में गठित होगी। 
          राजनीति में दोस्ती या दुश्मनी कुछ भी स्थायी नहीं होती तो कोई भी राजनैतिक निर्णय भी अंतिम नहीं होता।  चूंकि केंद्र में कांग्रेस सत्तारूढ़ है इसलिए सत्तारूढ़ गठबंधन के दल ही नहीं बाहर से समर्थन देने वाले भी कई दल अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति होने तक ही कांग्रेस के साथ हैं।  यदि आम चुनाव में कांग्रेस लड़खड़ाती है तो आज के उसके सहयोगी दलों में से शायद ही कोई उसके साथ टिका रह सकेगा। भगदड़ तो उपरोक्त पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रारम्भ होना तय है। भाजपा या कांग्रेस जिसका भी ग्राफ नीचे जाएगा उसके मित्र उसे टा-टा कहने में देर नहीं लगायेंगे और जिसका भी ग्राफ बढेगा उसके सहयोगियों की संख्या अनायास ही बढ़ जायेगी। 
          पाँच राज्य,६३० विधानसभा सीटें और ११ करोड़ ६० लाख मतदाता। ७० सीटों वाला राज्य दिल्ली सबसे महत्वपूर्ण है तो यहाँ की शीला सरकार के खिलाफ असंतोष भी मुखरित हो रहा है। भाजपा अपनी बढ़त के प्रति आश्वस्त तो है लेकिन इस बार सबसे बड़ी समस्या अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को माना जा रहा है। भाजपाई भी स्वीकार करते हैं कि आप के प्रत्याशियों के मैदान में होने से कांग्रेस का अगर बड़ा नुकसान होगा तो भाजपा के वोटों पर भी निश्चित रूप से प्रभाव पडेगा। यद्यपि  में भाजपा के पास २३ तो कांग्रेस के पास ४३ सीटें हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और महगाई से आजिज राज्य के मतदाता कौन सी करवट लेंगे, कहना आसान नहीं है।
     राजस्थान की २०० विधानसभा सीटों में से पिछले चुनाव में ९६ पर विजय का परचम लहराकर कांग्रेस ने भाजपा के हाथों से सत्ता छीन ली थी। तब से अब तक ढेरों पानी बह चुका है।  यूं भी राजस्थान हर पाँच वर्ष पर प्रायः सत्ता परिवर्तन के लिए जाना जाता है, फिर भाजपा को ७८ से १०० सीटों का आंकड़ा पार करना शायद बहुत मुश्किल नहीं होगा।  गहलोत सरकार लचर क़ानून व्यवस्था,भ्रष्टाचार और हालिया अपने ही मंत्री पर लगे यौन शोषण के आरोपों के कारण आक्रामक मुद्रा में कम, बचाव की मुद्रा में अधिक है। यहाँ भाजपा अपनी सुनिश्चित विजय मान रही है , लेकिन अंतिम फैसला तो राज्य के मतदाताओं को ही करना है।
       मध्य प्रदेश की कुल २३० सीटों में से भाजपा १४३ के साथ सत्ता पर काबिज है तो कांग्रेस ७१ सीटों के साथ विपक्ष में है। भाजपा का मानना है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की कार्यशैली और मोदीवाद के उभार के चलते भाजपा फिर सत्ता पर काबिज होगी, लेकिन इस राज्य में भाजपा के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए कांग्रेस अपनी पूरी ताकत लगा रही है। ग्वालियर के युवराज ज्योतिरादित्य सिंधिया को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर कांग्रेस युवाओं को आकर्षित करने का प्रयास कर रही है।  मध्य प्रदेश भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए महत्वपूर्ण है।  यद्यपि अभी तक दोनों ही दल अपने प्रत्याशियों का भी पूर्णरूप से चयन नहीं कर सके हैं , लेकिन राजनैतिक समीक्षक मानते हैं कि इस बार मुकाबला कांटे का है।
        छत्तीसगढ़ की ९० सीटों में से भाजपा ५० पर काबिज और सत्तारूढ़ है।  कांग्रेस ३८ सीटों के साथ विपक्ष में है तो माना जा रहा है कि मध्य प्रदेश के माहौल का प्रभाव छत्तीसगढ़ में भी पड़ेगा क्योंकि यह राज्य मध्य प्रदेश के विभाजन के बाद ही अस्तित्व में आया है।
        इन चुनावों में मोदी की लोकप्रियता की भी परिक्षा होना तय है। यदि मतदाता भ्रष्टाचार और महगाई के खिलाफ वोट देते हैं तो कांग्रेस के लिए मुश्किलें बढ़ना तय है और यदि वे साम्प्रदायिकता के खिलाफ जाते हैं, मोदी की आक्रामक हिन्दूवाद के विरोध में मतदान करते हैं तो भाजपा की राह भी आसान नहीं होगी। अब यह तो देश के मतदाता ही तय करेंगे कि वे देश की बागडोर किसके हाथों में सौंपना चाहते हैं, भाजपा या कांग्रेस ?
                                                      - एस. एन. शुक्ल 

Friday 18 October 2013

बेटों पर भी जरूरी है अंकुश



                                     बेटों पर भी  जरूरी है अंकुश 


     निर्भया मामले में अदालत ने चारों आरोपियों को फांसी की सज़ा सुनायी। अखबारों ने कालम रंगे और कहा न्याय हुआ तो समाज का एक बड़ा तबका तो इतना खुश हो रहा था मानो देश ने फिर से आज़ादी हासिल कर ली हो। बड़ा सवाल यह है कि अदालत के इस फैसले से क्या समाज पर वास्तव में कोई असर पड़ा है ? क्या शोहदों और बलात्कारियों की हरकतों पर इससे विराम लगेगा ? और क्या लोग निर्भया मामले या उक्त मामले में आये अदालती फैसले को लम्बे समय तक याद भी रखेंगे?
        फिलहाल ऐसा कुछ होता तो नहीं दिखता। बलात्कार और छेड़खानी की घटनाएं थमने की बजाय शायद और भी बढ़ गयी हैं। उस दिल्ली की रफ़्तार पर भी कोई अंतर नहीं पड़ा जहां निर्भया को दरिंदों ने अपनी दरिन्दगी और हवाश का शिकार बनाया तथा जहां की अदालत ने उन्हें फाँसी की सजा सुनायी।ऐसी वारदातों की खबरों से देश के अखबार रोज ही रेंज रहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि मात्र क़ानून की सख्ती से ही अपराधों को रोक पाना संभव नहीं है। क़ानून अपराधी को सजा दे सकता है लेकिन वह भी तब, जबकि अपराधी के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य हों और अदालत में गवाह तथा वकील आरोपी को अपराधी साबित कर सकें। कानून समाज को नहीं बदल सकता।  समाज को बदलने के लिए तो समाज को ही पहल करनी होगी। 
       हम बेटी को तो तंग और देह दिखाऊ कपड़े पहनने से रोकते हैं,वह कालेज से घर आते समय रास्ते की जाम की वजह से भी लेट हो जाए तो सौ सवाल करते हैं। वह क्या करे और क्या न करे, इस पर आये दिन उपदेशात्मक व्याख्यान देते रहते हैं, लेकिन क्या बेटे के साथ भी ऐसा कर पाते हैं? बेटा क्या करता है,कहाँ जाता है,कैसे लोगों की शोहबत में उठता -बैठता है इन बातों पर कितना गौर करते हैं हम? बेटी की किसी लड़के से सामान्य मित्रता पर भी सौ सवाल, प्रेम प्रसंग की भनक भी लग जाय तो उसके घर से निकलने पर पाबंदी, मरने-मारने पर उतारू। यहाँ तक अपनी ही बेटी को मौत के घाट उतारने तक में संकोच नहीं, लेकिन वही कुछ बेटा करे तो क्या उसके भी दो तमाचे जड़कर उससे भी सवाल किये जाते हैं कहीं?
        पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऑनर किलिंग के नाम पर लम्बे समय से बहस-मुबाहसा जारी है,लेकिन इस मसाले का हल क्या हो,बेटियों को मौत के घात उतारने पर विराम लगे, ऐसे किसी निर्णय तक नहीं पहुंचा जा सका है। अदालत ने पिछले दिनों थोड़ा सख्त रुख अवश्य अपनाया था लेकिन जो सारा समाज इज्जत के नाम पर एक जैसी सोच से बंधा हो,जहां पंचायत और बिरादरी के भय से कोई मुह खोलने को भी राजी न हो, वहां ऑनर किलिंग के नाम पर हत्याएं हों तो अदालत के सामने साक्ष्य और गवाह कहाँ से लाये जायेंगे? दुर्भाग्य से इस समाज में भी प्रतिबन्ध केवल बेटियों के लिए ही हैं, बेटों के लिए नहीं। आखिर वही समाज यह क्यों नहीं समझ पाटा कि यदि बेटे सामाजिक वर्जनाओं का कड़ाईसे पालन करें तो बेटियाँ तो स्वयं ही उनका अनुकरण करने लगेंगी। 
     सच यही है कि समाज में फ़ैल रही गन्दगी और विषाक्तता का कारण बहुत हद तक समाज खुद ही है। वह बेटी और बेटों के मामले में दुहरे मानदण्ड अपनाता रहा है तो आज भी अपना रहा है। बस अंतर इतना अवश्य है कि पहले लोग समाज और सामाजिक प्रतिष्ठा की परवाह अधिक करते थे। बड़ों के प्रति सम्मान था तो उनकी नज़र में खुद की साफ़-सुथरी छवि बनाए रखने की एक दृढ़ परम्परा भी थी जिसके कारण समाज बिना किसी नैतिक शिक्षा के नैतिकता के प्रति समर्पित था। तब चरित्र को एक आवश्यक गुण के रूप में देखा जाता था और चरित्रहीन व्यक्ति समाज के लिए त्याज्य था। 
     आज ऐसा नहीं है। सारे परिवार और बच्चों  के साथ फिल्मों के अंतरंग दृश्यों को देखने में परहेज नहीं तो युवा होते बच्चे भी माता-पिता के सामने खुलने लगे हैं। फ़िल्में और धारावाहिक उन्हें प्रभावित करते हैं तो वे खुद भी उन पात्रों की तरह आचरण करने लगते हैं। शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इन दिनों टीवी चैनलों पर किस तरह के धारावाहिक कर रहे हैं और समाज में किस तरह की संस्कृति परोस रहे हैं। इन धारावाहिकों की अपसंस्कृति से भावी पीढ़ी को बचाने का शायद यही उपाय है कि अभिभावक खुद ही ऐसे कार्यक्रमों को देखने से परहेज करें। 
     सड़क चलती लड़कियों पर छीटाकसी तो लड़के ही करते हैं।  वे प्रायः संपन्न घरानों के भी होते हैं। इसका मतलब साफ़ है कि उन्हें परिवार में अच्छे संस्कार नहीं दिए गए। कहा जाता है कि बेटे में पिता के स्वाभाविक गुण पाए जाते हैं।  यदि बेटे  के चरित्र पर उंगली उठती है तो क्या पिता का चरित्र संदेह के घेरे में नहीं आता। शायद यह आज की आवश्यक आवश्यकता है कि समाज को सुधारने की शुरुआत घर से ही की जाय और बेटों को चरित्र प्रधान बनाया जाय। वे चरित्रवान होंगे तो न खुद समाज में गन्दगी फैलायेंगे और न ही दूसरों को फैलाने देंगे। अब फैसला आप ही करें कि सुधारने की जरूरत किन्हें है बेटियों को या बेटों को ?
                                                 
                                                                                 -एस.एन. शुक्ल 

Wednesday 16 October 2013

हवा में तीसरा मोर्चा



                                                    हवा में तीसरा मोर्चा

     हर आम चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे का राग अवश्य सुनायी देता है लेकिन यह मोर्चा मूर्तरूप लेता हुआ अभी तक तो देखा नहीं गया .इस बार सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने के फिर दावे कर रहे हैं.दरअसल २०१२ के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता से उत्साहित समाजवादी पार्टी ने लक्ष्य २०१४ का नारा बुलंद करते हुए लोकसभा चुनाव में केंद्र में सत्तासीन होने की परिकल्पना की थी. मुलायम उसी परिकल्पना को मूर्तरूप देने के लिए व्यग्र हैं.सवाल यह है कि यदि तीसरा मोर्चा गठित करने की कवायद होती भी है तो मोर्चे के साथ आयेंगे कौन-कौन दल और मोर्चे की अगुवाई कौन करेगा ?फिलहाल संभावित तीसरे मोर्चे के मुलायम सिंह यादव स्वयंभू नेता हैं और इस मोर्चा बनाने की छटपटाहट  के पीछे उनकी खुद की महत्वाकांक्षा है .
         वर्ष १९९६ में तीसरे मोर्चे का राग बड़े तेज स्वर में बजा था और उस राग को बजानेवाले थे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत .सबको पता है कि वामपंथियों को भाजपा और हिंदुत्व से सदैव एलर्जी रही है .वर्ष १९९० में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाकर सपा मुखिया मुलायम सिंह "मुल्ला मुलायम "का खिताब पा चुके थे तो स्वाभाविक तौर पर वामपंथियों से उनकी निकटता भी बढ़ गयी थी. कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेकने,धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने और साम्प्रदायिकता की प्रतीक भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर तब हरिकिशन सिंह सुरजीत ने तीसरे मोर्चे की मुहीम को हवा दी थी तो मुलायम सिंह यादव के सिर पर वरदहस्त रख उन्हें प्रधानमंत्री पद के सपने भी दिखाए .
      तब्ब लोकसभा में तीसरा मोर्चा बड़ी ताकत के रूप में उभरकर आया भी था, लेकिन सुरजीत की पुरजोर पैरवी के बावजूद मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर सहमति न बन सकी. उस समय मोर्चे में सबसे बड़ा घटक जनता दल था जो उस पीड़ा को भुला नहीं पा रहा था जब १९९१ में मुलायम सिंह ने जनता दल तोड़कर पहले चंद्रशेखर की अगुवाई में सजपा का दामन थामा और फिर चाँद दिनों बाद ही अपनी अलग समाजवादी पार्टी बना डाली .अर्थात जनता दल द्वारा आपत्ति के कारण ही तब मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे, लेकिन वह टीस आज भी उनके मन में है और वह किसी भी तरह एक बार भारत के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने का सपना पूरा करना चाहते हैं .
        वामदलों के बीच स्थापित अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण उसके बाद भी मुलायम स्वीकार्य बने रहे तो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य से बड़ी ताकत के साथ वह लोकसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे .वर्ष २००८ में जब भारत-अमेरिकी परमाणु करार का विरोध करते हुए वामदलों ने यूपीए-1 सरकार से समर्थन वापस लिया था तो उन्हें मुलायम से भी सरकार के विरोध की उम्मीद थी,लेकिन मुलायम तब सरकार के साथ खड़े नज़र आये. अभी बहुत दिन नहीं हुए जब एफडीआई मुद्दे पर मुलायम सिंह ने जो दांव खेला था उससे उन पर सर्वाधिक भरोसा करनेवाले वामदलों को भी गहरा आघात लगा था.जब वामदल एफडीआई के विरोध में वोटिंग पर मुलायम का सहयोग चाहते थे , उस समय उन्होंने संसद से बहिर्गमन कर परोक्ष रूप में सरकार की मदद ही की .
     राष्ट्रपति चुनाव के समय ममता बनर्जी को भड़काने वाले और फिर अचानक पाला बदल लेने वाले मुलायम सिंह ही थे. जयललिता राजग की ओर फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ा चुकी हैं .चंद्रबाबू नायडू को भी भाजपा के साथ जाने में ही अपना हित लग रहा है.बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद को मुलायम से बड़ा नेता मानते हैं तो वह क्यों तैयार होंगे मुलायम का नेतृत्व स्वीकार करने को ? यूं भी इस समय उनकी कांग्रेस से गहरी छन रही है. अकाली दल पंजाब में भाजपा के साथ सत्ता का सुख भोग रहा है. हरियाणा में इनेलो को वर्त्तमान परिस्थिति में भाजपा ही सबसे बड़ी मददगार नज़र आ रही है तो उत्तर प्रदेश में रालोद अब किसी भी कीमत पर सपा से हाथ मिलाने को तैयार नहीं है.
          जहां तक वामदलों का सवाल है तो वे बंगाल में ही अभी अपनी बिगड़ी सेहत संभाल पाने की स्थिति में नहीं हैं.बिहार में कभी वे ताकतवर थे भी तो अब गुटों में बट जाने के कारण वे खुद ही पस्त नज़र आ रहे हैं.लालू प्रसाद यादव भले ही इन दिनों जेल में हैं लेकिन उनकी पार्टी राजद,  मुलायम को कभी भी नेता स्वीकार करने को तैयार नहीं होगी.द्रमुक इस समय कांग्रेस के साथ है और हाल-फिलहाल वह अलग भी नहीं होगी. कर्नाटक में देवगौड़ा को किसी सहयोगी की दरकार तो है किन्तु सपा की वहां कोई ताकत नहीं है तो देवगौड़ा किसी अन्य राज्य में किसी दूसरे  की मदद कर पाने की स्थिति में नहीं हैं.
      सवाल यह है कि यदि फिर भी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तीसरा मोर्चा बनाना ही चाहते हैं तो उस मोर्चे में शामिल होने वाले दल भी वही होंगे जो शायद ही एक या दो सांसदों के साथ लोकसभा पहुँच सकें और सदन में दलों की सूची में अपने नाम को दर्ज करा सकें.
    मुलायम अखाड़े के पहलवान रहे हैं लेकिन अपने राजनैतिक जीवन में अपने सहयोगी दलों को भी पटखनी देने में अखाड़े के दांव आजमाते रहे हैं. उत्तर प्रदेश में जब मुलायम सरकार जनता दल और कांग्रेस के सहयोग से चल रही थी तब जनता दल के ३२ में से २८ को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल करनेवाले और जनता दल की जड़ों में मट्ठा डालने वाले भी मुलायम सिंह ही थे.बसपा के साथ उन्होंने जो किया वह इतिहास का काला अध्याय ही कहा जाएगा तो रियायत उन्होंने अपने सियासी गुरू चौधरी चरण सिंह और वरिष्ट राजनेताओं हेमवती नन्दन बहुगुणा, वी.पी.सिंह और चंद्रशेखर के साथ भी नहीं की.
        यही वजह है कि मुलायम सिंह की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने वाले भी उनसे सतर्कता और शंका के साथ ही हाथ मिलाते हैं. वर्त्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में न तो सपा प्रमुख से हाथ मिलाने के लिए कोई सशक्त सहयोगी नज़र आ रहा है और न ही भाजपा या कांग्रेस नीत गठबंधनों के अतिरिक्त किसी मजबूत महाज के बनने की संभावनाएं ही दिखाई दे रही हैं. फिर भी यदि मुलायम सिंह यादव तीसरे मोर्चे का राग अलाप रहे हैं, तो यह तो वही बता सकते हैं कि आखिर कैसे बनेगा उनके सपनों का तीसरा मोर्चा .
                                                           
                                                                                           -एस.एन.शुक्ल  

           

राजपथ से

                                           दिग्गी की बोलती बंद 

  कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह अपने बेसिर-पैर के बयानों के लिए पहचाने जाते हैं। कभी-कभी तो उनके बयान इतने विवादित होते हैं कि उनकी ही पार्टी को उनके बयानों को उनकी निजी राय बताकर पल्ला झाडना पड़ता है। पिछले दिनों भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को राज्य स्तरीय और राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेता बताकर वह भाजपा महासचिव रविशंकर प्रसाद के निशाने पर आ गए। 
   टीवी चैनल पर चल रही बहस में रविशंकर प्रसाद ने दिग्विजय को ऐसा धोया कि बेचारे की बोलती ही बंद हो गयी। प्रसाद ने कहा कि मोदी तो हमारे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं लेकिन उनकी (दिग्विजय की )उनकी ही पार्टी में हैसियत क्या है ?उनके बयानों से उनकी खुद की ही पार्टी हर बार पल्ला झाड लेती है। उनके खुद के राज्य में चुनाव हो रहे हैं और उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। जहां तक मोदीजी से बहस का सवाल है तो अभी उनकी वह स्थिति (हैसियत ) नहीं है।  वह बहस ही करना चाहते हैं तो मुझसे ही कर लें। और बेचारे दिग्गी एक चुप तो सौ चुप, क्योंकि वहां सेर के आगे सवा सेर जो था। 

                                         बड़े  का बड़प्पन 

    बिहार के पटना  में २७ अक्टूबर को तो नरेन्द्र मोदी की रैली पहले से ही तय थी और इसकी जानकारी राज्य प्रशासन और सरकार दोनों को हठी , फिर २६ और २७ अक्टूबर को राष्ट्रपति का कार्यक्रम लेकर क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजनैतिक ओछापन नहीं दिखाया ?लोग कह रहे थे कि नीतीश ने ऐसा महज इसलिए किया क्योंकि वह राष्ट्रपति की सुरक्षा का बहाना लेकर मोदी की रैली की संभावित भीड़ को कम करना चाहते थे। 
       यदि २७ की भाजपा की रैली में राष्ट्रपति की सुरक्षा के बहाने अड़ंगे डालने की कोशिश होती तो पहले से ही तल्ख़ चल रहे जदयू और भाजपा के रिश्तों में एक और टकराव होना स्वाभाविक था , लेकिन बड़ा तो बड़ा ही होता है और वह बड़प्पन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी यात्रा को सीमित कर के दिखा दिया।  अब राष्ट्रपति २६ को अपना कार्यक्रम निपटाकर उसी दिन शाम पटना से दिल्ली वापस हो जायेंगे। इसे कहते हैं बड़े का बड़प्पन , लेकिन नीतीश ने जो ओछापन दिखाया उससे  की नज़र में उनका कद तो घटा ही है। 

                                            साथ छोड़ते साथी 

     मुजफ्फरनगर दंगों से आहत और बदलते राजनैतिक माहौल के मद्देनज़र सोमपाल शाष्त्री ने समाजवादी पार्टी का लोकसभा टिकट लौटा दिया था। यद्यपि अभी तक यह तय नहीं था कि शाष्त्री किस पार्टी में जायेंगे लेकिन माना यह जा रहा है कि वह अपनी पुरानी  पार्टी भाजपा में ही वापस लौटेंगे , तो इसके साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई अन्य सपा नेताओं ने भी सपा को अलविदा कह दिया है। 
       बीते सप्ताह सपा के एक और बाहुबली सांसद तथा कैशरगंज क्षेत्र से सपा के लोकसभा उम्मीदवार ब्रजभूषण शरण सिंह ने भी सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है। अटकलें लगाई जा रही हैं कि बदली परिस्थितियों में  ब्रजभूषण शरण सिंह भी अपनी पुराणी पार्टी भाजपा में लौट सकते हैं और भाजपा उन्हें गोंडा या फैजाबाद से चुनाव मैदान में उतार सकती है। शायद राजनेता सियासी परिस्थितियों को बेहतर पहचानते हैं और वे विपरीत परिस्थितियाँ देखकर ही सपा का दामन झटक रहे हैं ।  यदि यह सच है तो क्या सपा का राजनैतिक भविष्य संकट में नहीं दिखाई दे रहा है ?

                                             आप की बढ़ती ताकत 

     अरविन्द केजरीवाल की "आम आदमी पार्टी " की ताकत का अंदाजा अब कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही होने लगा है। आप वास्तव में आम आदमी की पार्टी है और थोड़े से ही अन्तराल में उसने दिल्ली की नयी कालोनियों, झुग्गी बस्तियों,दैनिक कर्मियों, फेरी वालों और छोटे व्यवसायियों के बीच अपनी मजबूत जमीनी पकड़ बना ली है तो साथ ही संगठित जनशक्ति भी अर्जित की है। आज दिल्ली की स्थिति यह है कि कोई भी प्रशासनिक अधिकारी अब आप कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का साहस नहीं कर पाता।
     यद्यपि अभी यह संभव नहीं दीखता कि आप चुनाव में इतनी सीटें हासिल कर ले कि दिल्ली में उसकी सरकार बन जाय , लेकिन राजनैतिक विश्लेषकों का आकलन है कि विधानसभा चुनाव में आप इतनी ताकत तो हासिल ही कर लेगी कि सरकार भाजपा या कांग्रेस में से जो भी बनाए, उसे बहुमत के लिए "आम आदमी पार्टी " के सहयोग की दरकार तो होगी ही। केजरीवाल ने कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही वोटों में सेंध लगाई है इसलिए आप को लेकर दोनों पार्टियां परेशान हैं।


                 

                                                                                                                                                                                      बिरादरी बनाम सरकार 

         बीते हफ्ते रघुराज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा भैया को अखिलेश मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री के ओहदे से फिर नवाजा गया। उल्लेखनीय है कि  कुंडा में सीओ हत्याकांड को लेकर आरोपों से घिरे रघुराज को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देना पडा था। जांच में राजा भैया के खिलाफ आरोप साबित नहीं हुए लेकिन मंत्रिमंडल में पुनः वापसी के लिए उन्हें लंबा इंतज़ार करना पडा। मायावती सरकार की राजा भैया के खिलाफ सख्ती के समय जो क्षत्रिय समाज रघुराज प्रताप सिंह का पक्ष  लेकर एकजुट हुआ था , उस समाज में उनके फिर से मंत्री बनने पर स्वाभाविक उत्साह नज़र नहीं आया। 
      वजह है मुजफ्फरनगर साम्प्रदायिक दंगों के सिलसिले में मेरठ के क्षत्रिय बहुल खेड़ा गाँव की पंचायत में पुलिस लाठीचार्ज और ठाकुरों के खिलाफ मुकदमों का दर्जकिया जाना । उल्लेखनीय है कि जब सैकड़ों ठाकुरों के खिलाफ एक साथ मुकदमे दर्ज हुए  तो ठाकुरों ने राजा भैया से मिलकर इस मामले में मदद का अनुरोध भी किया था । यह मामला भले ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश या मेरठ से संबधित है , जहां राजा भैया का विशेष प्रभाव नहीं है लेकिन बिरादरी पर सरकार की ज्यादती की खबर सारे राज्य में ठाकुरों को सरकार के खिलाफ लामबंद कर सकती है ।अभी गत सप्ताह ही पूर्वांचल के बाहुबली सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह द्वारा सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने से इनकार को भी इसी सन्दर्भ में देखा जा रहा है। इस बार राजा भैया को मनाकर फिर सरकार में शामिल किया गया है तो उनका वजन भी पहले की अपेक्षा बढ़ा है । संभव है कि राजा भैया की मंत्रिमंडल में वापसी के पीछे ठाकुरों को संतुष्ट करने की सरकारी रणनीति हो लेकिन अब असली परीक्षा तो रघुराज प्रताप सिंह की ही होनी है क्योंकि उन्हें सरकार में रहते हुए अपनी बिरादरी को भी संतुष्ट करना है । फिलहाल बहुत आसान तो नहीं लगता यह  ।
                                                                                                                    _एस .एन .शुक्ल  

Thursday 10 October 2013

क्या सीबीआई विश्वस्त जांच एजेंसी है ?

                           क्या सीबीआई विश्वस्त जांच एजेंसी है ?


    बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाले मामले में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव व अन्य आरोपियों को दोषी ठहराने और उन्हें सजा दिलवाने का सर्वाधिक श्रेय सीबीआई को ही जाता है, तो दूसरी और आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के आरोपी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तथा बसपा सुप्रीमो मायावती को क्लीन चित देने वाली भी सीबीआई ही है। लम्बे समय से सत्ता द्वारा सीबीआई का दुरुपयोग किये जाने के आरोप लगाए जाते  रहे हैं , ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या सीबीआई जांच में पक्षपात करती है? क्या उसे विश्वस्त जांच एजेंसी माना जा सकता है?

सीबीआई स्वाधीन नहीं है 

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  पहले तो केवल इस तरह के आरोप ही लगते थे लेकिन जब पिछले दिनों राहुल गांधी ने खुद स्वीकार कर लिया कि सीबीआई के काम में सरकार का हस्तक्षेप रहता है तो फिर सवाल उठाने की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है। सीबीआई को  सरकारी दबाव से मुक्त किये जाने की मांग अभी पिछले दिनों ही बड़े जोर-शोर से उठी थी लेकिन सरकार उसे मुक्त करने को तैयार नहीं है। आज कांग्रेस सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है तो कल आने वाली सरकार भी वैसा ही करेगी। दोषी बचाए जाते रहेंगे और निर्दोष विरोधियों को फंसाने तथा डराने के लिए सरकार इस जांच एजेंसी का मनमाना उपयोग करती रहेगी। हाँ प्रायः आम जनता से जुड़े मामलों में सीबीआई ईमानदारी से ही काम करती है लेकिन आखिर वहां भी तो काम करने वाले सरकारी नौकर ही हैं , सरकार उन्हें प्रोन्नति दे सकती है , उन्हें विशेष ओहदों से नवाज सकती है तो उनका अहित भी कर सकती है।  फिर भला सीबीआई के अधिकारी कैसे जा सकते हैं सरकार के खिलाफ ?

दुरुपयोग तो होता है सीबीआई का

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     सत्ता पुलिस,प्रशासन और अपने आधीन जांच एजेंसियों का हमेशा मनचाहा उपयोग करती रही है।  पहले राजनीति में अच्छे और ईमानदार लोग ज्यादा थे , वे समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ करते थे।  तब भी जांच एजेंसियों पर दबाव रहता था लेकिन वह नाममात्र का था लेकिन अब जब राजनीति के बहुतायत हिस्से पर अपराधियों और दागियों का ही कब्जा है तो आप यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि सत्ता में पहुँच चुके ऐसे लोग सीबीआई का दुरुपयोग नहीं करेंगे ? आम आदमी को तो नागरिक पुलिस से  न्याय नहीं मिलता और रसूखदार , पैसेवाला आरोपी ही नहीं अपराधी होते हुए भी सीना तान कर चलता है। यही हाल जिलों पर भी है,राज्य स्टार पर भी और केन्द्रीय स्टार पर भी। फिर यदि ऊपर ऐसा खेल होता है , सरकार सीबीआई का दुरुपयोग करती है तो आश्चर्य कैसा ?

  सारे कुएं में भांग है 

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     जब हम जनप्रतिनिधि चुनते समय साफ़-सुथरे और ईमानदार उम्मीदवारों के पक्ष में नहीं खड़े हो पाते , जब हम अपराधियों और बाहुबलियों को सत्ता की सीढियां चढाने में मददगार बनते हैं, तो फिर सत्ता से शुचिता की अपेक्षा क्यों करते हैं ? उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में हम देख चुके हैं कि जिन प्रशासनिक अधिकारियों को उनकी ही आईएएस एसोसिएशन ने महाभ्रष्ट घोषित किया था , उन्हें सरकार ने राज्य के सबसे बड़े प्रशासनिक पद मुख्यसचिव  पद पर बिठा दिया। क्या इससे सरकार की मंशा समझ में नहीं आती ? जब सरकार ही चाहती हो अर्थात सरकार चलानेवाले ही चाहते हों  कि अधिकारी भ्रष्ट तरीके से कमायें और उन्हें भी हिस्सा दें , तो फिर तो ऐसा ही चलना है। 
      आजकल देश में सब कुछ बिकाऊ हो गया है।  राजनीति में ९० फीसदी से भी ज्यादा ऐसे लोग हैं जिन्होंने पैसों और सत्ता सुख के लिए अपना ईमान तक बेच दिया है। ऐसे लोग ईमानदार लोगों को जिम्मेदार पदों पर ही नहीं टिकने देंगे , यही वजह है कि अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए ईमानदार अधिकारी भी मजबूरन बिक रहे हैं।

  बहुत मुश्किल है सुधार 

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       सारा सिस्टम इतना अव्यस्थित हो चुका है कि जल्दी सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। दरअसल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सबसे अधिक संवैधानिक खामियां भी हैं। संसद सबसे ऊपर है, आखिर क्यों ? जिस लोक अर्थात जनता के मतों से निर्वाचित होकर पहुँचने वाले जनप्रतिनिधियों को मिलाकर संसद का गठन होता है वह जनता सर्वोच्च क्यों नहीं ? अभी पिछले दिनों ही सरकार अपराधी जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए अध्यादेश ले आयी।  वह तो यदि राष्ट्रपति ने सवाल न उठाये होते तो अब तक अध्यादेश क़ानून बन गया होता और शायद लालू यादव जैसे लोग अब भी संसद में सबको ठेंगा दिखा रहे होते। 
         केवल केंद्र सरकार ही क्यों, अपने आस-पास ही देखिये कई राज्य सरकारें वोटों की लालच में अपराधियों पर से मुकदमे वापस ले रही हैं। वे अपराधी फिर मनमानी करेंगे , सामाजिक समरसता को पलीता दिखाएँगे और हम कुछ नहीं कर सकते।  इस निरीहता के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं।  जब तक हम जाति-धर्म के नाम पर स्वार्थी नेताओं के पीछे भागते रहेंगे तब तक वे इसी तरह मनमानी करते रहेंगे। 

     किससे उम्मीद करें ?

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    कुर्सी पर जो भी आता है, वही खून का प्यासा है। जहां बदलाव के लिए आन्दोलन खडा हुआ , जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया। केंद्र से लेकर राज्यों तक जनता ने सत्ता बदली।  एक बार नहीं कई-कई बार , लेकिन हर बार उसे छला गया। सत्ता तो बदली लेकिन व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ। व्यवस्था बदलने के दावेदार खुद उसी व्यवस्था का हिस्सा बनकर वही सब , बल्कि अपने पूर्ववर्तियों से भी कहीं अधिक अनीतियाँ बरतने लगे।    यही वजह है कि अब कोई भी सुधारवादी आन्दोलन खडा भी होता है तो जनता उसे आशंका की नज़र से देखने लगती है। वह भी जानती है कि आन्दोलन की बैसाखी के सहारे ये भी सत्ता तक पहुँचना चाहते हैं। शायद यह सच भी है क्योंकि  व्यवस्था परिवर्तन के बड़े पैरोकार अरविन्द केजरीवाल ने पिछले दिनों जब पार्टी खादी कर ली और अब दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं तो क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह भी सत्ता पाने के लिए ही छटपटा रहे थे। दिल्ली की सत्ता पाकर न तो वह