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Thursday 4 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्तमान लोकतंत्र -1

देश ही नहीं, दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं गांधी 

                                         - विजय कुमार सिंह 
                                 गांधीजी  व्यक्ति  ही  नहीं   विचार  थे , और विचार कभी मरते नहीं। विचारों को सीमाओं में भी नहीं बाँधा जा सकता , इसलिए गांधीवाद और गांधी दर्शन भी सीमाओं से परे है। कोई मनीषी कभी नहीं मरता और इसका इससे बड़ा दूसरा प्रमाण क्या हो सकता है कि किसी भी रचनाकार, लेखक और विचारक के मृत्योपरांत भी उसके नाम के साथ स्वर्गीय  का प्रयोग कभी नहीं किया जाता।वह अपने सृजन, अपने विचारों में जन- जन के बीच सदैव जीवित रहता है। फिर भी रचनाकारों की सीमाएं होती हैं , वे जिस भाषा में भी सृजन करते हैं उस भाषा का ज्ञान रखने वालों के बीच ही उनके विचारों का आलोक रह पाता है , और कभी किन्हीं उत्कृष्ट रचनाओं के भाषानुवाद प्रकाशित होने पर ही वह दूसरी भाषाओं  के जानकारों तक पहुँच पाता  है।किन्तु गांधीजी के लिए जाति , धर्म,सम्प्रदाय, भाषा  या देश ऐसी छोटी सीमाएं हैं जिनमें उनके विराट स्वरुप का समा पाना ही संभव ही नहीं है। 
       अभी हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि गांधीजी का दर्शन सारी दुनिया के लिए प्रेरक है। वह स्वयं अपने आप को गांधीजी का अनुगामी कहते हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह कि गांधी जहां पैदा हुए , जिस राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे , जिस राष्ट्र और समाज के उत्कर्ष के लिए अपने सम्पूर्ण भौतिक सुखों का परित्याग कर दिया , उस भारतवर्ष में ही न केवल उनकी ह्त्या हुयी , वरन उनके बाद उन्हीं के नाम पर राजनीति करनेवालों, उनके नाम का सहारा लेकर सत्ता की सीढ़ियाँ तय करने वालों ने लगातार गांधीजी के सिद्धांतों, विचारों और उनकी उन्नत भारत की परिकल्पनाओं की हत्याएं की हैं। आज सारा देश हिंसा, अपराध, व्यभिचार, झूठ, पाखण्ड, भ्रष्टाचार और अनैतिकता से त्रस्त है और सच यह है कि इन समस्याओं से मुक्ति पाए बिना भारत के लोकतंत्रात्मक स्वरुप को सुरक्षित बनाए रख पाना संभव भी नहीं है। समाधान का उपाय केवल और केवल गांधीवाद है, इसलिए स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष बाद इस देश के लिए गाँधीजी पुनः अनिवार्य रूप से प्रासंगिक हो उठे हैं। आवश्यक यह है कि इस दिशा में जागरुक जनता हो, देश हो , क्योंकि स्वार्थ में डूबे सत्ताधारियों और सत्ता प्राप्त करने के लिए साजिशें कर रहे राजनैतिक तंत्र से अपेक्षाएं करना बेमानी है।
     इस दिशा में पहल होती दिख रही है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गाँधी भवन स्थित करन भाई सभागार में गांधी जयन्ती की पूर्व संध्या पर आज पहली अक्टूबर को " पत्रकारों, वेब एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रतिनिधियों तथा कलमकारों के राष्ट्रीय साझा मंच " जर्नलिस्ट्स , मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन " द्वारा आयोजित सेमीनार " गाँधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र " का आशय और विषयवस्तु  उसी पहल का प्रारम्भिक चरण माना जा सकता है। सामाजिक सरोकारों के प्रति किन्हीं अन्य की अपेक्षा मीडिया की प्रतिबद्धता कहीं अधिक है। मीडिया लोकतंत्र का सजग और जागरुक प्रहरी माना जाता है तो अघोषित चौथा स्तंभ भी। वह सचेतक भी है और मार्गदर्शक भी। समाज को सचेत करने और दायित्वों तथा अधिकारों के प्रति जागरुक करने की जिम्मेदारी भी मीडिया के ही कन्धों पर ही है। कभी हम और हमारा सोच भी गलत हो सकता है इसलिए जब मसले गंभीर हों तो मीडिया उन मसलों पर विचारकों और बुद्धिजीवियों की राय भी आमंत्रित करता रहा है।
       कालान्तर में यह परम्परा समाप्त सी होने लगी थी और उसी का परिणाम है कि राजनीति और सत्ता , प्रतिभाओं की बजाय तिकड़मी, अवसरवादी, भ्रष्ट और बेईमान लोगों के हाथों में चली गयी। ऐसे जनजागरण वाले मुद्दों पर होने वाले सेमीनार और विचार गोष्ठियों का निष्कर्ष  केवल समाचारों तक सीमित न रहकर आम पाठकों तथा जनता तक भी पहुँचना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती और स्वस्थ जनतंत्र की पहली शर्त यही है कि बुद्धिजीवियों की सूनी जाय और उस पर अमल भी किया जाय। चूंकि समाचारों पर अब शासन और प्रशासन भी वह तत्परता नहीं दिखाता जो आज से दो- तीन दशक पहले तक दिखती थी , इसलिए भी आवश्यक हो गया है कि जनसमस्याओं और जनहित के मुद्दों को सार्वजनिक मंच पर अभिव्यक्ति मिले और उनमें जन साधारण की भागीदारी के लिए मीडिया पहल करे।
      हम कारपोरेट घरानों और उद्द्यमियों के हाथों बंधक मीडिया से यह अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि वे शुद्ध रूप से व्यवसायी हैं जो सबसे पहले अपना आर्थिक हित देखते हैं। आज का स्वतंत्र और वास्तविक मीडिया तंत्र वही है जो लघु और मध्यम समाचार माध्यमों की श्रेणी में गिना जाता है। हम जन सरोकारों को सार्वजनिक मंच प्रदान करने के लिए संगठन के प्रयास को एक बार पुनः साधुवाद देते हैं और " लोकसेवा ब्यूरो " के इस अंक में संगठन द्वारा आयोजित गोष्ठी " गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र " विषय के विचारों को विशेष सामग्री के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। हमें अपने सुधी पाठकों से भी इस सन्दर्भ में प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा है।
       -  विजय कुमार सिंह 

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