Followers

Monday 15 October 2012

मीडिया पर हमला

                                          मीडिया पर हमला 

  अशोक कुमार सिंह 

 लखनऊ 17 अगस्त।अलविदा की नमाज होने तक शहर में ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था कि इस तहजीब के शहर में कुछ अघटित होने वाला है। जो कुछ भी हुआ वह अप्रत्याशित था। हमेशा की तरह आम मुसलमान मस्जिदों से नमाज पढ़कर, अपनों और अवाम की खुशहाली की दुआ मांगकर बाहर निकल रहा था। शायद उन्हें भी किसी अनहोनी की आशंका नहीं रही होगी, नहीं तो वे अपने साथ अपने बच्चों तक को लेकर क्यों आते। रामजान के महीने का मुसलमानों का सबसे ख़ास और सबसे अजीम दिन, इसलिए मीडिया के कैमरे भी कल के अखबारों और समाचारों के लिए छायाचित्र और चलचित्र उतारने को बेताब थे। नमाज के समय और फिर उसके बाद अपने घरों की और लौट रहे लोगों , उनके त्यौहार की खुशियों भरे चेहरों को दर्शाना चाहता था मीडिया। कहीं कोई तल्खी या वादविवाद की बात भी नहीं थी। यद्यपि महज एक सप्ताह पहले देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में मीडिया और पुलिस वालों के साथ उग्र मुस्लिम समुदाय ने जो बदसलूकी की थी वह जेहन में तो था, लेकिन लखनऊ में भी कुछ ऐसा होगा या हो सकता  है इसकी आशंका किसी को भी नहीं थी।
      सब कुछ ठीक ठाक था। लखनऊ की जो संस्कृति है, जो तहजीब है उसी तरह आम मुसलमान और मीडियाकर्मियों के बीच भी दुआ-सलाम और ईद पर आने, बुलाने की चर्चा थी। अचानक एक भीड़ उमड़ी, शायद ये लोग नमाजी नहीं थे, लेकिन वे लग मुसलमान ही रहे थे। उनके हाथों में लाठी-डंडे थे और लग रहा था जैसे वे कहीं धावा बोलने, किसी पर हमला करने जा रहे थे। उनके आक्रामक तेवरों से आम मुसलमान भी भौचक्का था। उसे भी यह समझ नहीं आ रहा था कि वे लोग इस कदर गुस्से में क्यों हैं। हम लोग अर्थात हमारे पत्रकार और छायाकार साथी उनसे कुछ पूछने, उग्रता की वजह जानने के लिए आगे बढे और सबसे पहले उनके आक्रोश का वे ही निशाना बने। फिर तो  प्रायः हर मीडियाकर्मी निशाने पर था और विशेषकर छायाकार, क्योंकि उनके कैमरे दूर से ही उनकी पहचान करा रहे थे कि वे मीडिया वाले हैं। कैमरे तोड़े गए, मीडिया से मारपीट की गयी। शर्मशार हुआ लखनऊ क्योंकि इससे पहले अदब के इस शहर में ऐसी बेअदबी पहले कभी नहीं हुयी थी।
       बाद में उन उग्र लोगों ने जो कुछ भी किया, शायद वह पूर्व नियोजित था जैसे बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध और जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्तियों पर हमला, उन्हें ईंट पत्थर चलाकर अपमानित करना और हथौड़े फावड़ों से उन्हें तोड़ना। नमाज़ के साथ काफी संख्या में पुलिस बल भी तैनात था। सुरक्षा एजेंसियां इस अनहोनी घटना को रोकने के लिए पहले से ही चक चौबंद थी। अप्रिय हादशा न हो प्रशासन भी इस घटना का पूर्वाभास लगा चुका था लिहाजा उदासीनता या लापरवाही का आरोप भी नहीं लगाया जाना चाहिए। ये दीगर बात है कि उग्र भीड़ पर पुलिस अपना रोल अदा करती इससे पहले ही घटनास्थल पर तैनात हल्का अधिकारी को ऊपर की ओर से तत्काल फोन करके इस बात का स्पस्ट निर्देश दिया गया की प्रशासन की ओर से कोई भी ऐसी कार्यवाही नहीं की जाएगी जिससे आक्रोश और तनाव बढे। वहीँ होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। इस अदब-ओ-अमन के शहर लखनऊ को धार्मिक उन्माद में जबरन धकेल दिया गया। अल्लामा इकबाल का तराना कि 'मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' झूठा साबित कर दिया उन्हीं के चाहने वालों ने।




Thursday 11 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र - 5

                        हम अपराधी हैं गांधीजी के 

   जिस व्यक्ति ने देश  की स्वाधीनता के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन और स्वाधीनता के पश्चात अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए हों, यदि उसे वह स्वाधीन  राष्ट्र भूल जाय तो क्या इसे कृतघ्नता की अति नहीं कहना चाहिए? महात्मा गांधी ने अपने लिए तो क्या अपने परिवार के लिए भी स्वतंत्र भारत राष्ट्र से कुछ नहीं चाहा था और कृतघ्नता की पराकाष्ठा यह कि उसके बाद जिन सियासतबाजों ने गांधी के नाम पर राजनीति की , खुद को उनका अनुयायी बताते रहे, उनहोंने भी महात्मा गाँधी के परिवार और परिजनों को भारतीय राजनीति में प्रवेश नहीं करने दिया। हम अर्थात हम भारतवासी भी कम दोषी नहीं हैं क्योंकि देश के 95 फीसदी से भी ज्यादा लोग यह नहीं जानते और न ही यह जानने की कोशिश की कि जिस व्यक्ति ने देश और देशवासियों के हित के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उसका परिवार इस स्वाधीन भारत में कहाँ और कैसी हालत में है।
      सत्ता और शासक का अपना स्वभाव होता है। वह स्वयं को सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान मानता है। वह समझता है कि सिर्फ वही सही है और वह जो कुछ भी कर रहा है वही ठीक है। रावण और राम राज्य में बहुत अधिक अंतर मानना उचित भी नहीं है क्योंकि राजा रावण हो तो सीता का अपहरण होगा और राजा राम हो तो सीता का परित्याग होगा। न्याय की अपेक्षा और सम्पूर्ण न्याय की अपेक्षा आप रामराज्य में भी नहीं कर सकते क्योंकि यदि किसी को न्याय मिलेगा तो किसी के साथ अन्याय भी अवश्य होगा। शायद यही सोचकर स्वाधीन भारत के लिए समाजवादी लोकतंत्र का चयन किया गया था कि शासक आम जनता होगी , वह अपने विवेक के अनुसार व्यवस्था का संचालन करने के लिए जनप्रतिनिधियों का चयन करेगी। जनप्रतिनिधि जनता और जनहित के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह होंगे, लेकिन क्या ऐसा हो रहा है?
      स्वाधीन भारत के पैंसठ वर्षों में देश की राजनैतिक प्रगति यह है कि तंत्र दिनोंदिन शक्तिशाली होता गया और लोक निरीह बना दिया गया। राजनेता व्यापारी बन गए, आम जनता के मताधिकार को भी क्षेत्रीयता, जातीयता, साम्प्रदायिकता आदि के खांचों में बाटकर पथ भ्रमित कर दिया गया। जिस तरह व्यापारी अपने खराब माल को भी अच्छा बताकर ग्राहकों के सर मढ़ने का प्रयास करता है उसी प्रकार सियासतबाजों  ने भी खुद को और खुद के दलों के सिद्धांतों को दूसरों से बेहतर बताकर राजनीति का व्यवसायीकरण कर दिया। सारा एश भ्रमित होकर राजनेताओं के चक्रव्यूह में फँसा  है। किसी से भी बात करें, भ्रष्टाचार को कोसता नज़र आता है, किन्तु उन्हीं से पूछिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या कर रहे हैं , तो किसी के भी पास उत्तर नहीं है। आम आदमी का जवाब होगा कि वह कर ही क्या सकता है। यदि यही गांधीजी ने भी सोचा होता , यही स्वाधीनता सेनानियों और क्रांतिकारियों ने सोचा होता तो शायद यह देश कभी भी गुलामी से मुक्त नहीं हो पाता।
      गांधीजी, उनके सहयोगियों और क्रांतिकारियों के अथक प्रयासों से प्राप्त हुयी आज़ादी को यदि हम अक्षुण नहीं रख पा रहे हैं, यदि आज़ादी हमारी अकर्मण्यता के चलते भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती जा रही है तो क्या हम स्वयं अपराधी नहीं हैं? हम विरोध नहीं करना चाहते और चाहते हैं कि सब कुछ ठीक हो जाए, तो क्या यह संभव है? यदि ऐसा ही गांधीजी और स्वाधीनता सेनानियों ने भी सोचा होता तो? हम अपनी विवशताओं का रोना रोते हैं लेकिन क्या उनके सामने विवशताएँ नहीं थीं? आज जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और जो उनका समर्थन कर रहे हैं, उन सबको तिरस्कृत किये जाने की आवश्यकता है, यह साहस कौन जुटाएगा ? ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर सारा देश मौन है। जो ऐसे विरोधों की मुहीम चलाते भी हैं , उनको समर्थन देने के बजाय उनमें ही दाग खोजने की कोशिश होने लगती है।
      अभी पिछले दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का जनांदोलन जब उबाल पर था और सारे देश में " मैं भी अन्ना - मैं भी अन्ना " के स्वर गुंजायमान हो रहे थे , उसी समय सत्तारूढ़ दल के एक प्रवक्ता ने कहा , " अन्ना तुम भी ईमानदार नहीं हो " इस वाक्य का सीधा अर्थ यह निकलता है कि मैं बेईमान हूँ तो तुम भी ईमानदार नहीं हो। पार्टी प्रवक्ता का अर्थ पार्टी पार्टी का मुह होता है, मतलब यह कि उस प्रवक्ता ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि उसका दल बेईमान है। फिर भी देश के, देश मीडिया तंत्र के किसी भी व्यक्ति ने यह नहीं पूछा कि यदि तुम बेईमान हो तो तुम्हें सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? इतना ही नहीं , अन्ना  टीम के सदस्यों पर हमले करने के लिए बाकायदा किराए के गुंडों को लगा दिया गया और आरोप लगाए जाने लगे कि अन्ना आन्दोलन को आर .एस .एस . का समर्थन प्राप्त है। मतलब भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज को भी साम्प्रदायिक करार देने की साजिश और जनता के बीच से कहीं विरोध के स्वर नहीं। क्या इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि हम खुद भ्रष्टाचार को मौन समर्थन दे रहे हैं ?
      लूटतंत्र अंग्रेजों के समय भी अवश्य रहा होगा लेकिन उतना नहीं जितना कि इन दिनों है। कमजोरों पर अन्याय तब भी होता होगा लेकिन क्या आज उससे कम है ? तब विदेशी लूटते थे , आज उनकी मानस संतानें लूट रही हैं। जब गांधीजी ने विदेशी लुटेरों के खिलाफ विरोध का बिगुल बजाया था तब सारा देश उनके साथ उठ खडा हुआ था, आज जब देशी लुटेरों के खिलाफ कोई आवाज उठती है तो हम उसे नैतिक समर्थन देने का साहस भी नहीं करते , फिर  हम सब कुछ व्यवस्थित और ठीक हो जाने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? और यदि हम अन्याय , अनाचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का साहस नहीं कर सकते तो क्या हम स्वयं गुनहगार नहीं हैं ? गांधीजी के जन्मदिवस पर उनके चित्र और प्रतिमा पर माल्यार्पण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेना झूठी श्रृद्धांजलि है। यदि हम विरोध का साहस नहीं जुटा सकते , अन्याय, उत्पीड़न सहकर भी मौन हैं , गलत लोगों को व्यवस्था से बाहर करने की पहल नहीं करना चाहते , तो हम स्वयं अपराधी हैं और गांधीजी तथा गांधीवाद के विरोधी हैं।
                 - शर्मा पूरन 

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र - 4

राजनेताओं के स्वार्थ ने ही भुला दिया गांधीवाद 

  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चिंतन केवल भारत तक ही सीमित नहीं था। उनका चिंतन सम्पूर्ण विश्व और मानवता के हित का था। यह सच है कि शायद हिंसात्मक आन्दोलन से भारत को अंग्रेजों की परतंत्रता से शीघ्र मुक्त करा लिया जाता लेकिन वह हिंसा से प्राप्त आज़ादी के दुष्परिणामों से परिचित थे। वह नहीं चाहते थे कि आज़ादी के बाद उस हिंसा के अवशेषों से भारत का रूप विकृत हो, यही वह वजह थी कि गांधीजी ने देश को गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए अहिंसात्मक मार्ग अपनाया। तब भी देश ने आज़ादी के साथ ही विभाजन की त्रासदी का भी सामना किया। उस विभाजन में लाखों हिन्दू-मुसलमानों का रक्त बहा। वह कषक आज भी बरकरार है और देश में जहां कहीं भी साम्प्रदायिक फसाद होते हैं उनके पीछे वही मानसिकता आज भी दिखाई देती है। बाद में पाकिस्तान का विभाजन और बांग्लादेश का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय भी हिंसा की कोख से ही हुआ था और उसके बाद से लेकर आज तक बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में शान्ति स्थापित नहीं हो पायी, क्या यह उसी हिंसात्मक प्रवृत्ति की परिणति नहीं है? क्या यह सब देखने के बाद भी गांधीजी के अहिंसात्मक आन्दोलन के बारे में कोई प्रश्न , कोई शंका करने की गुंजाइश शेष रह जाती है?
     उनका दर्शन सम्पूर्ण मानवता का हित था, इसीलिये वह तब भी हिंसा का विरोध करते रहे जब अंग्रेजों की कुटिल मानसिकता के कारण जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ और लाखों भारतीयों को बेवजह मौत के घाट उतार दिया गया। अंग्रेज इस देश पर अनाधिकृत और बलात काबिज थे , तब भी गांधीजी नहीं चाहते थे कि भारत के लोग उनके खून से अपने हाथ रंगें।प्रगति और उसके स्थायित्व का हेतु शान्ति में है, हिंसा में नहीं। आज भारत में जो भी हिंसात्मक घटनाएँ हो रही हैं या आज़ादी के पैंसठ वर्षों के बीच हुयी हैं, उनका कारण राजनैतिक स्वार्थपरता है। वे जो अपनी स्वार्थपरता के कारण मानव रक्त के प्यासे हैं, उनसे राष्ट्र और समाज हित की अपेक्षा करना भूल है और वह भूल हम लगातार करते आ रहे हैं। जो वर्ग और सम्प्रदाय की दीवारें खड़ी कर राष्ट्र की समरसता को नष्ट करने पर आमादा हैं , उन्हें राष्ट्र का हितचिंतक कैसे माना जा सकता है? काश ! यह बात देशवासियों और मतदाताओं की भी समझ में आती और वे जातीयता, साम्प्रदायिकता तथा क्षेत्रीय हितों से ऊपर उठाकर सम्पूर्ण राष्ट्र और मानवता के हित में सोच पाते। गांधीजी का चिंतन विशद था और हम अपनी संकीर्णताओं से बाहर नहीं आ पा रहे हैं, यही कारण है कि न तो हम गांधीवाद के प्रति आस्थावान रह गए हैं और न ही गांधीजी के प्रति।
      इस विकृति को मजबूत करने में भारत की राजनीति का बड़ा योगदान है। सम्प्रदाय और जातिवाद के पक्षधर दलों के बाद क्षेत्रीय हितों की राजनीति करने वाले कितने ही दल अस्तित्व में आये और फूले-फले। यह कहना भी गलत होगा कि शिक्षा के अभाव के कारण लोग ऐसे दलों के बहकावे में आ गए। शिक्षित समाज भी इस विकृति के लिए कम दोषी नहीं है।यह बात अलग है कि शिक्षित समुदाय नेतृत्व के ज्यादा निकट हो जाता है और ज्यादा लाभ भी उठाता है, किन्तु क्या वे अपने निजी स्वार्थों के लिए आम आदमी और राष्ट्र के साथ घात नहीं कर रहे हैं? कालान्तर में वोट की राजनीति और क्षेत्रीय दलों की प्रतिद्वंदिता में राष्ट्रीय कहे जाने वाले दलों ने भी वही नीति अपनाई और राजनेताओं के सत्ता मोह में गांधीवाद क्या गांधीजी स्वयं भी तिरोहित कर दिए गए।
     गांधीजी को भारतीय मुद्रा पर अंकित कर दिया गया और प्रायः हर बड़े शहर के चौराहे पर गांधीजी को पत्थर की मूर्ती के रूप में स्थापित कर राष्ट्र ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली। हर वर्ष 2 अक्टूबर अर्थात जन्मदिवस और 30 जनवरी अर्थात निर्वाण दिवस पर इन गांधी प्रतिमाओं पर तथाकथित राजनेता पुष्पांजलि अर्पित कर और कथित गांधीवादी गोष्ठियों का आयोजन कर और अखबारों में प्रेस विज्ञप्तियाँ भेजकर अपने अपना कर्त्तव्य पूर्ण मान लेते हैं। यह परम्परा बन गयी है। इन दो तिथियों के अतिरिक्त वर्ष भर ये प्रतिमाएं पक्षियों की बीट से सनी रहती हैं। अनेक प्रतिमाओं के चबूतरों पर दारूबाजों की बोतलें लुढ़कती नजर आती हैं, जुआरिओं द्वारा ताश की गड्डियां फेटी जाती हैं या युवा प्रेमी युगलों का प्यार परवान चढ़ता और बिखरता है। पुलिस के जवान कहीं सूट - बूट  से लैस सिगरेट के काश खीचते नजर आते हैं, या गिरहकट जेबतराशी का रोजनामचा तैयार करते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत है जिसे प्रशासनिक अमला भी अनदेखा करता है और राजनेता भी। वे क्यों रोकें- टोकें, क्यों अपने मतदाताओं को नाराज करें। क्या यही है राष्ट्रपिता का सम्मान?
      देश के राजनेताओं ने गांधीजी के नाम का इश्तेमाल प्रायः वोट हथियाने के अश्त्र के रूप में किया है। देश की प्रायः सम्पूर्ण राजनीति का आधार ही झूठ है। वे संवैधानिक पदों की निष्ठा की शपथ लेते हैं और बाद में उस शपथ के सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। यदि ऐसा न होता तो देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा भी नहीं होता। सच यह है कि राजनीति के वर्त्तमान स्वरुप के बरकरार रहते गांधीवाद और गांधीजी के सपनों के भारत के साकार हो पाने की कल्पना करना रेत पर रेत का महल तैयार करना है और इसके सिवा कुछ नहीं।
                                                                            - डॉ . हरीराम त्रिपाठी 

Friday 5 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र-3

            बाबा- ए - कौम महात्मा गाँधी 


दुनिया की जिन सख्शियतों ने शोहरत की बुलंदियां हासिल कीं उनमें गांधीजी का नाम सबसे अज़ीम है। उनहोंने सारी ज़िंदगी अहिंसा के नाम कर दी , सारी दुनिया को अहिंसा का उपदेश देते रहे और खुद हिंसा का शिकार होकर शहादत पायी। मालदार परिवार के तीन भाइयों में सबसे छूते होने की वजह से उन्हें परिवार का प्यार और परवरिश दोनों ही अच्छी मिलीं। बचपन माँ की परवरिश में ज्यादा गुजरा जो एक धार्मिक महिला थीं। उनसे सूनी सत्यवादी हरिश्चंद्र और श्रवण कुमार की कहानियों का उन पर गहरा असर हुआ और वह उनके साथ सारी ज़िंदगी रहा।
     जाति से वैश्य होने के बावजूद उनके परिवार का माहौल पूरी तरह सामाजिक था। उनके दादा जूनागढ़ रियासत के दीवान थे इसलिए उनके यहाँ लोगों का आना- जाना ज्यादा था जिनमें हिन्दू और मुसलमान सभी होते थे। इसी माहौल ने उन्हें पूरी तरह धर्म निरपेक्ष बनाने में भारी मदद की। देश में अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद वह वकालत की तालीम हासिल करने इंग्लॅण्ड गए और वहां से बैरिस्टर बन कर वापस लौटे। वह चाहते  तो उन्हें कोई बड़ा सरकारी ओहदा भी मिल सकता था या वह खुद वकालत कर शोहरत और पैसा कमा सकते थे लेकिन अंग्रेज सरकार की ज्यादती और जुल्म तथा भारत के लोगों की दीन - हीन दशा ने उन्हें द्रवित किया और उन्होंने हिन्दुस्तान को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद कराने का फैसला किया। एक हिन्दू पतिवृता औरत की तरह उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा बाई जिन्हें लोग बा के नाम से जानते थे , ने भी गांधीजी को पूरा सहयोग किया और उनकी ताकत बन गयीं।
     हालांकि उस दौर में अंग्रेजों की मुखालफत शुरू हो चुकी थी लेकिन वह विरोध एकजुट नहीं था जिसका फ़ायदा अंग्रेजों को मिल रहा था और वे उन विरोधों का आसानी से दमन कर देते थे। इसकी वजह यह थी की मुखालफत करनेवालों का कोई नेता नहीं था जो उन्हें संगठित कर सके। इसी बीच जलियानवाला हादसा हो गया जिसमें अंग्रेजों ने हैवानियत की हदें पार करते हुए हजारों लोगों को जिनमें बच्चे, बूढ़े और औरतें भी थीं गोलियों से भून डाला। यह कत्लेआम हिन्दुस्तानियों के दिलों में दहशत पैदा करने के लिये किया गया था। जवानों में इस घटना  के खिलाफ गुस्सा था तो आम आदमी में खौफ भी था।उस घटना ने गांधीजी को नयी सोच दी लेकिन सच के लिए उनका फैसला और पक्का हो गया। वह जानते थे कि निहत्थे हिन्दुस्तानी अंग्रेजों की गोलियों से तभी बचाए जा सकते   वे उनका  अहिंसात्मक विरोध करें, उनकी नीतियों का विरोध करें और यह विरोध सारे मुल्क की आवाज़ बन जाय।
    यह वह दौर था जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में फिरकापरस्ती के बीज बो चुके थे और हिन्दुओं- मुसलमानों के बीच नफ़रत की खाई चौड़ी होती जा रही थी। उस वक्त मुल्क को एक ऐसे लीडर, एक ऐसे रहनुमा की जरूरत थी जिस पर सब भरोसा कर सकें और जो सबको साथ लेकर चल सके। यह काम केवल वही आदमी कर सकता था जिसमें लालच न हो, सहन करने की ताकत हो, ईमानदारी हो और लीडर बनाने की काबिलियत भी हो। ये सारी खाशियतें गांधीजी में थीं। वह उच्च शिक्षा प्राप्त बैरिस्टर थे, तर्कों से अपनी बात साबित कर सकते और मनवा सकते थे और सबसे बड़ी सच्चाई की ताकत भी उनके साथ थी। जिसके साथ सच्चाई की ताकत होती है उसके साथ सारी कायनात के मालिक यानी कि खुदाई ताकत मानी जाती है। उसी ताकत की बदौलत बिना हथियारों की लड़ाई लड़े उन्होंने अंग्रेजों पर फतह हासिल की, मुल्क को गुलामी से आज़ाद कराया लेकिन वह अपनों से हार गए।
      उनके ज़ज्बे, उनके त्याग को सारे हिन्दुस्तान ने सलाम किया और उन्हें बाबा-ए - कौम ( राष्ट्रपिता ) के खिताब से नवाजा गया। काश, यह मुल्क उनके बताये रास्ते पर चल पाता , काश उनके ख़्वाबों का हिन्दुस्तान हकीकत में बदल पाता , तो यह मुल्क फिर सारी दुनिया का ताज़ होता। हम सवा सौ करोड़ हिन्दुस्तानी सारी दुनिया के सातवें हिस्से से भी ज्यादा हैं, हमारे पास जेहनियत की भी कमी नहीं है, लेकिन जिन हाथों में आज हिन्दुस्तान की बागडोर है उनकी नीयतें साफ़ नहीं हैं। जम्हूरियत से अच्छी कोई हुकूमत नहीं मानी जाती , लेकिन इन दिनों हिन्दुस्तान में जो जम्हूरियत है उससे तो बेहतर किसी तानाशाह की हुकूमत कही जा सकती है। वहाँ केवल एक ही लुटेरा होता है बादशाह, लेकिन इस मुल्क की हुकूमत में शायद हर कुर्सी लूट के लिए ही बनायी गयी है।बापू नहीं हैं लेकिन यह सब देखकर उनकी रूह को तकलीफ तो होती ही होगी। काश! हम इतना एहसानफरामोश न होते।
          - समीना फिरदौस 

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्तमान लोकतंत्र - 2

      नेताओं ने बेच दिया ईमान को 

                 
     
      जिनका ईमान ही बिक गया हो , वे क्या नहीं बेच सकते।जिनकी बदौलत देश को आज़ादी मिली, वे सौदागर नहीं थे। उन्हें आज़ादी की लड़ाई के बदले कुछ चाहिए भी नहीं था, लेकिन सियासी नेताओं की जात और जमात ने कुछ दिनों तक उन आज़ादी के दीवानों की कुर्बानियों को बेचा , फिर उनके नाम को बेचा और अब मुल्क को बेच रहे हैं। इस मुल्क में अंग्रेजों को पैर जमाने का मौक़ा तब मिला था  जब मुल्क के हुक्मरान ऐयाशियों में डूबे थे। आज हालात फिर वही हैं , रोज ही सियासताबाजों की, नौकरशाहों की रंगरेलियों की नयी- नयी कहानियां सामने आ रही हैं। जो खुद अपनी नीयत नहीं संभाल सकते वे मुल्क संभाल रहे हैं तो मुल्क के जैसे हालात होने चाहिए वैसे ही हो रहे हैं। हुक्मरानों ने खुद को विदेशी हाथों में गिरवी रख दिया है , देश और देशवासियों का सौदा तय हो चुका है। यह जो ऍफ़ डी आई का शोर सुनायी दे रहा है, वह देश के खुदरा बाज़ार पर विदेशी कब्ज़ा कराने की देशी साजिश है। जब सारी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रही थी , तब भी इस मुल्क में आर्थिक मंदी नहीं आयी जैसी कि अमरीका आदि मुल्कों में आयी थी। इसकी वजह यह थी कि यहाँ पूंजी का बहाव थमा नहीं था। हर चौराहे और नुक्कड़ पर, हर गली और मोहल्ले में छोटी- छोटी दुकानें और सुबह से लेकर शाम तक छोटी- छोटी जरूरत की चीजों की लगातार खुदरा बिक्री ने ही इस मुल्क को आर्थिक मंदी से बचाए रखा था।
      अब अगर विदेशी पूंजी देश के बाज़ारों पर काबिज होगी तो उनके बड़े- बड़े शापिंग माल खुलेंगे। चूंकि देश के हुक्मरान इस मुल्क के खुदरा व्यापार का विदेशी हाथों सौदा कर चुके हैं, इसलिए उनके हितों के लिए वे गली- मुहल्लों, नुक्कड़ और चौराहों की फुटकर और छोटी- छोटी दुकानों का धंधा बंद करा देंगे। तब बेरोजगारी और बढ़ेगी। वही ईस्ट इंडिया कंपनी का दौर एक बार फिर देश में दस्तक दे रहा है। तब एक मुल्क की एक कंपनी आयी थी , अब कितने मुल्कों की कितनी कम्पनियां आयेंगी इसका शुमार नहीं है। 
      हमारा ही पानी हमारे ही हाथों बंद बोतलों में बेचा जा रहा है 15 रुपये बोतल। जो मुफ्त मिला करता था क्योंकि वह अपना था , वही अब महंगे दामों पर खरीदना पड़ रहा है। पैसा विदेश जा रहा है क्योंकि बोतलबंद पानी बेचने वाली ज्यादातर कम्पनियां दूसरे मुल्कों की हैं। हमारे साथ क्या हो रहा है , इसे हम समझना नहीं चाहते। यह शुरुआत थी , कल जब और सारी चीजें भी ऐसे ही बिकेंगी तो हम और भी, इससे भी ज्यादा मजबूर होंगे। 
    गांधीजी के ख़्वाबों के हिन्दुस्तान में मुल्क की सत्तर फीसदी आबादी थी , उसकी खुशहाली के तरीके थे। गावों में रोजगार पैदा करने के तरीके थे, खेती करने वाले किसान थे, मज़दूर थे और मेहनतकश थे। अब वे वोट देने की मशीन बना दिए गए हैं। हर चुनाव में सियासतबाज उन्हें नए ख्वाब दिखाते हैं , वोट बटोरते हैं और अगले चुनाव तक के लिए उन्हें खुदा के भरोसे छोड़ कर अपनी तिकड़मों में लग जाते हैं। हर रोज एक नए घोटाले की खबर सामने आती है और वह घोटाला लाखों का नहीं , कभी करोड़ों का होता है , कभी अरबों का और कभी लाखों करोड़ का। ऐसे घोटालों के खिलाफ उठाने वाली सियासी आवाजें भी ईमानदार नहीं होतीं। जिनके हाथ में हुकूमत होती है वे लूटते हैं , जो मुखालिफ दल होते हैं वे इसलिए चिल्लाते हैं कि उन्हें नहीं मिला। आज देश में कोई ऐसी सियासी पार्टी नहीं बची जो सत्ता में पहुँची हो और उसके नाम मुल्क के लूट की हिस्सेदारी न दर्ज हो। 
     हर सियासताबाज अपने लिए मौक़ा चाहता है। मौक़ा नहीं मिलता तभी तक वह ईमानदार है। लूट के तरीके वे बताते हैं जो नौकरशाह हैं। सारे कुएं में ही भांग है और हमाम में सभी नंगे हैं। जब भ्रष्टाचार का विरोध होता है तो अवाम में उम्मीद जगती है। लोग उसके साथ जुटाने लगते हैं, खड़े होने लगते हैं लेकिन चाँद रोज बाद ही उनकी हकीकत भी सामने आ जाती है। अन्ना आन्दोलन में मेरी भी दिलचस्पी बढ़ी थी, लेकिन दूध का जला मट्ठा  भी फूंककर पीता है। हम इससे पहले के कई ऐसे आन्दोलन देख चुके हैं। उनका हस्र भी देख चुके हैं और जो विरोध कर रहे थे उनके दामन भी दागदार होते देख चुके हैं। हमारे पास भी लोग आते हैं , सबको और सबकी असलियत को समझ पाना भी आसान नहीं है, यही वजह है कि  किसी के साथ खड़े होने में भी कई बार सोचना पड़ता है। जो चहरे पर दिख रहा है वही दिल में भी है यह समझना और जान पाना आसान नहीं है।
      जर्नलिस्ट्स , मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन की और से जब उसके प्रोग्रामों में शिरकत की बात की गयी और उसका जो भी साहित्य मेरे सामने आया , उससे मुझे तसल्ली हुयी कि ये लोग वास्तव में मुल्क और अवाम की बहतरी के लिए आवाज उठा रहे हैं। मैं हर अच्छे काम में साथ हूँ और जहां यह मीडिया तंजीम मुझे बुलाना चाहेगी मैं हाज़िर होऊँगा। और भी लोगों को मुल्क और अवाम की हमदर्दी है , कुछ करने की चाहत है। आप कुछ अच्छा करने के लिए एक कदम बढ़ाएं , लाखों लोग आपका साथ देंगे , बशर्ते आप सच्चाई के साथ सच्चाई के लिए लड़ रहे हों।

                          - मौ .अबुल इरफ़ान मियाँ फिरंगीमहली

Thursday 4 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्तमान लोकतंत्र -1

देश ही नहीं, दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं गांधी 

                                         - विजय कुमार सिंह 
                                 गांधीजी  व्यक्ति  ही  नहीं   विचार  थे , और विचार कभी मरते नहीं। विचारों को सीमाओं में भी नहीं बाँधा जा सकता , इसलिए गांधीवाद और गांधी दर्शन भी सीमाओं से परे है। कोई मनीषी कभी नहीं मरता और इसका इससे बड़ा दूसरा प्रमाण क्या हो सकता है कि किसी भी रचनाकार, लेखक और विचारक के मृत्योपरांत भी उसके नाम के साथ स्वर्गीय  का प्रयोग कभी नहीं किया जाता।वह अपने सृजन, अपने विचारों में जन- जन के बीच सदैव जीवित रहता है। फिर भी रचनाकारों की सीमाएं होती हैं , वे जिस भाषा में भी सृजन करते हैं उस भाषा का ज्ञान रखने वालों के बीच ही उनके विचारों का आलोक रह पाता है , और कभी किन्हीं उत्कृष्ट रचनाओं के भाषानुवाद प्रकाशित होने पर ही वह दूसरी भाषाओं  के जानकारों तक पहुँच पाता  है।किन्तु गांधीजी के लिए जाति , धर्म,सम्प्रदाय, भाषा  या देश ऐसी छोटी सीमाएं हैं जिनमें उनके विराट स्वरुप का समा पाना ही संभव ही नहीं है। 
       अभी हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि गांधीजी का दर्शन सारी दुनिया के लिए प्रेरक है। वह स्वयं अपने आप को गांधीजी का अनुगामी कहते हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह कि गांधी जहां पैदा हुए , जिस राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे , जिस राष्ट्र और समाज के उत्कर्ष के लिए अपने सम्पूर्ण भौतिक सुखों का परित्याग कर दिया , उस भारतवर्ष में ही न केवल उनकी ह्त्या हुयी , वरन उनके बाद उन्हीं के नाम पर राजनीति करनेवालों, उनके नाम का सहारा लेकर सत्ता की सीढ़ियाँ तय करने वालों ने लगातार गांधीजी के सिद्धांतों, विचारों और उनकी उन्नत भारत की परिकल्पनाओं की हत्याएं की हैं। आज सारा देश हिंसा, अपराध, व्यभिचार, झूठ, पाखण्ड, भ्रष्टाचार और अनैतिकता से त्रस्त है और सच यह है कि इन समस्याओं से मुक्ति पाए बिना भारत के लोकतंत्रात्मक स्वरुप को सुरक्षित बनाए रख पाना संभव भी नहीं है। समाधान का उपाय केवल और केवल गांधीवाद है, इसलिए स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष बाद इस देश के लिए गाँधीजी पुनः अनिवार्य रूप से प्रासंगिक हो उठे हैं। आवश्यक यह है कि इस दिशा में जागरुक जनता हो, देश हो , क्योंकि स्वार्थ में डूबे सत्ताधारियों और सत्ता प्राप्त करने के लिए साजिशें कर रहे राजनैतिक तंत्र से अपेक्षाएं करना बेमानी है।
     इस दिशा में पहल होती दिख रही है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गाँधी भवन स्थित करन भाई सभागार में गांधी जयन्ती की पूर्व संध्या पर आज पहली अक्टूबर को " पत्रकारों, वेब एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रतिनिधियों तथा कलमकारों के राष्ट्रीय साझा मंच " जर्नलिस्ट्स , मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन " द्वारा आयोजित सेमीनार " गाँधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र " का आशय और विषयवस्तु  उसी पहल का प्रारम्भिक चरण माना जा सकता है। सामाजिक सरोकारों के प्रति किन्हीं अन्य की अपेक्षा मीडिया की प्रतिबद्धता कहीं अधिक है। मीडिया लोकतंत्र का सजग और जागरुक प्रहरी माना जाता है तो अघोषित चौथा स्तंभ भी। वह सचेतक भी है और मार्गदर्शक भी। समाज को सचेत करने और दायित्वों तथा अधिकारों के प्रति जागरुक करने की जिम्मेदारी भी मीडिया के ही कन्धों पर ही है। कभी हम और हमारा सोच भी गलत हो सकता है इसलिए जब मसले गंभीर हों तो मीडिया उन मसलों पर विचारकों और बुद्धिजीवियों की राय भी आमंत्रित करता रहा है।
       कालान्तर में यह परम्परा समाप्त सी होने लगी थी और उसी का परिणाम है कि राजनीति और सत्ता , प्रतिभाओं की बजाय तिकड़मी, अवसरवादी, भ्रष्ट और बेईमान लोगों के हाथों में चली गयी। ऐसे जनजागरण वाले मुद्दों पर होने वाले सेमीनार और विचार गोष्ठियों का निष्कर्ष  केवल समाचारों तक सीमित न रहकर आम पाठकों तथा जनता तक भी पहुँचना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती और स्वस्थ जनतंत्र की पहली शर्त यही है कि बुद्धिजीवियों की सूनी जाय और उस पर अमल भी किया जाय। चूंकि समाचारों पर अब शासन और प्रशासन भी वह तत्परता नहीं दिखाता जो आज से दो- तीन दशक पहले तक दिखती थी , इसलिए भी आवश्यक हो गया है कि जनसमस्याओं और जनहित के मुद्दों को सार्वजनिक मंच पर अभिव्यक्ति मिले और उनमें जन साधारण की भागीदारी के लिए मीडिया पहल करे।
      हम कारपोरेट घरानों और उद्द्यमियों के हाथों बंधक मीडिया से यह अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि वे शुद्ध रूप से व्यवसायी हैं जो सबसे पहले अपना आर्थिक हित देखते हैं। आज का स्वतंत्र और वास्तविक मीडिया तंत्र वही है जो लघु और मध्यम समाचार माध्यमों की श्रेणी में गिना जाता है। हम जन सरोकारों को सार्वजनिक मंच प्रदान करने के लिए संगठन के प्रयास को एक बार पुनः साधुवाद देते हैं और " लोकसेवा ब्यूरो " के इस अंक में संगठन द्वारा आयोजित गोष्ठी " गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र " विषय के विचारों को विशेष सामग्री के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। हमें अपने सुधी पाठकों से भी इस सन्दर्भ में प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा है।
       -  विजय कुमार सिंह