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Thursday 27 December 2012

जनसरोकारों का विरोधी है कारपोरेट मीडिया

                      जनसरोकारों का विरोधी है कारपोरेट मीडिया 

        पिछले डेढ़ दशक के दौरान मीडिया का विस्तार बहुत तेजी से हुआ है और इस विस्तार में मीडिया का वास्तविक स्वरुप उतनी तेजी से विकृत भी हुआ है। इस समय देश का शायद ही कोई ऐसा कारपोरेट घराना होगा जिसका अपना मीडिया हाउस न हो अथवा जिसके पास मीडिया हाउसों के शेयर न हों। यही वजह है कि लोकतंत्र का प्रहरी कहे जाने वाले मीडिया की भूमिका कारपोरेट घरानों के चौकीदारों में बदल गयी है। उनके पास अनाप-शनाप पैसा है और इसी पैसे ने समाचार-पत्रों के बहुरंगी तथा बहुपृष्ठीय संस्करणों की बाद पैदा की तो बड़े-बड़े इलेक्ट्रानिक चैनलों की प्रतिस्पर्धा को भी जन्म दिया है।आज 32 या 40 पृष्ठों तक का बहुरंगी समाचार-पत्र महज चार रुपये में उपलब्ध हो जाता है। प्रकाशन संस्थान अपने वितरकों/ विक्रेताओं को अंकित मूल्य पर 40 फीसदी तक कमीशन देता है, कुछ फीसदी वितरकों/ हाकरों की बिकने से बची प्रतियां वापस भी लेता है और सुदूर क्षेत्रों या जिलों न\में समाचार-पत्रों के बण्डल स्वयं किराए के वाहनों से पहुंचाने की व्यवस्था भी करता है। अंततः चार रुपये के अखबार की बिक्री में प्रकाशन को अधिकतम डेढ़ रुपये ही वापस मिलता है जबकि कागज़, छपाई तथा अन्य खर्चों को मिलाकर ऐसे अखबारों की लागत कीमत करीब 12 रुपये प्रति कापी बैठती है।
        अब सवाल उठाता है कि इतना घाटा उठाकर मीडिया हाउस अखबार कैसे चला रहे हैं , कैसे प्रकाशित कर पा रहे हैं ? और इसका जवाब यह है कि कोई भी उद्यमी या व्यापारी कभी घाटे का व्यापार नहीं करता, अर्थात ऐसे सभी अखबार दिन दूनी- रात चौगुनी आर्थिक प्रगति कर रहे हैं।वे सरकारी सुविधाओं और विज्ञापनों का वह हिस्सा भी डकार रहे हैं जो अन्य छोटे और मध्यम श्रेणी के अखबारों का है। इनके खिलाफ उठने वाली छोटे और मध्यम श्रेणी के समाचार माध्यमों की आवाज़ भी इसलिए नहीं सुनी  जाती क्योंकि सरकारी विज्ञापन मान्यता और प्रेस मान्यता समितियों में भी कारपोरेट घरानों के मीडिया हाउसों के ही चाकर, दलाल और गुर्गे बिठा दिए गए हैं, जो खुद में पत्रकार से अधिक दलाल हैं। वे सरकारों व सरकारी प्रतिष्ठानों तथा अपने मीडिया हाउसों के हितों के बीच सेतु का काम करते हैं। वे अपने मालिकों के अन्य उद्यमों और व्यवसाय के लिए सरकारों से ठेका , परमिट, कोटा, लाइसेंस, छूट-कटौती और सरकारी सुविधाओं का लाभ दिलवाते हैं और उसके बदले सरकारों का प्रशाश्तिगान करतेहैं। सच मायने में  वे समाचार माध्यमों के सम्पादक नहीं रह जाते, उनकी भूमिका चारण और भाटों की हो जाती है जो अपने अन्नदाता को प्रसन्न रखने के लिए उसकी स्तुति के शलोक रचा करते हैं। क्या आज के मीडिया हाउसों का सच इसके अतिरिक्त भी कुछ है ?
             अब प्रश्न यह है कि क्या ऐसे समाचार माध्यमों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे अपने मालिकान कारपोरेट घरानों अथवा उस सरकारी तंत्र की खामियों,गलतियों और गड़बडियों को सार्वजनिक करने का साहस कर सकते हैं , जिससे वे रोजी पा रहे हैं और लगातार उपकृत हो रहे हैं ?इसका जवाब नहीं में ही होगा , तो फिर आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि कारपोरेट मीडिया कभी ऐसा सच भी सामने लाने का जोखिम उठाएगा जो उसके मालिकों और पृष्ठपोशकों  की असलियत को बेनकाब करने वाला हो ?यह बात केवल मैं ही नहीं कह रहा और न ही यह कोई मनगढ़ंत आरोप हैं क्योंकि इसी सत्य को रेखांकित करते हुए भारतीय प्रेस परिषद् के वर्त्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कांडेय काटजू कई बार कह चुके हैं कि " कारपोरेट समाचार मीडिया हमेशा वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाकर बेमतलब के मुद्दों को ज्यादा अहमियत देता है।"
         जो सच को छुपाने के गुनहगार हैं , वे सच कहने वालों के स्वाभाविक विरोधी हैं, यही कारण है कि आजकल भारतीय प्रेस परिषद् के वर्त्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति काटजू के खिलाफ कारपोरेट मीडिया छद्म अभियान चला रहा है तो कई बार लघु एवं माध्यम श्रेणी का मीडिया भी बड़ों की देखादेखी अज्ञानता में काटजू की आलोचना करता नज़र आता है। बड़े कारपोरेट घरानों का प्रिंट के साथ ही इलेक्ट्रानिक मीडिया क्षेत्र में भी वर्चश्व , मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों का संचालन , अर्थात देश के अधिकाँश मीडिया क्षेत्र पर कब्जा और स्वामित्व के कारण ही देश में बेतरह भृष्टाचार को बढ़ावा मिला है। वजह यह कि जो भृष्टाचार के माध्यम से अनाप-शनाप कमाई कर रहे हैं वे ही ऐसे मीडिया हाउसों के बड़े आर्थिक मददगार हैं तो बहुत सारे साझीदार भी, फिर क्या उनसे जनसरोकारों और सच की अपेक्षा बेमानी नहीं है ?
          भारतीय प्रेस परिषद् के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी .वी .सावंत ने अपने कार्यकाल के दौरान कारपोरेट मीडिया के एकाधिकार को तोड़ने के लिए को-आपरेटिव मीडिया की स्थापना की वकालत की थी , लेकिन उनकी वह बात केवल बात ही रह गयी और उसे भृष्ट सरकारी तंत्र तथा कारपोरेट मीडिया घरानों के गठजोड़ ने साजिश के तहत दफ़न कर दिया। सामाजिक् अधिकारों के पक्ष में आयोजित होने वाले धरने-प्रदर्शन और जनांदोलनों की आवाज़ दबाने में भी कारपोरेट मीडिया की बड़ी भूमिका रही है, क्योंकि ऐसे आन्दोलनों से उनके मालिकों और प्रिष्ठापोशकों के हित प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि देश में अब उस मीडिया पर भी हमले होने लगे हैं जिसे जनसरोकारों का मुखर वक्ता और लोकतंत्र का प्रहरी कहा जाता था।प्रायः ऐसे हमलों के शिकार वे लोग होते हैं जो गुनहगार नहीं हैं  अर्थात वे रिपोर्टर जो समाचारों का संकलन करते हैं।वे तो सच को ही मीडिया हाउसों  तक पहुंचाते हैं लेकिन वहां बैठे मीडिया मैनेजर ( कथित सम्पादक) उस सच को कभी सार्वजनिक नहीं होने देते। वे सोचते हैं कि वे जनाक्रोश से सुरक्षित हैं और जो जनता के बीच जाकर समाचारों या चित्रों का संकलन करते हैं वे जनता के गुस्से का शिकार होने के बाद भी मीडिया हाउस की भूमिका पर उंगली नहीं उठा सकते क्योंकि तब उनके सामने रोजी-रोटी का सवाल खडा हो जाता है। लेकिन ऐसे मीडिया हाउस भी अब सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि सच देर से ही सही अब जनता की समझ में आने लगा है, और यत्र -तत्र ही सही उनके कुचक्र के खिलाफ आवाज भी उठाने लगी है।
       संपादकों का राष्ट्रीय संगठन एडीटर्स गिल्ड तथा पत्रकारों के सबसे बड़े संगठन होने का दावा  करने वाले संगठनों की शीर्ष समितियों में वर्षों से कोई बदलाव नहीं हुआ। प्रबंधन अपने सदस्यों के सर गिनाकर अपने और अपनों के लिए सरकारी सुविधाएं हासिल करता है, विदेश यात्राएं करता है और राजनेताओं की अनुकम्पा हासिल करने के लिए कभी उन्हें सम्मानित करता है तो कभी उनकी स्तुति गान करता है। वास्तविक पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को उन संगठनों में सदस्यता प्राप्त करने में बाधाएं हैं क्योंकि संगठनों पर काबिज लोगों को उनसे अपना एकाधिकार समाप्त होने का खतरा है। यही कारण है कि पिछले एक दशक के दौरान कई नए पत्रकार और मीडिया संगठनों का उदय हो चुका है और उनमें से कई वास्तव में पत्रकार हितों की लड़ाई लड़ते और जनसरोकारों के पक्ष में मुखरता से खड़े होते नज़र आ रहे हैं। कारपोरेट मीडिया घरानों की सम्पन्नता और सामर्थ्य के सामने नगण्य और बौने साबित हो रहे लघु और माध्यम समाचार माध्यमों को मजबूरन एकजुट होना पद रहा है जबकि वर्त्तमान में वास्तविक असली मीडिया की भूमिका का वे ही निष्ठापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं और वे ही उपेक्षित हैं।
         शिक्षा,स्वास्थ्य,पेयजल,बिजली, रोजगार,श्रीमिक, किसान, दिहाड़ी मज़दूर, रिक्शे-ठेलेवाले और खोमचेवालों की पीड़ा से कितना सरोकार रखता है कारपोरेट मीडिया ? यह सब तो लघु और माध्यम श्रेणी के समाचार माध्यमों में ही दीखता है और उसकी आवाज़ वर्षों से नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दबाई जाती रही है। कथित न्यूज चैनलों का हाल तो और भी अधिक बुरा है। वे सनसनीखेज समाचारों की होड़ में शामिल हैं तो उनमें सेलेब्रेटीज,भूत-प्रेत की काल्पनिक कहानियां,क्रिकेट,फिल्म,उद्यमी और फ़िल्मी दुनिया की शादियाँ,अपराध, सनसनी,झूठ और मनगढ़ंत भविष्यवानियों को प्रसारित करने की प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त शायद ही कुछ दीखता हो। इस झूठ से समाज बुरी तरह प्रभावित होता है। शायद लोग भूले नहीं होंगे कि  किस तरह वर्ष 2012 में महाप्रलय और दुनिया के समाप्त हो जाने की भविष्यवाणी इन्हीं चैनलों द्वारा भयावह रूप में प्रसारित की जा रही थी। 2012 बीत गया , देश क्या सारी दुनिया में भी ऐसा कुछ नहीं हुआ।
          अब समय आ गया है कि स्वार्थ में आकंठ डूबे न्याय और सच को दबाने वाले मीडिया हाउसों और उनके मालिकों की साजिश के खिलाफ जनता को जगाया जाय और भ्रष्टों, अपराधियों और कारपोरेट मीडिया के गठजोड़ के खिलाफ लोगों को एकजुट किया जाय। यही जनसरोकार है और यही मीडिया का वास्तविक धर्म भी।
                                                                                                                        -एस .एन .शुक्ल 

Friday 14 December 2012

भारतीय राजनीति में बाल ठाकरे और अडवाणी

भारतीय राजनीति में बाल ठाकरे और अडवाणी 

देश की दो बड़ी राजनैतिक शाख्शियतें शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवानी चाहे वे खुद विवादों में रहें हों या विवाद का कारण बने हों लेकिन भारतीय राजनीति में उनके योगदान उनके नजरिये और उनकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। हम उनकी विचारधारा से असहमत हो सकते हैं लेकिन भारतीय राजनीति में हम उनकी हैसियत को अस्वीकार नहीं कर सकते।
           व्यक्ति हो या सत्ता समाज में उसकी स्वीकार्यता उसके प्रभाव या दबाव का परिणाम होती है। दबाव की स्वीकार्यता भय या स्वार्थ के कारण होती है और वह तभी तक रहती है जब तक सत्ता है या व्यक्ति जीवित है। सत्ता और व्यक्ति के अंत के साथ ही उसकी जनस्वीकार्यता भी समाप्त हो जाती है, किन्तु जहां स्वीकार्यता प्रभाव के कारण होती है वहां वह सत्ता चले जाने या व्यक्ति के समाप्त हो जाने पर भी समाप्त नहीं होती। यह बात इसलिए भी प्रासंगिक हो जाती है कि पिछले दिनों शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे की म्रत्यु पर उनकी अंतिम यात्रा में उमड़ी अपार भीड़ और बिना किसी दबाव के मुंबई बंद में किन अर्थों में देखा जाना चाहिए ? मान लेते हैं कि बाला साहेब ठाकरे की ताकत के भय से लोग उनके सामने सिर झुकाते थे, किन्तु उनके निधन के बाद तो आम लोगों का वह भय समाप्त हो जाना चाहिए था। अंतिम यात्रा में जितनी भीड़ बाल ठाकरे के लिए उमड़ी उतनी तो शायद इससे पहले देश में किसी भी लोकप्रिय नेता के अंतिम दर्शन के लिए नहीं उमड़ी होगी। खुलेआम संविधान, चुनाव आयोग, अदालत और व्यवथा को चुनौती देने वाले ठाकरे में कुछ तो ऐसा था कि देश का क़ानून भी उनके सामने सहम उठता था, और शायद इसकी वजह उनकी दबंगई नहीं उनकी लोकप्रियता थी।
          हाजी मस्तान, सुकर नारायण बखिया,यूसुफ़ पटेल और मोहन ढोलकिया जैसे तस्कर सम्राटों की बम्बई में "आमची मुम्बई" का नारा बुलंद करने वाले बाला साहेब ठाकरे ने अपने कृतित्व और प्रयासों से मराठियों के बीच अपनी जो छवि बनायी थी, उसके कारण बड़े-बड़े बाहुबली भी उन्हें चुनौती देने की बात तो दूर उनके सामने सर झुकाने को मज़बूर थे।यह वह दौर था जब देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई (तब बम्बई ) पूरी तरह  तस्कर सम्राटों और उनके गुर्गों के आधिपत्य में थी। बाला साहेब ने न केवल  उन्हें चुनौती दी वरन उनके आधिपत्य को भी तोड़ा।छत्रपति शिवाजी को आदर्श मानकर उन्हीं के नाम पर शिवसेना बनाई , मुम्बई नगर निगम के महापौर से लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, यहाँ तक कि देश का राष्ट्रपति तक बनाने में अहम् भूमिका निभाई लेकिन खुद के लिए किसी राजनैतिक पद की चाहत नहीं रखी। दृढ़ निश्चयी, जो कह दिया वह पत्थर की लकीर हो गया।झुकना और बात को तोड़-मरोड़कर कहना उनकी फितरत में नहीं था।यह सच है कि अपनी ताकत का कई बार उन्होंने बेजा इश्तेमाल भी किया और लगातार आलोचनाओं और विवादों से भी घिरे रहे, लेकिन दूसरा सच यह भी है कि जिसके सर पर उन्होंने वरद हस्त रख दिया, उसकी और टेढ़ी नज़र से देखने का दुस्साहस न तो दाउद इब्राहीम जैसा अंतर्राष्ट्रीय माफिया सरगना कर पाया और न ही सरकार। सोचिये क्या  बाला साहेब की मृत्यु पर लता मंगेसकर ने यूं ही कह दिया था कि " आज वह अपने आप को अनाथ महसूस कर रही हैं।
         बाल ठाकरे ने कभी दुहरी जिन्दगी नहीं जी। खुली किताब जैसी उनकी जिन्दगी थी तो शराब का शौक और सिगार के कश तक डंके की नोक पर। लोग उन्हें मुस्लिम विरोधी ठहराते रहे हैं, लेकिन तब वे भूल जाते हैं कि शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के वह कितने बड़े मुरीद थे।उनकी साफगोई और बेबाकीपन ने ही उन्हें लोगों का चहेता बनाया।उन्होंने लोगों को राजनीति के शिखर पर बिठाया , खुद नहीं बैठे तो जो इतिहास रचकर उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा, उस रिक्ति को भविष्य में शायद ही कोई भर सके।
           ऐसा ही कुछ भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी के बारे में भी कहा जा सकता है। याद करें 1985 के लोकसभा चुनाव को, जब सारे देश से भाजपा को महज दो सीटों पर ही सफलता हासिल हो पायी थी। अटल बिहारी जैसे नेतृत्व के बावजूद हाशिये पर पहुँच गयी भाजपा के बारे में तब कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि वह किसी दिन केंद्र में सत्तारूढ़ होगी और कांग्रेस का विकल्प बनकर खड़ी हो जायेगी।बाद में ऐसा हुआ और वह करिश्मा कर दिखानेवाले बाजपेयी जी नहीं, लाल कृष्ण आडवाणी थे। लोग कहते हैं कि भाजपा राम मंदिर आन्दोलन के रथ पर सवार होकर, और हिन्दुओं की भावनाएं भड़काकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुयी, यदि यही सच्चाई है तो संघ तो आपातकाल के बाद से ही विश्व हिन्दू परिषद् के नेतृत्व में राम मंदिर का झंडा उठाये घूम रहा था, फिर 1985 के चुनाव में भाजपा को सिर्फ दो लोकसभा सीटों पर ही क्यों सिमट जाना पडा था ?
        राम मंदिर मसले को अचानक सारे देश का मुद्दा बना देने का श्रेय  आडवाणी जी को ही जाता है। वह भाजपा जिस पर रूढ़िवादिता और साम्प्रदायिकता के आरोप लगते रहे हैं उसके अखिल भारतीय स्वरुप को मूर्तरूप देने का काम भी आडवाणी ने ही किया था। उन्होंने कांग्रेस की कथित धर्मनिरपेक्षता को खुली चुनौती देते हुए देश की राजनीति को विवादास्पद ही सही लेकिन एक नया दृष्टिकोण , एक नयी दिशा दी। यह वह समय था जब कांग्रेस के समाजवाद के विरुद्ध विकल्प के रूप में अगर कुछ था तो वह वामपंथी विचारधारा ही थी। सच यह है कि स्वयं आधी कांग्रेस इसी वामपंथी सोच और विमर्श से जूझ रही थी। बुद्धिजीवी वर्ग समझ रहा था कि कांग्रेस का गांधी के दर्शन और सिद्धांतों से कोई वास्ता नहीं है, इसलिए वामपंथ को विकल्प के रूप में देखा जाने लगा था।
          आडवाणी की रथ यात्रा और राष्ट्रवाद के साथ हिन्दू आस्था की घुट्टी ने वह करिश्मा कर दिखाया जो अप्रत्याशित था।यह करिश्मा इसलिए भी था क्योंकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ( आर एस एस ) के जिस हिंदुत्व को देश का हिन्दू बुद्धिजीवी ही रूढ़िवादिता कहकर नकार रहा था, उसी हिंदुत्व के पक्ष में आडवानी ने केवल उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत ही नहीं सारे देश में एक बड़ा समर्थक बुद्धिजीवी वर्ग खडा कर दिया। सुधीन्द्र कुलकर्णी, गिरिलाल जैन और चन्दन मित्रा जैसे साम्यवाद के हिमायती बुद्धिजीवियों को हिंदुत्व का प्रखर समर्थक बनाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है, और इतना ही नहीं दक्षिण भारत में भाजपा की नीव डालने में भी सर्वाधिक योगदान उन्हीं का है।
          यह सच है कि अटल बिहारी जैसा वक्ता उस समय देश में शायद कोई दूसरा नहीं था। उनकी सभाओं में उन्हें सुनाने के लिए अपार भीड़ उमड़ती थी लेकिन वह भीड़ वोटों की शक्ल में नहीं बदल पाती थी। आडवाणी ने उस भीड़ को वोटों में बदला, केंद्र में कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा और भाजपा को शहरों से गावों तक आम और ख़ास के बीच स्वीकार्य बनाया। आज यदि भाजपा को ही कांग्रेस के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है तो उसका सिला आडवाणी को ही जाता है। इतना ही नहीं राजग जब भाजपा के नेतृत्व में केन्द में सत्तारूढ़ हुआ तो उसके घटक दलों ने भले ही बाजपेयी के उदारवाद के चलते भाजपा का नेतृत्व स्वीकार किया लेकिन उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तरफ मोड़ने वाले तो आडवाणी ही थे। बाला साहब अब नहीं हैं, आडवाणी जी अभी भी चुस्त-दुरुस्त हैं लेकिन वयोवृद्ध तो हैं ही। हम उनके नजरिये से असहमत हो सकते हैं, उन्हें संकीर्ण विचारधारा का पोषक कहकर उनकी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन भारतीय राजनीति में उनके योगदान और उनकी हैसियत को अस्वीकार नहीं कर सकते।
                      
                                 - एस .एन .शुक्ल

Thursday 13 December 2012

नम्बरदार मीडिया का सच

नम्बरदार मीडिया का सच

          फेशबुक पर 12 दिसंबर को डॉ रहीस सिंह द्वारा पोस्ट की गयी टिप्पणी वास्तव में सोचने को विवास करती है कि आज देश का मीडिया क्या वास्तव में जनसरोकारों से कटता जा रहा है। उनकी टिप्पणी का सार संक्षेप यह था कि उनके घर पर दुनिया के नंबर एक अखबार का प्रतिनिधि बताकर दो सज्जन आये और उन्होंने उनकी धर्म पत्नी से कहा कि यदि वे 100 रूपये जमा करेंगी तो उन्हें एक प्लास्टिक की बाल्टी उपहार में दी जाएगी और एक माँ तक अखबार की प्रतियां मुफ्त में दी जायेंगी उसके बाद में उनका 100 रूपया भी लौटा दिया जाएगा। डॉ रहीस सिंह के अनुसार जवाब में उनकी पत्नी ने कहा कि वे तो उनका अखबार पढ़ती ही नहीं हैं क्योंकि उस नंबर वन कहे जाने वाले अखबार में समाचार का स्तर बहुत न्यून होता है और सारा अखबार विज्ञापनों से पता पडा रहता है। उक्त घटना पर डॉ रहीस सिंह ने ही टिप्पणी करते हुए लिखा था कि "मेरी पत्नी घरेलू महिला हैं यदि किसी गृहिणी की खुद को नंबर वन प्रचारित करने वाले समाचार पत्र के प्रति ऐसी धारणा है तो आम पाठक और बुद्धिजीवी वर्ग का नजरिया क्या होगा ? 
          डॉ रहीस सिंह जैसे वरिष्ठ स्तंभकार आर नियमित लेखक की पत्नी एक गृहिणी ही सही, लेकिन पढी-लिखी हैं और चूंकि घर का माहौल उस तरह का है, इसलिए उन्हें समाचारों के स्तर का आकलन भी बखूबी आता है। यह स्तर क्यों गिर रहा है इसकी वज़ह यह है कि वह चाहें नंबर एक अखबार हो, नंबर दो, तीन, चार या पाँच वे सभी कार्पोरेट घराने के अखबार हैं, जिनमें पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के बजाय प्रशासनिक अधिकारियों, उनकी पत्नियों उप पत्नियों और उद्यमियों के नाम से आलेख और स्तंभ प्रकाशित होते रहते हैं। वे क्या लिखते या लिखवाते होगें यह परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है। अधिकारी लिखेगा तो सरकार को सराहेगा, कमियों पर वार्निश लगाएगा, सरकारी योजनाओं की तारीफों के पुल बांधेगा और उद्यमी लिखेगा तो अपने हित की बात, जहां सच नहीं होगा। सच लिखने का साहस कोई प्रशासनिक अधिकारी और उद्यमी या व्यापारी कर ही नहीं सकता क्योंकि उन्हें तो जो भी वर्तमान सरकार हो उसके सामने जी सर, राइट सर की भूमिका में ही रहना है।
           जहां तक समाचारों की बात है तो तथाकथित बड़े कहे जाने वाले समाचार पत्र समूहों ही नहीं इलेक्ट्रानिक मीडिया चैनलों में भी अहंकार इस कदर हावी है कि उनके नियंता खुद के केबिनों में बैठकर ही मान लेते हैं कि वे जो भी परोस रहें हैं वाही पाठक और दर्शक की पसंद है, तथा उनके अलावा पाठकों और दर्शकों के सामने कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। ऐसे समाचार माध्यमों का सच उनके मालिकों की पूंजी में इजाफा और खुद की ख़ुशी है, क्योंकि मामला नौकरी और रोजो-रोटी का है। वही दूसरा सच भी है कि बड़े कहे जाने वाले अखबारों और चैनलों को सम्पादकों तथा बुद्धजीवियों की आवश्यकता ही नहीं है, उन्हें तो केवल तिकड़मबाज़ मैनेज़र और सिद्धहस्त दलाल चाहिए। यदि ऐसे लोग अखबार की रूपरेखा तय करेंगें, तो फिर आम आदमी भी उन पर उसी तरह उंगली उठाएगा जिस तरह डॉ रहीस सिंह जी की पत्नी ने खुद को दुनिया का नंबर एक कहे जाने वाले अखबार प्रचारित करने वाले समाचार पत्र के खिलाफ उठाई थी।
           जो देश की सरकारी नीतियों में आम जनता के साथ हो रहा है, वही समाचार माध्यमों के साथ भी हो रहा है। देश में प्रत्यक्ष योजनायें आम आदमी के विकास की बनायी जाती हैं, लेकिन उद्यमियों के हितों के लिए उसी आम आदमी की जमीनें जबरन अधिगृहीत कर ली जाती हैं, उन्हें बेघर कर दिया जाता है और आम आदमी के विरोध करने पर उस पर बर्बरतापूर्वक पुलिस की लाठियों और गोलियों से उसका दमन किया जाता है।पश्चिम बंगाल का सिंगुर और नंदीग्राम तथा उत्तर प्रदेश का भट्ठा-पारसौल व दादरी इसके जीते-जागते उदाहरण हैं।यही समाचार माध्यमों की भी दशा है। मीडिया हाउसों के उद्यमी मालिकान, मीडिया संगठनों के शीर्ष पर कारपोरेट घरानों के कर्ता-धर्ता  और मान्यता समितियों में दलालों के वर्चस्व के चलते आप मीडिया से निष्पक्षता की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? भारत के दृश्य-श्रृव्य एवं प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) की नीतियों के अनुसार सरकारी विज्ञापनों का 70 फीसदी लघु एवं मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों को और शेष 30 फीसदी बड़े अखबारों को दिया जाना तय है, लेकिन जब से मीडिया हाउसों पर कारपोरेट घरानों का आधिपत्य हुआ है तब से डीएवीपी भी उल्टी गंगा बहा रहा है।वजह यह है कि वहां भी सरकारी अधिकारी/कर्मचारी ही बैठे हैं जो सत्ता तंत्र के निर्देशों की अवहेलना नहीं कर सकते। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि राज्यों से लेकर केंद्र तक की सत्ता अब बड़े उद्यमियों और दलालों के इशारे पर नाचने को विवश है। वे राजनैतिक दलों के बड़े आर्थिक मददगार हैं, मीडिया हाउसों के मालिक भी हैं, इसलिए सरकारें उनके हितों की नीतियाँ बनाने को विवश हैं।
          आज का मीडिया खबरें गढ़ कर प्रसारित करता है, जो सच से शायद ही वास्ता रखती हों। वह सनसनी बेचता है, अपराधों की रोंगटे खड़ी कर देने वाली कहानियां बेचता है, सेलिब्रिटीज़ के प्रेम-प्रसंग, गाशिप, मंगनी, शादी और किसका किसके साथ अफेयर चल रहा है। किसी बड़े उद्यमी ने शादी में आये बारातियों को कौन से महंगें तोहफे दिए, दहेज़ में कौन-कौन सा कीमती सामान दिया गया, दुल्हन के लहंगे और चोली कहाँ बनें, कितने कीमती थे और उनका रंग कौन सा था, दूल्हे ने कौन सा लिबास पहन रखा था, उसे किस नामी डिज़ायनर ने डिजाइन किया था। दावत में कौन-कौन से लज़ीज़ व्यंज़न बने थे और उनमें कौन सी बड़ी हस्तियों ने शिरकत की, अब यही ख़बरें मीडिया की प्राथमिकता में है। विश्वास नहीं होता तो अभी हाल में ही संपन्न हुई सैफ-करीना की शादी या पिछले वर्षों में ऐश्वर्या-अभिषेक बच्चन की शादी के समय अखबार और पत्रिकाओं का कलेवर देखिये और देखये की कैसे महीनों तक बेगानी शादी के ये अब्दुल्ला दीवाने अब्दुल्ला महीनों तक उन्हीं कहानियों को चटखारे ले-लेकर पाठकों और दर्शकों को परोसते रहें।
          उनके तर्क हैं कि आज का पाठक और दर्शक यही कुछ देखना चाहता है। फिर वह पाठक कौन है जो फेशबुक, ब्लॉग और अन्य सोशल साइट्स पर इस सबके खिलाफ आक्रामक है ? आज का पाठक वर्ग पहले से अधिक विवेकशील है, वह कल्पनालोक में जीना भी चाहता। यही वह वज़ह है कि दो दशक पूर्व जिन सिनेमा हालों की टिकट खिड़की पर दर्शकों की गहमागहमी के कारण पुलिस को लाठियां भांजनी पड़ती थी, उन्हें दर्शक नहीं मिल रहे तो वहाँ मल्टीप्लेक्स विकसित किये जा रहें हैं। इस सच से बेखबर नहीं है मीडिया लेकिन मानने को तैयार नहीं।
            कारपोरेट हांथों में मीडिया के जो भी माध्यम हैं उनके लिए देश का आम आदमी महज एक ग्राहक है, बाज़ार है। उनका ईमान बाजार है, उनकी संवेदना को उनके गुरूर और अहंकार ने जाने कब निगल लिया था। उनकी समझ तिकड़म में बदल चुकी है और जनसरोकारों की जगह वे सनसनी बेंच रहे हैं तो आप उनसे सच की, समाचारों के स्तर की और सामाजिक सरोकारों की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? पाठक और प्रसार संख्या के फर्जी आंकड़े प्रसारित कर खुद के सबसे बेहतर और सबसे आगे कहना अलग बात है और होना अलग बात, एक नंबर, दो नंबर, तीन-चार वाले नम्बरदार मीडिया को भले ही यह अभी अहसास न हो लेकिन उनकी मानसिकता, कार्यप्रणाली और सच छिपाने की प्रवृत्ति के खिलाफ समाज में व्यापक विरोध दिख रहा है और कई बार उनके उन संवाददाताओं को अभ्रद्ता के रूप में सहना पडा है जो अपने अखबार की नीतियों के प्रति जिम्मेदार ही नहीं हैं। जो जिम्मेदार हैं वो अपने वातानुकूलित दफ्तरों में खुद को सुरक्षित महसूस भले ही करते हों लेकिन जब जनता का आक्रोश मुखर होता है तो फिर कोई सुरक्षित नहीं रह पाटा। क्या कभी समझेगा कारपोरेट मीडिया इस सच्चाई को ?