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Monday 28 May 2012

कैसे साकार होगा ग्राम स्वराज

भारत गावों का देश है, जहां मेहनतकश लोग रहते हैं, किसान रहते हैं/ वे किसान जिन्हें अन्नदाता कहा जाता है/ कभी महात्मा गांधी, विनोदा भावे, बालगंगाधर तिलक ने ग्राम स्वराज परिकल्पना की थी लेकिन देश की 
स्वाधीनता के चन्द दिनों बाद ही गांधी की असामयिक मृत्यु क्या हुयी, उनके ग्राम स्वराज की भी ह्त्या कर दी 
गयी/ कहने के लिए अभी भी ग्राम पंचायतें हैं, उनके लिए प्रतिनिधियों का निर्वाचन भी होता है/ सर्वशिक्षा 
अभियान, आंगनबाड़ी केंद्र, मध्यान्ह भोजन योजना, स्वास्थ्य केंद्र, मनरेगा और स्वच्छ सौचालय तथा इंदिरा
गांधी आवास योजना, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आवास की योजनायें भी हैं, लेकिन फिर भी अधिकांश 
बच्चे प्राथमिक शिक्षा से भी अभी वंचित हैं, कुपोषण बरकरार है/ 50 फीसदी से अधिक प्रसव घरों के ही 
अस्वस्थ वातावरण में ही होते हैं/ रोजगार के लिए लिए शहरों की ओर पलायन करने का सिलसिला थम नहीं रहा
है और जिन्हें वास्तव में आवास की जरुरत है उनके सिर पर आज भी क्षत नहीं है/ वहीं अब भी गांव की अभिकांश 
आबादी खुले में सौच जाती है/गरीबी अभी भी सबसे अधिक गाँवों में ही है/ सवाल यह है की योजनायें कारगर क्यों 
नहीं हो रहीं हैं और समस्याएं ज्यों की त्यों क्यों बरकरार हैं, इसके बारे में सरकारों ने कभी गंभीर चिंतन क्यों नहीं 
किया और जिनकी समस्याएं हैं उनसे ही उन समस्यायों के निराकरण के सुझाव क्यों नहीं मांगे जाते ?
             देश की 70 फीसदी जनसंख्या अभी भी गाँवों में निवास करती है/ गाँव देश रूपी वटवृक्ष की जड़े हैं देश की 
श्रम शक्ति का सबसे बड़ा श्रोत अर्थात देश की रीढ़ भी है, लेकिन इन जड़ों तक व्यवस्था की गलियों से उपयुक्त 
पानी नहीं पहुँच रहा है, इसलिए जड़ें कमजोर होती जा रही हैं, रीढ़ झुकती जा रही है, फिर स्वस्थ और समृद्ध 
भारत की कल्पना कैसे साकार हो सकती है ? ग्राम पंचायतों के सुदृढीकरण और विकेंद्रीकरण की चर्चा तो हमेशा 
सुनायी पड़ती है लेकिन जहां और जैसी स्थिति में थीं मौजूदा दौर में उससे भी पिछड़ गयीं हैं/ वे आज केवल केंद्र 
तथा राज्य सरकारों की योजनाओं को संचालित करने की एजेंसी मात्र बनकर रह गयीं हैं/जरुरी है की पंचायतें 
जिम्मेदार बनें, गाँवों में सभी को योग्यता और क्षमता के अनुरूप रोजगार के अवसर शुलभ हों, लोग स्वावलंबी 
बनें, इससे जहाँ एक ओर लोगों में अपने बच्चों को शिक्षित करने के प्रति उत्साह बढेगा वहीँ गाँव से हो रहे पलायन 
पर प्रभावी विराम भी लगेगा और सबसे बड़ा लाभ समाज तथा सरकारको यह होगा कि अपराध नियंत्रण में होने 
वाला नियंत्रण खर्च भी घटेगा तो उस बचे धन से विकास के कुछ नए कार्य, कुछ नयी योजनायें भी संचालित की 
जा सकेंगी उपाय क्या हों, और कैसे हों पेश है इस पर एक नज़र-

1- बहाल हो पंचायती न्याय व्यवस्था- 

               अदालतों पर मुकद्दमों का काफी बड़ा बोझ है, इस सम्बन्ध में चिंता राज्य सरकारों से लेकर केंद्र सरकार 
तक व्यक्त की जाती रही है, लेकिन समस्या के निदान के लिए चिंतन शायद ही कहीं पर किया गया हो/ गाँवों के 
जमीन, जायजात के झगडों अर्थात दीवानी मामलों का अदालतों पर सबसे बड़ा बोझ है और फिर कभी 
बदनीयती में और कभी अन्याय के खिलाफ आक्रोश में होने वाले संघर्ष के कारण उन्हीं मामलों से सम्बब्धित 
फौजदारी के नए प्रकरण तो नए मुकद्दमें भी/ पुलिस पर अपराध नियंत्रण और अपराधियों को न्यायालय के 
कटघरे तक लानें का दबाव तो न्यायालयों पर मुकद्दमों का बढ़ता बोझ / प्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की 
पञ्च परमेश्वर की कल्पना को थोड़ा समयानुकूल परिवर्तन के साथ पुनर्जीवित करना ही शायद इस समस्या का 
एक सफल समाधान हो सकता है/ इसके लिए बनने वाली न्यायिक समिति में विवाद के दोनों पक्षकार, दोनों 
पक्षों की मर्जी से दो पैरोकार, पंचायत के दो निर्वाचित सदस्य, गाँव के दो सम्मानित नागरिक और फिर ग्राम 
प्रधान अर्थात 9 सदस्यीय समिति के बीच गाँव के विवादों का निस्तारण हो/ यह समिति क्षेत्रीय लेखपाल और 
सम्बंधित थाणे से पुलिस के प्रतिनिधि को आवश्यकतानुसार साक्ष्य और निर्णय की जानकारी के लिए बुलाएं 
और समिति के बुलावे पर इन कर्मचारियों की अनिवार्य उपस्थिति सुनिश्चित हो/ न्यायिक आवश्यकता के 
तहत निर्णयन समिति दोनों पक्षकारों से शुल्क लेकर एक अधिवक्ता की सेवाएँ भी ली जा सकती हैं/ पंचायत 
के निर्णय पर संतुष्ट न होने पर ही नागरिकों को न्यायालयों में अपीलीय अधिकार हो, किन्तु पंचायत का 
निर्णय अनिवार्य रूप से माना जाय/ शायद इस प्रक्रिया से विवादों का निस्तारण शीघ्र होगा तो न्यायापालिका 
के सर पर लदा मुकद्दमों का बोझ भी घटकर आधा हो जाएगा/

2- ग्रामीण रोजगार उन्नत हों-

                गाँवों में अकुशल श्रमिकों के केवल खेतों में काम के समय ही रोजगार की आवस्यकता है, लेकिन 
भूख और ज़रूरतें तो निरंतर हैं, इसलिए वे रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करतें है/ केंद्र सरकार 
की मह्त्वाकांक्षी योजना मनरेगा भी ऊंट के मुह में जीरा साबित हो रही है, क्योंकि यह योजना अकुशल श्रमिकों 
को एक साल में महज 100 दिन का रोजगार ही उपलब्ध कराती है, फिर वे वर्ष के शेष 265 दिन क्या करेंगें और 
क्या खाएंगे ? कोई मनरेगा मजदूर वर्ष में इस योजना से क्या अपने बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा, भोजन और 
कपडे की व्यवस्था कर सकता है ? 
            यदि नहीं तो फिर उनके लिए स्थायी रोजगार के सृजन की व्यवस्था के उपाय आखिर क्यों नहीं किये 
जा रहे ? जहाँ तक मनरेगा का सवाल है तो इस योजना में कार्ययोजना की स्वीकृति, योजनागत व्यय पर 
स्वीकृति, काम के आबंटन, श्रमिकों को भुगतान और मास्टर रोल बनाने का हर स्तर पर हेराफेरी होती दिख 
रही है/ प्रधान कई बार न चाहते हुए भी मजबूर नज़र आता है/ यदि इसी योजना को थोड़ा परिवर्तन के साथ 
अथवा इसी योजना के साथ स्वरोजगार स्थापन की विविध योजनायों को भी मूर्तरूप दिया जाए तो शायद 
बेरोजगारी पर विराम भी लग सकेगा और पलायन को भी रोंका जा सकेगा/ ग्रामीण कुटीर और लघु उद्द्योगों 
को समूहगत रूप से संचालित किया जाए/ स्वरोजगार के इक्षुक नागरिक समूह बनाएं, स्वरोजगार की प्रकृति 
के अनुरूप अंशदान जमा करें, बैंक बिना रिश्वत लिए अंशदान का पांच गुना तक कर्ज दें/ काम बैंक और गाँव 
की स्वरोजगार समिति की निगरानी में हो और समय से कर्ज अदा करने वाले तथा सफल स्वरोजगार समूहों 
को एक निश्चित प्रतिशत अनुदान और छूट का प्रावधान हो तो स्वावलंबन तथा निर्भरता कोई समस्या नहीं रह 
जायेगी/ ऐसे ग्रामाधारित और कृषि आधारित उद्दमों में मछली पालन, कुक्कुट पालन, मुर्गी पालन, आचार- मुरब्बा निर्माण, सिरका उत्पादन, भेड पालन, मसरूम उत्पादन, रेशम कीट, शहद उत्पादन, फल, सब्जी, फूल,
तथा खाद्द्यान्न प्रसंस्करण जैसे उद्द्योग संचालित किये जा सकते हैं/

3- बुजुर्गों को संरक्षण-


               ग्रामीण बुजुर्ग आज सबसे अधिक उपेक्षित हैं क्योंकि वे किसी सरकारी सेवायों से सेवानिवृत्ति नहीं 
है जो उन्हें पेंशन मिल रही हो और ज़रूरतें पूरी हो रहीं हों/ उनके युवा और कमाऊ पूत अपने खुद के ही बच्चों 
की जरूरतों को ही पूरा नहीं कर पा रहे हैं/, फिर वो बुजुर्ग माँ बाप की उचित देखभाल कैसे करें ? मैं यह नहीं 
कहता की सरकार को बुजुर्गों की चिंता नहीं है, वह पहले से ही विधवा और ब्रद्धावस्था पेंशन योजनायें चला रही 
है, लेकिन साथ ही उन बुजुर्गों के लिए रोजगार के अवसर भी सृजित किये जाने चाहिए जो बहुत अशक्त नहीं हैं 
और घर बैठकर काम कर सकतें हैं/ ग्रामीण स्तर पर टाफी, बिस्किट निर्माण, टोकरी, दलिया, ढलिया, रस्सी, 
बान बनानें जैसी कितनीं ही योजनायें बुजुर्गों को काम, स्वरोजगार और आमदनी का ज़रिया बन सकती है/ फिर वे अपने युवा बच्चों को बोझ भी नहीं लगेंगे वरण आवस्यकता पड़ने उन्हें आर्थिक मदद भी कर सकेंगें/ तब
परिवारों में बुजुर्गों की उपेक्षा भी नहीं नहीं होगी और बुजुर्गों की पेंशन पर सरकार द्वारा किया जाने वाला खर्च भी घटेगा/

4- किसानों की व्यथा का निराकरण हो-

               जनसंख्या बढ़ी, खेतों के बटवारे तो जोत की सीमाएं भी घटी हैं/ आज गाँव के जिन किसानों के 
पास सो से पांच बीघे जमींन है वे न तो किसान रह गए हैं और न ही मजदूर/ खाद, बीज, सिंचाई, रसायन तथा 
श्रम के बाद उत्पादन और लागत लगभग सामान हो जाती है/ छोटे किसान डीऐपी खाद, डीजल की बढ़ती 
कीमतों से परेशान है/ वे किसान सूदखोर से पैसा लेकर फसल की ज़रूरतें पूरी करतें हैं तो फसल काटते ही 
उसकी मढ़ाई भी करनी पड़ती है और सारी मेंहनत करने के बाद किसान खाली हाँथ नज़र आता है/
              कृषि की उन्नत वैज्ञानिक विधियाँ विकसित तो हुयी हैं,लेकिन वे छोटी जोतों के लिए कारगर नहीं साबित हो 
रहीं हैं/ खाद, बीज और सिचाईं के लिए डीजल तक प्राप्त करनें में किसानों कड़ी धूप में दिन-दिन भर कतारों में 
खडा होना पड़ता है, तो कभी पुलिस की लाठियों का सामना तक करना पड़ता है/ आखिर क्या है उनकी 
समस्याओं का निदान ? गाँवों में किसान मित्र भी हैं, लेकिन वे क्या करतें हैं, यह न तो गाँव के लोग ही 
जानते हैं की उनकी भूमिका क्या है ? क्या यह संभव नहीं की ग्रामसभा की खुली बैठक में किसानों के लिए 
उनकी जोत के आधार पर उनके लिए रासायनिक खादों, उन्नत बीज और हवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित 
की जाए/ इससे किसानों का समय भी बचेगा और उन्हें पुलिस की लाठियों से अपमानित भी नहीं होना पडेगा/

5- जल संचयन और जलाशयों का संरक्षण-

                भूगर्भ स्थित जल का स्तर लगातार नीचे की और जा रहा है और इसके लिए भूगर्भ जल के लगातार 
दोहन को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है / प्रश्न यह है की खेतों की सिंचाई तो पहले भी होती थी, भूगर्भ स्थित 
जल का दोहन भी होता था, फिर तब क्यों नहीं गिरता था जल स्तर ? स्पस्ट है की तब भूगर्भ जल के दोहन के 
पास ही वाटर रिचार्ज भी होता था, लेकिन अब स्वच्छता के नाम पर कपडे, बर्तन धोने का पानी भूगर्भ में पुनः 
समाने के बजाय नालियों से बहकर सूर्य के ताप का शिकार हो जाता है/ बुंदेलखंड इसका जीता-जागता 
उदाहरण है, जहाँ के पानीदार लोगों को पीनें के पानी के लाले हैं/ जलाशयों की उपेक्षा भारी पड़ने लगी है, उनके 
संरक्षण के आदेश महज कागजी खानापूरी बनकर रह गये हैं/ जिन पोखर और तालाबों को पाटकर बड़ी-बड़ी 
रिहायशी कालोनियां विकसित कर दीं गयीं, जिन्हें गिराकर पुनः तालाब और पोखर की स्थिति में लाना क्या 
सरल है ? कालोनियों और भवनों को ढहाकर पुनः पुराने जलाशयों को भले ही पुनर्जीवित न किया जा सके 
लेकिन जो जलाशय, पोखर और तालाब अस्तिव के संकट से झूझ रहें हैं उन्हें तो संरक्षित किया ही जा सकता 
है/ ये पोखर, तालाब, झीलें और जलाशय पानी से भरे रहने के कारण अपने चारों ओर की बृहद दूरी तक की 
ज़मीन को अन्दर ही अन्दर नमीं पहुचाते रहते थे, जिसके कारण बाग़ और बन बिना सिंचाई के भी हरे रहते थे/
पशुओं को चारा, जलौनी और इमारती लकड़ी आसानी से शुलभ होती थी तो जंगली जीव-जन्तुयों को भी उनमें 
आश्रय और संरक्षण मिलता था/ आज वे वन-बाग़ भी समाप्ति की ओर अग्रसर हैं तो जंगली जानवर भोजन 
और रिहायश के संकट के चलते बस्तियों की ओर रूख करने लगे हैं/
              वर्षा के जल को भूगर्भ कें उतारनें की व्यवस्था ही भूगर्भ जल के गिरते स्तर को रोक सकती है/ फिर 
शायद भूगर्भ स्थिति जल के दोहन को भी उतनी आवश्यकता नहीं रह जायेगी जितनी की वर्तमान में है/ वर्षा 
जल संचयन और संरक्षण के प्राचीन तथा परम्परागत तरीकों को बहाल किये बगैर बात बनने वाली नहीं, हां 
कुछ नए तरीके भी अपनाए जा सकते हैं/ उन्हें विस्तार से स्थानाभाव के कारण यहाँ प्रस्तुत किया जाना 
संभव नहीं है लेकिन ये ऐसे तरीके हैं जिन्हें आम भारतीय किसान बखूबी जानते हैं/

6- बैंकों में कर्जधारकों का शोषण न हो-

                उत्तर प्रदेश के संभावनाओं से भरे युवा मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव दे शाहूकारों पर लगाम 
लगाने की जो मुहिम चलाई है, वह सराहनीय है, लेकिन शायद उन्हें नहीं पता की छोटे और ग्रामीण कर्जधारकों 
का शोषण बैंकों द्वारा साहूकारों से भी ज्यादा किया जाता है/ प्रायः बैंक छोटे कर्ज देने में आनाकानी करतीं हैं/ यदि कोई ग्रामीण स्वरोजगार स्थापन के लिए बैंक की सहायता चाहता है तो उसके सामनें शर्तों और कागजी 
झमेलों का इतना बड़ा पुलिंदा रख दिया जाता है की वह उन्हें पूरा करने में ही महीनों का समय गंवा देता है/ फिर कर्ज स्वीकृत भी होता है तो उसमें बैंक के विकास अधिकारी, बाबू और मैनेजर तक कमीशनखोरी से बाज नहीं 
आते/  बैंकों की मनमर्जी का आलम यह है की वो बिना घूस खाए किसी की फ़ाइल ही नहीं बढनें देते/
          इस तरह से अभी भी ग्रामीण भारत का स्वराज्य आना शेष है/ देश एक ओर 65 वें स्वाधीनता दिवस 
समारोह की तैयारी कर रहा है दूसरी ओर आज भी आम आदमी आम की तरह चूसा जा रहा है/ हम सब इस 
उम्मीद में की एक दिन अपना राज्य यानी स्वराज्य आयेगा और हम अपनेपन के शासन का अनुभव कर सकेंगें/
शेष फिर कभी ज्यादा इंतजार करना नहीं पडेगा.......जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसियेशन 
लेकर आ रहा है आज़ादी के 65 बरस और वहीं सठियाई संसद के ऊपर एक समग्र विश्लेषण ....... "दस्तावेज"
                                          
                                                                                                                      लालता प्रसाद 'आचार्य'    

1 comment:

  1. सरकार का रवैया ग्रामो< के प्रति सदा उदासीन ही रहा है योजनाये तो बनति है पर उसका पूरा लाभ् वहाँ तक पहुँचता ही नही.....बस कागजों पर ही सब कुछ होता रहता है...जब तक इस ओर द्ग्यान नही दिया जायेगा तब तक कुछ नही होने वाला..

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