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Thursday 27 December 2012

जनसरोकारों का विरोधी है कारपोरेट मीडिया

                      जनसरोकारों का विरोधी है कारपोरेट मीडिया 

        पिछले डेढ़ दशक के दौरान मीडिया का विस्तार बहुत तेजी से हुआ है और इस विस्तार में मीडिया का वास्तविक स्वरुप उतनी तेजी से विकृत भी हुआ है। इस समय देश का शायद ही कोई ऐसा कारपोरेट घराना होगा जिसका अपना मीडिया हाउस न हो अथवा जिसके पास मीडिया हाउसों के शेयर न हों। यही वजह है कि लोकतंत्र का प्रहरी कहे जाने वाले मीडिया की भूमिका कारपोरेट घरानों के चौकीदारों में बदल गयी है। उनके पास अनाप-शनाप पैसा है और इसी पैसे ने समाचार-पत्रों के बहुरंगी तथा बहुपृष्ठीय संस्करणों की बाद पैदा की तो बड़े-बड़े इलेक्ट्रानिक चैनलों की प्रतिस्पर्धा को भी जन्म दिया है।आज 32 या 40 पृष्ठों तक का बहुरंगी समाचार-पत्र महज चार रुपये में उपलब्ध हो जाता है। प्रकाशन संस्थान अपने वितरकों/ विक्रेताओं को अंकित मूल्य पर 40 फीसदी तक कमीशन देता है, कुछ फीसदी वितरकों/ हाकरों की बिकने से बची प्रतियां वापस भी लेता है और सुदूर क्षेत्रों या जिलों न\में समाचार-पत्रों के बण्डल स्वयं किराए के वाहनों से पहुंचाने की व्यवस्था भी करता है। अंततः चार रुपये के अखबार की बिक्री में प्रकाशन को अधिकतम डेढ़ रुपये ही वापस मिलता है जबकि कागज़, छपाई तथा अन्य खर्चों को मिलाकर ऐसे अखबारों की लागत कीमत करीब 12 रुपये प्रति कापी बैठती है।
        अब सवाल उठाता है कि इतना घाटा उठाकर मीडिया हाउस अखबार कैसे चला रहे हैं , कैसे प्रकाशित कर पा रहे हैं ? और इसका जवाब यह है कि कोई भी उद्यमी या व्यापारी कभी घाटे का व्यापार नहीं करता, अर्थात ऐसे सभी अखबार दिन दूनी- रात चौगुनी आर्थिक प्रगति कर रहे हैं।वे सरकारी सुविधाओं और विज्ञापनों का वह हिस्सा भी डकार रहे हैं जो अन्य छोटे और मध्यम श्रेणी के अखबारों का है। इनके खिलाफ उठने वाली छोटे और मध्यम श्रेणी के समाचार माध्यमों की आवाज़ भी इसलिए नहीं सुनी  जाती क्योंकि सरकारी विज्ञापन मान्यता और प्रेस मान्यता समितियों में भी कारपोरेट घरानों के मीडिया हाउसों के ही चाकर, दलाल और गुर्गे बिठा दिए गए हैं, जो खुद में पत्रकार से अधिक दलाल हैं। वे सरकारों व सरकारी प्रतिष्ठानों तथा अपने मीडिया हाउसों के हितों के बीच सेतु का काम करते हैं। वे अपने मालिकों के अन्य उद्यमों और व्यवसाय के लिए सरकारों से ठेका , परमिट, कोटा, लाइसेंस, छूट-कटौती और सरकारी सुविधाओं का लाभ दिलवाते हैं और उसके बदले सरकारों का प्रशाश्तिगान करतेहैं। सच मायने में  वे समाचार माध्यमों के सम्पादक नहीं रह जाते, उनकी भूमिका चारण और भाटों की हो जाती है जो अपने अन्नदाता को प्रसन्न रखने के लिए उसकी स्तुति के शलोक रचा करते हैं। क्या आज के मीडिया हाउसों का सच इसके अतिरिक्त भी कुछ है ?
             अब प्रश्न यह है कि क्या ऐसे समाचार माध्यमों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे अपने मालिकान कारपोरेट घरानों अथवा उस सरकारी तंत्र की खामियों,गलतियों और गड़बडियों को सार्वजनिक करने का साहस कर सकते हैं , जिससे वे रोजी पा रहे हैं और लगातार उपकृत हो रहे हैं ?इसका जवाब नहीं में ही होगा , तो फिर आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि कारपोरेट मीडिया कभी ऐसा सच भी सामने लाने का जोखिम उठाएगा जो उसके मालिकों और पृष्ठपोशकों  की असलियत को बेनकाब करने वाला हो ?यह बात केवल मैं ही नहीं कह रहा और न ही यह कोई मनगढ़ंत आरोप हैं क्योंकि इसी सत्य को रेखांकित करते हुए भारतीय प्रेस परिषद् के वर्त्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कांडेय काटजू कई बार कह चुके हैं कि " कारपोरेट समाचार मीडिया हमेशा वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाकर बेमतलब के मुद्दों को ज्यादा अहमियत देता है।"
         जो सच को छुपाने के गुनहगार हैं , वे सच कहने वालों के स्वाभाविक विरोधी हैं, यही कारण है कि आजकल भारतीय प्रेस परिषद् के वर्त्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति काटजू के खिलाफ कारपोरेट मीडिया छद्म अभियान चला रहा है तो कई बार लघु एवं माध्यम श्रेणी का मीडिया भी बड़ों की देखादेखी अज्ञानता में काटजू की आलोचना करता नज़र आता है। बड़े कारपोरेट घरानों का प्रिंट के साथ ही इलेक्ट्रानिक मीडिया क्षेत्र में भी वर्चश्व , मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों का संचालन , अर्थात देश के अधिकाँश मीडिया क्षेत्र पर कब्जा और स्वामित्व के कारण ही देश में बेतरह भृष्टाचार को बढ़ावा मिला है। वजह यह कि जो भृष्टाचार के माध्यम से अनाप-शनाप कमाई कर रहे हैं वे ही ऐसे मीडिया हाउसों के बड़े आर्थिक मददगार हैं तो बहुत सारे साझीदार भी, फिर क्या उनसे जनसरोकारों और सच की अपेक्षा बेमानी नहीं है ?
          भारतीय प्रेस परिषद् के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी .वी .सावंत ने अपने कार्यकाल के दौरान कारपोरेट मीडिया के एकाधिकार को तोड़ने के लिए को-आपरेटिव मीडिया की स्थापना की वकालत की थी , लेकिन उनकी वह बात केवल बात ही रह गयी और उसे भृष्ट सरकारी तंत्र तथा कारपोरेट मीडिया घरानों के गठजोड़ ने साजिश के तहत दफ़न कर दिया। सामाजिक् अधिकारों के पक्ष में आयोजित होने वाले धरने-प्रदर्शन और जनांदोलनों की आवाज़ दबाने में भी कारपोरेट मीडिया की बड़ी भूमिका रही है, क्योंकि ऐसे आन्दोलनों से उनके मालिकों और प्रिष्ठापोशकों के हित प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि देश में अब उस मीडिया पर भी हमले होने लगे हैं जिसे जनसरोकारों का मुखर वक्ता और लोकतंत्र का प्रहरी कहा जाता था।प्रायः ऐसे हमलों के शिकार वे लोग होते हैं जो गुनहगार नहीं हैं  अर्थात वे रिपोर्टर जो समाचारों का संकलन करते हैं।वे तो सच को ही मीडिया हाउसों  तक पहुंचाते हैं लेकिन वहां बैठे मीडिया मैनेजर ( कथित सम्पादक) उस सच को कभी सार्वजनिक नहीं होने देते। वे सोचते हैं कि वे जनाक्रोश से सुरक्षित हैं और जो जनता के बीच जाकर समाचारों या चित्रों का संकलन करते हैं वे जनता के गुस्से का शिकार होने के बाद भी मीडिया हाउस की भूमिका पर उंगली नहीं उठा सकते क्योंकि तब उनके सामने रोजी-रोटी का सवाल खडा हो जाता है। लेकिन ऐसे मीडिया हाउस भी अब सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि सच देर से ही सही अब जनता की समझ में आने लगा है, और यत्र -तत्र ही सही उनके कुचक्र के खिलाफ आवाज भी उठाने लगी है।
       संपादकों का राष्ट्रीय संगठन एडीटर्स गिल्ड तथा पत्रकारों के सबसे बड़े संगठन होने का दावा  करने वाले संगठनों की शीर्ष समितियों में वर्षों से कोई बदलाव नहीं हुआ। प्रबंधन अपने सदस्यों के सर गिनाकर अपने और अपनों के लिए सरकारी सुविधाएं हासिल करता है, विदेश यात्राएं करता है और राजनेताओं की अनुकम्पा हासिल करने के लिए कभी उन्हें सम्मानित करता है तो कभी उनकी स्तुति गान करता है। वास्तविक पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को उन संगठनों में सदस्यता प्राप्त करने में बाधाएं हैं क्योंकि संगठनों पर काबिज लोगों को उनसे अपना एकाधिकार समाप्त होने का खतरा है। यही कारण है कि पिछले एक दशक के दौरान कई नए पत्रकार और मीडिया संगठनों का उदय हो चुका है और उनमें से कई वास्तव में पत्रकार हितों की लड़ाई लड़ते और जनसरोकारों के पक्ष में मुखरता से खड़े होते नज़र आ रहे हैं। कारपोरेट मीडिया घरानों की सम्पन्नता और सामर्थ्य के सामने नगण्य और बौने साबित हो रहे लघु और माध्यम समाचार माध्यमों को मजबूरन एकजुट होना पद रहा है जबकि वर्त्तमान में वास्तविक असली मीडिया की भूमिका का वे ही निष्ठापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं और वे ही उपेक्षित हैं।
         शिक्षा,स्वास्थ्य,पेयजल,बिजली, रोजगार,श्रीमिक, किसान, दिहाड़ी मज़दूर, रिक्शे-ठेलेवाले और खोमचेवालों की पीड़ा से कितना सरोकार रखता है कारपोरेट मीडिया ? यह सब तो लघु और माध्यम श्रेणी के समाचार माध्यमों में ही दीखता है और उसकी आवाज़ वर्षों से नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दबाई जाती रही है। कथित न्यूज चैनलों का हाल तो और भी अधिक बुरा है। वे सनसनीखेज समाचारों की होड़ में शामिल हैं तो उनमें सेलेब्रेटीज,भूत-प्रेत की काल्पनिक कहानियां,क्रिकेट,फिल्म,उद्यमी और फ़िल्मी दुनिया की शादियाँ,अपराध, सनसनी,झूठ और मनगढ़ंत भविष्यवानियों को प्रसारित करने की प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त शायद ही कुछ दीखता हो। इस झूठ से समाज बुरी तरह प्रभावित होता है। शायद लोग भूले नहीं होंगे कि  किस तरह वर्ष 2012 में महाप्रलय और दुनिया के समाप्त हो जाने की भविष्यवाणी इन्हीं चैनलों द्वारा भयावह रूप में प्रसारित की जा रही थी। 2012 बीत गया , देश क्या सारी दुनिया में भी ऐसा कुछ नहीं हुआ।
          अब समय आ गया है कि स्वार्थ में आकंठ डूबे न्याय और सच को दबाने वाले मीडिया हाउसों और उनके मालिकों की साजिश के खिलाफ जनता को जगाया जाय और भ्रष्टों, अपराधियों और कारपोरेट मीडिया के गठजोड़ के खिलाफ लोगों को एकजुट किया जाय। यही जनसरोकार है और यही मीडिया का वास्तविक धर्म भी।
                                                                                                                        -एस .एन .शुक्ल 

2 comments:

  1. Ye khoob prachrit karein.. aankh kholne ke liye jaroori hai...Bahut badhiya likha hai aapne :)

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