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Friday, 8 November 2013

ऐश आराम में नपे आशाराम

                                                  ऐश आराम में नपे आशाराम 


      " खबरदार ! आपने यदि शरीर के लिए ऐश- आराम की इच्छा की, विलासिता एवं इन्द्रिय सुखों में अपना समय बर्बाद किया तो आपकी खैर नहीं " 

       ये पंक्तियाँ विश्व प्रसिद्ध लेखक और विचारक स्वेट मार्डन की अनूदित कृति "सफलता के 251 स्वर्णिम सूत्र " जो डी.पाल द्वारा अनूदित और संकलित और मनोज पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित है के पृष्ठ संख्या 151 पर लेखक ने बड़ी श्रृद्धा के साथ मोटे अक्षरों में आशाराम बापू के नाम से संदर्भित की हैं . पर उपदेश कुशल बहुतेरे अर्थात दूसरों को उपदेश देना सरल है लेकिन अपने खुद के जीवन में वैसा ही आचरण करना आसान नहीं है. दूसरों को अपने प्रवचन कार्यक्रमों में आशाराम जो शिक्षा देते रहे उस पर अमल नहीं कर पाए और उन्हीं पर उनका कथन चरितार्थ हो उठा . ऐश-आराम, विलाशिता और इन्द्रिय सुखों में लिप्त हुए और अब वास्तव में उनकी खैर नहीं है .
        बुधवार 6 नवम्बर को जोधपुर पुलिस ने आशाराम और अन्य आरोपियों के खिलाफ 77 दिनों की जांच के बाद 1011 प्रष्टों की चार्जशीट दाखिल की जिसमें 121 दस्तावेजों और 58 गवाहों की सूची के साथ गंभीर आरोप लगाए हैं . आशाराम के खिलाफ आरोपों में आईपीसी की धारा 342 (गलत ढंग से कैद करना), धारा 276(2) (ऍफ़) (नाबालिग से बलात्कार) , 376डी (बलात्कार), 354 ए( महिला का शीलभंग करना ), 506 (डराना-धमकाना) तथा धारा 102 (अपराध के लिए उकसाना) समेत 14 धाराएं लगाई गयी हैं. यदि ये आरोप प्रमाणित होते हैं तो आशाराम को 10 वर्ष से लेकर उम्र कैद तक की सजा हो सकती है. ऐश-आराम की इक्षा की, विलासिता एवं इन्द्रिय सुखों में समय बर्बाद किया तो आपकी खैर नहीं , खुद उनका ही कथन यथार्थ बनाकर आशाराम्के सामने है और बचाव का कोई रास्ता नहीं.
    अभी बात यहीं समाप्त नहीं होती, नए खुलासे, नए आरोप और पुलिस जांचों का घेरा आशाराम के चारों ओर इतना मजबूत होता जा रहा है कि उससे बाहर निकलना अब उनके लिए आसान नहीं रह गया है.उनके अनुयाई और अंध समर्थक यदि उन्हें साजिशन फंसाए जाने के आरोप लगा रहे हैं तो आरोप लगाने वाले भी वे लोग हैं जो वर्षों तक आशाराम के सानिध्य में रह चुके हैं. इसके साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों की भृकुटी भी आशाराम के उन आश्रमों के प्रति तनती नज़र आ रही है जो सरकारी अथवा ग्राम समाज की जमीनों पर अवैध कब्जा कर स्थापित किये गए अथवा जिन आश्रमों को लेकर विवाद चल रहे हैं.
      आशाराम के अनुयाई सवाल उठा रहे हैं कि जो लोग अब आरोप लगा रहे हैं और वर्षों पूर्व घटी घटनाओं को आधार बनाकर उनके बापू को दोषी ठहरा रहे हैं, वे अब तक चुप क्यों थे ? और शायद इसका स्वाभाविक जवाब यह है कि जब रोशनी तेज हो तो उससे कोई भी आँखें मिलाने का साहस नहीं कर पाता क्योंकि तब उसे अपनी ही आँखों की रोशनी के लिए खतरे की आशंका उसे ऐसा करने से रोकती है. आशाराम भी जब चमक रहे थे. जब बड़े-बड़े अधिकारी और राजनेता उनके सामने नतमस्तक होते थे तब भला किसकी हिम्मत थी जो उन पर उंगली उठाने का दुस्साहस करता. जब अदालत और क़ानून की आशाराम के साथ सख्ती दिखी और लोगों को न्याय की उम्मीद बंधी तो ज्यादती का शिकार लोग खुलकर सामने आने की हिम्मत जुटाने लगे.
       करीब एक दशक पूर्व लखनऊ के एक आयोजन में आशाराम ने अपने प्रवचन के दौरान यह भी कहा था कि "किसी युवक के लिए वृद्धा विष के सामान है और वृद्ध के लिए तरुणी का सानिध्य अमृत जैसा है" तब यह वाक्य आशाराम के मुंह से भले ही किसी सन्दर्भ में निकला हो लेकिन शायद खुद अपने जीवन में इस वाक्य को आत्मसात कर लिया और अमृत के लोभ में वह कुकर्म करने लगे जो उन्हें लगातार पतन की ओर ले जाता रहा.आशाराम और उनके आश्रमों की गतिविधियाँ करीब एक दशक पहले से ही संदेह के घेरे में थीं . जो वाक्य डी. पाल ने आशाराम के सन्दर्भ से अपनी पुस्तक में बड़ी श्रद्धा से अंकित किया था उसे तो खुद कहने वाले आशाराम ही  याद नहीं रख सके जबकि उन्होंने ऐश-आराम और विलासिता पर खुद ही खबरदार किया था. आखिर क्या कारण है कि आशाराम चारित्रिक फिसलन भरे रास्ते पर सुख की तलाश करने लगे ?
       जवाब यह है कि जब आदमी के पास सम्पन्नता आती है, सुख-समृद्धि के साधन बढ़ने लगते हैं तो आदमी लम्बी उम्र जीना चाहता है. उन सुखों के साधनों का लम्बे समय तक उपभोग करना चाहता है. यही आशाराम के साथ भी हुआ. शायद वृद्धावस्था में अवयस्क बालिकाओं के साथ संसर्ग कर अमृत की तलाश में जुटे थे आशाराम. वास्तविक संत बृह्मचर्य में और यौनिक इक्षाओं का दमन कर जीवन का सार खोजते हैं और ढोंगी सांसारिक सुखों को भोग में खोजते हैं.उन्हीं सांसारिक सुखों की खोज में आशाराम यह भूल गए कि जिस अवयस्क बालिका से वह प्रणय निवेदन कर रहे हैं वह उनकी बेटी ही नहीं बेटी की भी बेटी की उम्र की है.
        सम्रद्धि के साथ ही अहंकारी हो चुके आशाराम ने अपने जीवन में वास्तविक संतों को अपमानित करने जैसे पाप भी किये हैं तो उनके आश्रम द्वारा संचालित शिक्षा शालाओं के अबोध बच्चों की उनके द्वारा तांत्रिक क्रियाओं में बलि दिए जाने के आरोप उन पर पहले भी लग चुके हैं. तब अपने रसूख और दबाव से आशाराम ने उन मामलों को भले ही दबा दिया था लेकिन अब वे फिर खुल रहे हैं , अर्थात पाप से भर चुका घड़ा अब फूट रहा है.
        प्रारम्भ में आशाराम ने कांग्रेस अध्यक्ष्या सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष्य राहुल गांधी पर उन्हें साजिशन फंसाए जाने के आरोप लगाए थे. उनके समर्थक भी कांग्रेस पर उंगली उठाते हुए अपने बाबा के बचाव में उतरे लेकिन उन्हें जनसमर्थन नहीं मिला. मीडिया ने भी आशाराम का समर्थन नहीं किया. वजहें कई थीं, आम आदमी सोच रहा था कि जब बाबा रामदेव खुलेआम कांग्रेस और सरकार को देश भर में चुनौती देते हुए घूम रहे हैं और कांग्रेस को सबसे बड़ा खतरा भी रामदेव ही जज़र आ रहे हैं तो योगगुरू को निशाना बनाने के बजाय आशाराम जैसे व्यापारी बाबा को निशाना बनाने से कांग्रेस को क्या लाभ होने वाला है ? दूसरी सोच यह भी थी कि जब आशाराम अपने प्रवचनों में राजनैतिक भाषणबाजी करते ही नहीं तो कोई सियासी दल उनसे विरोध क्यों मानेगा? मीडिया ने आशाराम का समर्थन इसलिए नहीं किया क्योंकि उनकी करतूतों के बारे में मीडिया को पहले से ही जानकारी थी तो कई बार आशाराम ने मीडियाकर्मियों से अभद्रता कर अपने लिए हमदर्दी की गुंजाइश पहले ही ख़त्म कर डी थी.
        फिलहाल पुलिस ने आशाराम के खिलाफ जिन आरोपों के तहत चार्जशीट दाखिल की है, यदि उनमें से कोई भी प्रमाणित हो गए तो दूसरों को स्वर्ग का रास्ता बताने वाले आशाराम की शेष जिन्दगी नर्क (जेल) में ही बीत जायेगी.

                                                                                    -एस एन शुक्ल
         

Friday, 1 November 2013

रीयल एस्टेट : बड़े धोखे हैं इस राह में

                                      रीयल एस्टेट : बड़े धोखे हैं इस राह में

   रिहायशी जमीनों की लगातार बढ़ती कीमतों के साथ ही मांग में भी तेजी से वृद्धि हुई है. जिन्हें मकान कि जरूरत है और जरूरत के मद्देनज़र अगले दो-चार साल में प्लाट खरीदने की योजना बना रहे थे, वे भविष्य में कीमतें और बढ़ने के भय से किसी तरह कर्जा लेकर, दोस्तों से सहयोग लेकर अथवा पत्नी के जेवर बेचकर प्लाट खरीदने कि उतावली में हैं तो जरूरतमंदों कि यह उतावली देखकर रीयल स्टेट कारोबार के ठगों और भूमाफियाओं ने भी ग्राहकों को फसाने के लिए जाल बिछा रखा है.
   आकर्षक घोषणाएं सस्ते प्लाट और फ़्लैट, बिजली, पानी, सड़क जैसी सुविधाओं के प्रलोभन और बिना पूरी जांच पड़ताल किये बिल्डर्स तथा डवलपर्स के लोक लुभावने चक्रव्यूह में फसते ग्राहक. फिलहाल लखनऊ ओर उसके आस-पास कुकुरमुत्तों कि तरह उग आई आवासीय कम्पनियां और सोसाइटियों में से कौन ईमानदारी से काम कर रहा है तथा कौन ग्राहकों को छूना लगाने कि साजिश कर रहा है, यह भेद कर पाना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं है. लखनऊ के भावी विस्तार ओर राज्य राजधानी क्षेत्र महायोजना २०२१ के बारे में भले ही अभी सरकार, लखनऊ विकास प्राधिकरण और जिम्मेदार विभागों को पूरी जानकारी न हो लेकिन जमीनों के धंधेबाज अपने ग्राहकों को एससीआर-न २०२१ का पूरा खाका समझाकर तालाबों, पोखरों में की गयी प्लाटिंग बेच रहे हैं तो बहुतों ने बेच भी डाली है.
     बिल्डर्स और कालोनाइजर्स तो पिछले पांच सालों से इस गोरखधंधे में जुटे हैं और सैकड़ों-हजारों नहीं लाखों लोगों को भविष्य के सुनहरे सपने दिखाकर उनकी रकम अपनी तिजोरियों के हवाले कर चुके हैं.लखनऊ और उसके आस-पास की अनेकों ऐसी जमीनों पर प्लाटिंग हो गयी, दीवारें और मकान खड़े हो गए जिनका राजस्व अभिलेखों में अभी तक आवासीय भूमि के रूप में  भूउपयोग परिवर्तन भी नहीं कराया गया है . इस तरह की सबसे अधिक हेराफेरी लखनऊ-बाराबंकी रोड की जमीनों पर की गयी जहां इतनी कंपनियों ने अपने-अपने झंडे गाड़ रखे हैं और खेतों के बीच बिना उपयुक्त रिहायसी सुविधाओं और बिना समुचित प्रशासनिक कार्रवाई के इतने अधिक बहुमंजिले टावर खड़े कर दिए हैं , कि कभी उन जमीनों पर फसलें भी उगाई जाती थीं सहसा यह विशवास ही नहीं होता. 
       उच्च न्यायालय के दखल के बाद अब बाराबंकी प्रशासन की भी नीद खुली है और उसने अपनी सीमा में आनेवाले इस तरह के अवैध निर्माणों के ध्वस्तीकरण की कार्यवाई करने को विवश हो गया है. लखनऊ-बाराबंकी मार्ग पर बाराबंकी की सीमा में आने वाले ऐसे 82 निर्माणों को चिन्हित किया जा चुका है जिन्हें प्रशासन द्वारा जल्द ही अभियान चलाकर ध्वस्त किया जाएगा. इन अवैध निर्माणों में कई बड़े कालोनाइजर्स के बहुमंजिले आवासीय काम्प्लेक्स भी शामिल हैं.चूंकि यह सारी कार्यवाई हाईकोर्ट के दखल के बाद होने जा रही है इसलिए बिल्डर्स और कालोनाइजर्स के सामने अपनी इमारतों को बचाने का रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा है. बिना नक्शा पास कराये और बिना जमीन की प्रकृति बदले कराये गए ऐसे अनाधिकृत निर्माणों में हजारों लोगों ने फ़्लैट खरीद भी रखे हैं. जब ये निर्माण ढहाए जायेंगे तो उन उपभोक्ताओं का क्या होगा जिनका पैसा इन योजनाओं में फंसा है ?
    होश तो कालोनाइजर्स के भी उड़े हैं और पंचायतों, चकरोडों, ग्रामसमाज की जमीन हथियाकर प्लाटों का आकार देकर बेचने वाले जाने जाने कितने भूमाफिया भी इन दिनों दहशत में हैं कि जब अदालत ने दखल देना शुरू किया है और बाराबंकी प्रशासन अवैध निर्माणों के खिलाफ कार्यवाई की तैयारी कर चुका है तो किसी दिन उनका भी नम्बर आ सकता है.यही वजह है कि दीवाली त्यौहार आफर के नाम पर वे जल्दी से जल्दी अपनी विवादित जमीनें ग्राहकों के हवाले कर देना चाहते हैं. इसलिए सावधान हो जाइए और भूखण्ड या फ्लैट खरीदने से पहले पूरी तरह से तसल्ली अवश्य कर लें कि कहीं सस्ते या लुभावने आफर के चक्कर में आप ठगों की साजिश के शिकार होने तो नहीं जा रहे .
   
                                                              -एस एन शुक्ल 

सरदार पर सियासत

                                    सरदार पर सियासत

       भारत के प्रथम और सर्वाधिक दृढनिश्चयी गृहमंत्री, अखण्ड स्वाधीन भारत के प्रणेता और स्वप्नदृष्टा तथा अपने अडिग निर्णयों के लिए अलग पहचान का प्रतीक सरदार वल्लभभाई पटेल आज सियासत का केंद्र बिंदु बन गए हैं . कांग्रेस उन्हें अपना बताती है तो भाजपा आरोप लगाती है कि कांग्रेस ने नेहरू,इंदिरा,राजीव और वर्त्तमान में सोनिया तथा  राहुल गांधी को तो  प्राथमिकता दी किन्तु सरदार पटेल सहित अन्य त्यागी तथा वरिष्ठ कांग्रेस के ही नेताओं की पूरी तरह उपेक्षा की गयी. दोनों पार्टियों के  बीच  पटेल को लेकर जबानी युद्ध की शुरुआत तो हो ही चुकी है, शायद आगामी २०१४ के आम चु.नाव में अन्य मुद्दों के साथ ही सरदार पटेल भी भाजपा और कांग्रेस के  बीच सियासत का एक प्रमुख मुद्दा होंगे

      मतभेद तो थे नेहरू और पटेल में
(1) देश के आर्थिक मसलों और हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे को लेकर नेहरू और पटेल के बीच कभी एक राय नहीं बन पायी किन्तु फिर भी दोनों नेताओं ने उसे सार्वजनिक मंचों पर बहस का मुद्दा नहीं बनने दिया . पटेलजी ने गांधीजी को पत्र लिखकर कहा था कि नेहरू और उनके बीच मतभेद हैं लेकिन उनके लिए देश सर्वोपरि है .
(२) मतभेदों के कारण ही भारत-पाक बटवारे के बाद फ़ैली हिंसा के दौरान नेहरू जी ने बिना पटेलजी की राय लिए अजमेर में हालात का जायजा लेने के लिए अपने दूत के तौर पर एचवीआर आयंगर को भेजा था. उस समय पटेल देश के गृहमंत्री थे, इसलिए उन्होंने नेहरूजी के इस कदम को अपने कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल माना और इसकी शिकायत गांधीजी से की थी . नेहरू ने बापू को स्पष्टीकरण देते हुए कहा था कि संविधान की वर्त्तमान व्यवस्था के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिमंडल के फाइनल अथारिटी होने के बावजूद प्रधानमंत्री से उत्कृष्ट भूमिका की अपेक्षा की जाती है. जवाब में पटेल ने भी गांधीजी को लिखित तौर पर कहा था कि यदि नेहरू की सर्वोच्चता वाली अवधारणा को स्वीकार कर लिया जाय तो प्रधानमंत्री तानाशाह की तरह हो जाएगा .
(३) महज एक वर्ष के अन्दर ही मतभेद इस कदर बढ़ गए थे कि नेहरू और पटेल दोनों ही नेताओं ने अपने पदों से इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली थी लेकिन इसी बीच ३० जनवरी १९४८ को गांधीजी ह्त्या के बाद दोनों नेताओं ने देशहित में अपने मतभेद भुला दिए .
        महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित करने या उनके नाम पर स्मारक बनाने के बजाय यदि उनके विचारों को आत्मसात किया जाता, यदि उनके आचरण को जीवन में उतारा जाता तो शायद यह उन महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रृद्धांजलि होती, किन्तु क्या देश के समूचे राजनैतिक परिदृश्य में ऐसा कुछ होता दिख रहा है ? भारत की राजनीति में महापुरुषों को वोट जुटाने का साधन बनाकर सियासी दल जिस तरह का खेल खेल रहे हैं, उसे उचित नहीं कहा जा सकता. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा स्थापित करने का जो निर्णय लिया, उसकी आलोचना करके कांग्रेस और अन्य कई दलों ने वर्त्तमान में सरदार पटेल को भी सियासी मुददा बना दिया है .
           मोदी या मोदी की विचारधारा से सहमति या असहमति से परे हटकर यदि सोचें तो आप निश्चित तौर पर पायेंगे कि सरदार पटेल को राजनैतिक बहस का केंद्रबिंदु बनाने की अपनी योजना में नरेन्द्र मोदी पूरी तरह सफल रहे हैं. 182 मीटर ऊंची अर्थात दुनिया की सबसे ऊंची लौह प्रतिमा स्थापित करने का उनका निर्णय और वह भी अभियान चलाकर देश भर के किसानों से उनके निष्प्रयोज्य हो चुके लौह कृषि यंत्रों को मांगकर, अर्थात किसानों से सहयोग के साथ ही उनकी श्रृद्धा बटोरने का अभिनव अभियान. सरदार पटेल की 138वीं जयन्ती पर केवाडिया में नर्मदा तट पर शिलान्यास तो हो चुका, बस अब इस विशालतम " स्टैचू ऑफ़ यूनिटी " के खड़े होने की प्रतीक्षा है .
        घोषणा के साथ ही कांग्रेस विरोध में उतर पड़ी और कहा कि पटेल ने ही सबसे पहले आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगाया था, इसलिए संघ, भाजपा या मोदी उन्हें अपना कैसे बता सकते हैं. दोनों ओर से वाकयुद्ध जारी है फिर भी सच तो यही है कि कांग्रेस या अन्य भाजपा विरोधी दल पटेल को चाहे कितना ही भाजपा या संघ की विचारधारा का विरोधी साबित करने की कोशिश करें लेकिन मोदी अपने समर्थकों ही नहीं विरोधियों तक को यह सन्देश देने में सफल रहे हैं कि कांग्रेस ने पटेल को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वह हकदार थे .
           इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि स्वाधीनता के बाद सारा देश सरदार पटेल को ही भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता था लेकिन पंडित नेहरू की महत्वाकांक्षा के सामने गांधीजी मजबूर हो गए थे और उनकी इच्छा के चलते पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए.ऐतिहासिक तत्थ्यों के अनुसार २९ अप्रैल १९४६ को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्वाचन में देश की कुल १५ प्रांतीय और क्षेत्रीय इकाइयों में से १२ ने गांधीजी की इच्छा के विरुद्ध सरदार पटेल के नाम पर अपनी सहमति व्यक्त की थी .बाद में गांधीजी के कहने पर ही पटेल ने अपना नाम वापस ले लिया था. यदि ऐसा न हुआ होता तो निश्चित तौर पर पटेलजी ही देश के प्रथम प्रधानमन्त्री बने होते और शायद तब देश की तस्वीर भी कुछ अलग तरह की होती .
      मंगलवार २९ अक्टूबर को अहमदाबाद में सरदार पटेल को समर्पित संग्रहालय के उदघाटन कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उपस्थिति में यही तो कहा था भाजपा के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने कि "अगर नेहरू की जगह पटेल पहले प्रधानमंत्री होते तो आज देश की तस्वीर कुछ और होती."बाद में मनमोहन सिंह ने भी मोदी को निशाना  बनाते हुए कहा कि पटेल न केवल धर्मनिरपेक्ष थे बल्कि कांग्रेसी भी थे. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पटेल कांग्रेसी थे तो इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि नेहरू और पटेल के बीच अनेकों मुद्दों पर हमेशा मतभेद रहे. यदि पटेल पहले प्रधानमंत्री होते तो शायद जम्मू-कश्मीर के आज जो हालात हैं वे नहीं होते. कश्मीर भारत का हिस्सा रहे या पाकिस्तान का इस पर नेहरूजी जनमत संग्रह के लिए भी सहमत हो गए थे लेकिन पटेल की दृढ़ता के चलते ही कश्मीर भारत के हाथों से जाते-जाते बचा था . 
     इस बात से भला कौन इनकार करेगा कि कांग्रेस में नेहरू परिवार के अनवरत वर्चस्व के कारण सरदार पटेल,डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री जैसे अनेकों वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा की गयी. अनेकों नेताओं ने तो अपनी उपेक्षा से आहत होकर राजनीति ही छोड़ दी.यद्यपि इससे नेहरूजी की प्रशासनिक क्षमता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगता किन्तु फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि क्या कांग्रेस में नेहरू परिवार के अतिरिक्त कोई नेता ही नहीं हुआ ? आखिर क्यों राष्ट्रीय स्तर पर संचालित अधिकाँश योजनाओं को केवल नेहरू-गांधी के साथ ही जोड़कर प्रस्तुत किया गया ? वह पी वी नरसिंह राव जिन्होंने कांग्रेस के दुर्दिनों में भी पार्टी और सरकार की नाव डूबने से बचाई थी, आज पार्टी में उनका कोई नाम तक लेने वाला नहीं है, क्या यह कृतघ्नता की पराकाष्ठा नहीं है ? मोदी ने यदि लौहपुरुष सरदार पटेल की विश्व में सबसे बड़ी प्रतिमा स्थापित करने का संकल्प लिया और यदि वह उस संकल्प को मूर्तरूप देने का प्रयास कर रहे हैं , तो क्या कांग्रेस द्वारा मोदी की आलोचना किया जाना केवल विरासत छिनने के भय की बौखलाहट नहीं है ?
       सरदार पटेल भले ही कांग्रेस के नेता थे लेकिन तब कांग्रेस दूसरी थी . वह कांग्रेस सारे देश की थी , सारे देश के लिए थी . क्या आज की कांग्रेस उस तरह की कांग्रेस है ? पटेल सारे राष्ट्र के नेता थे , उनमें सारे राष्ट्र की श्रृद्धा थी और शायद अभी भी है, इसलिए कोई पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि वह केवल उसी के थे . पटेल ही क्या सारे ही राष्ट्रीय नेता सम्पूर्ण राष्ट्र की अमूल्य थाती हैं , उन्हें कोई भी सम्मान देना चाहता है तो उसका प्रयास सराहा जाना चाहिए फिर चाहे सम्मान देने वाले की विचारधारा उससे मिलाती हो अथवा न मिलाती हो. आज मोदी पर निशाना साधा जा रहा है तो मोदी भी पटेल की उपेक्षा की बात उठाकर कांग्रेस का मुह बंद करने का प्रयास कर रहे हैं , लेकिन लोग तो सवाल करेंगे ही कि जो आज मोदी करने जा रहे हैं वह खुद कांग्रेस ने क्यों नहीं किया ? डॉ भीम राव अम्बेडकर भी तो कांग्रेस के ही नेता थे लेकिन आज बहुजन समाज पार्टी उनकी विरासत की सबसे बड़ी दावेदार है. बसपा ने अम्बेडकर जी की विरासत को कांग्रेस के हाथों से चीन लिया और कांग्रेस कुछ नहीं कर सकी . इसी तरह यदि कल को मोदी भी पटेल की विरासत को कांग्रेस के हाथों से छीन लेते हैं तो कांग्रेस क्या करेगी ?
     यद्यपि सच्चाई यही है कि वोट बिखरने के भय से कांग्रेस सरदार पटेल को लेकर मोदी पर आक्रामक है तो दूसरी ओर इस रार में मोदी भी अपना राजनैतिक हित देख रहे हैं . लेकिन फिर भी पटेलजी की प्रतिमा की स्थापना मोदी का सराहनीय प्रयास है और उसे स्वीकार किया ही जाना चाहिए .
                                             
                                                     -एस एन शुक्ल 

Saturday, 26 October 2013

पत्रकारिता में पक्षपात

                                    पत्रकारिता में पक्षपात 


     अभी हाल ही में चर्चित समाचारपत्र " द हिन्दू " के मुख्य उपसम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन ने यह कहते हुए अपने पद और अखबार से इस्तीफा दे दिया कि " द हिन्दू " सिर्फ नाम से ही हिन्दू है, जबकि यह अखबार घोर हिन्दू और मोदी विरोधी है। साथ ही उन्होंने आरोप लगाया है कि समाचारपत्र के मालिक कस्तूरी एंड सन्स के चेयरमैन एन. राम उन पर बहुत ज्यादा दबाव डाल रहे थे कि अखबार में हिन्दू विरोधी और मोदी विरोधी खबरें प्रमुखता से लगानी हैं।  आमतौर पर उत्तर और मध्य भारत के मीडिया और खासकर हिन्दी मीडिया पर हिंदूवादी होने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन बदले माहौल में मीडिया हाउस या तो वामपंथियों की गिरफ्त में हैं या ईसाइयों के अथवा उस तंत्र के आधिपत्य में जिसके हाथ में सत्ता है। ऐसा मीडिया सत्ता की खामियां छुपाने की कोशिश तो करता ही है , प्रायः सत्ता पर लगने वाले स्पष्ट आरोपों को भी कहीं कोने में और कहीं इतना छोटा स्थान देता है मानो वे महत्वहीन मसले हों। 
      ये आरोप नहीं हैं क्योंकि हालिया घटित एक जैसे दो मामलों में इसी मीडिया ने दुहरे मापदंड अपनाए। पहला मामला आतंकी सोहराबुद्दीन एन्काउन्टर मामले के आरोपी डीजी बंजारा के उस पत्र का था जिसे जेल से जारी करते हुए बंजारा ने कहा था कि उन्हें जेल से छुड़ाने में गुजरात सरकार ने कोई मदद नहीं की जबकि वह मोदी को अपना भगवान मानते थे। यह पत्र अखबारों में प्रमुखता से छापा तो चैनलों पर पत्र को लेकिर बहस भी हुयी। कांग्रेस को तो मानो मोदी के खिलाफ एक और हथियार मिल गया हो इसलिए उसने बाकायदा पत्रकार वार्ता बुलाकर स्टिंग ऑपरेशन की सीडी भी बांटी। उल्लेखनीय है कि बंजारा का पत्र कम्प्यूटर प्रिंट द्वारा जारी किया गया था लेकिन मीडिया ने यह पूछने की जरूरत महसूस नहीं की कि बंजारा को जेल में कम्प्यूटर कैसे उपलब्ध हुआ और किसने उपलब्ध कराया। 
     जिस दिन यह सब हो रहा था, ठीक उसी दिन एक ऐसी ही ख़ास खबर और भी थी कि न्यूयार्क की एक अदालत ने 1984 में भारत के  सिख विरोधी दंगों के दौरान सिखों की हत्याओं में शामिल रहे हत्यारों को बचाने के आरोप में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पेश होने के लिए समन जारी किया है।इस खबर को न तो अखबारों में जगह दी गयी और न ही खबरिया चैनलों ने ही तवज्जो दी। गुजरात दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी को केवल कांग्रेस ही गुनहगार नहीं ठहराती, वे कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी मोदी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ती हैं जो केवल कागजों में पंजीकृत हैं और जनाधार के नाम पर जिनके खाते में एक विधायक तक नहीं है।

     सवाल यह है कि गुजरात दंगों में तो हिन्दू और मुसलमान दोनों ही मरे थे और उन दंगों के भाजपा ही नहीं कांग्रेस के तत्कालीन विधायकों तक पर आरोप लगे थे, लेकिन 1984 के सिख विरोधी दंगों में तो एक ही समुदाय के लोग मारे गए। तब केवल दिल्ली में ही जितने सिखों का क़त्ल-ए-आम हुआ था गुजरात दंगों में हिन्दू-मुसलमान दोनों तबकों के उतने लोग नहीं मरे। यदि मीडिया गुजरात दंगों के लिए मोदी की ओर उंगली उठाता है तो उसे 1984 के सिख विरोधी दंगे क्यों नहीं याद आते ?यह भी उल्लेखनीय है कि सिख विरोधी दंगों के आरोपी कांग्रेसी नेताओं एचकेएल भगत, जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को अदालत और क़ानून के पंजों से बचाने और निर्दोष साबित करने के लिए कांग्रेस ने पुलिस और जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कर अपने नेताओं को भले ही बचा लिया हो, लेकिन यह गुनाह तो उसके सिर रहेगा ही।
     सिखों के क़त्ल-ए-आम पर तब अपनी टिप्पणी में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है (उल्लेखनीय है कि तब इंदिरा गांधी की ह्त्या के खिलाफ सिखों पर हमले हुए थे) और जवाब में भाजपा नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था " जब धरती हिलती है तभी पेड़ गिरते हैं, पेड़ों के गिराने से धरती नहीं हिला करती। "
       ये बातें तो सियासत की हैं, जहां आरोप और प्रत्यारोप के पीछे भी सियासी स्वार्थ होते हैं लेकिन जब मीडिया खबरों में पक्षपात करता है, गलत को सही ठहराने का प्रयास करता है और साथ ही निष्पक्षता का दम भी भरता है तब यह सवाल उठाना लाजिमी है कि मीडिया की बागडोर क्या किन्हीं दूसरे हाथों में है अथवा पद और पैसे से उपकृत हो रहा मीडिया अपने स्वार्थ की भाषा बोल रहा है? उल्लेखनीय है कि जिन एन. राम पर दबाव डालने का आरोप लगाते हुए सिद्धार्थ वरदराजन ने " द हिन्दू " अखबार की नौकरी छोड़ दी वह नरसिम्हन राम इसलिए  हिन्दू विरोधी हैं क्योंकि उनकी पहली पत्नी सूसन आयरिश हैं और वर्त्तमान में भारत में ऑक्सफ़ोर्ड पब्लिकेशन की इंचार्ज हैं तो हालिया पत्नी मरियम भी कैथोलिक ईसाई हैं। 
    अभी हाल ही में बरखा दत्त की बड़ी आलोचना इसलिए हुयी थी क्योंकि उन्हीं के साक्षात्कार में पकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देहाती औरत कहा था। बरखा दत्त NDTV में काम करती हैं और यही एकमात्र ऐसा चैनल है जो अधिकृत रूप से पाकिस्तान में दिखाया जाता है। बीते सप्ताह ही जावेद अख्तर ने कहा था कि मोदी अच्छे प्रधानमंत्री नहीं हो सकते।  यहाँ बताना आवश्यक है कि जावेद अख्तर "मुस्लिम फॉर सेकुलर डेमोक्रेसी " के प्रवक्ता हैं और यह संस्था तीस्ता सीतलवाड़ के पति जावेद आनंद चलाते है। शायद अब यह भी बताने की आवश्यकता नहीं है कि तीस्ता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों के लिए गुनाहगार ठहराने के लिए क्यों वर्षों से मुहीम चला रही हैं ?
     सीधी बात में अब प्रभु चावला की जगह एंकरिंग करने वाले  करन थापर ITV के मालिक हैं, जो बीबीसी के लिए कार्यक्रमों का निर्माण करती है।  इसके अतिरिक्त करन थापर के पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो आसिफ अली जरदारी की अच्छी मित्रता रही है। फिर आप थापर से कितनी उम्मीद कर सकते हैं कि वह हिन्दुओं के पक्ष में बोलेंगे ? भारत में सक्रिय और सबसे अधिक सर्वेक्षण के लिए चर्चित चैनल CNN-IBN ( मुस्लिम+ईसाई समर्थक ) चैनल हैं।  यदि वे भारत के हित की भाषा नहीं बोलते तो आश्चर्य किस बात का। डेक्कन क्रानिकल के चेयरमैन टी.वी. रेड्डी कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सदस्य रहे हैं तो वर्तमान में डेक्कन क्रानिकल और एशियन एज के सम्पादक एम.जे. अकबर भी कांग्रेस से जनप्रतिनिधि रह चुके हैं। सन टीवी चैनल समूह तथा  तमिल दैनिक दिनाकरन के मालिक कलानिधि मारन पूर्व केन्द्रीय संचार मंत्री दयानिधि मारन के भाई हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि दयानिधि मारन की पत्नी पत्रकार एन. राम की भतीजी हैं। एम. करुणानिधि के पुत्र एम. के. अझागिरी कैलाग्नार टीवी चैनल के मालिक हैं।  करूणानिधि की पुत्री कनिमोझी भी " द हिन्दू " अखबार की उपसम्पादक रही हैं।
   तमिल भाषा का सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अखबार ईनाडु तथा ETV चैनल के मालिक रामोजी राव आन्ध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के अभिन्न मित्र हैं। किसके कहाँ सम्बन्ध हैं और किस नेता का कौन सा अखबार या चैनल है , किस की किस मीडिया समूह में भागीदारी है, यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है फिर भी यह बता दें कि के. के. बिरला की बेटी शोभना भरतिया जो कांग्रेस से राज्यसभा सदस्या भी हैं इस समय हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की अध्यक्ष हैं।  जब अखबारों और टीवी चैनलों पर नेताओं और उद्योगपतियों का ही कब्जा है तो कैसी अपेक्षा की जा सकती है कि वे जनमत की भाषा बोलेंगे और अपने मालिकों की मर्जी के खिलाफ जाकर सच को सच कह पायेंगे ?
         
                                                        -एस. एन. शुक्ल 

Wednesday, 23 October 2013

भाजपा या कांग्रेस ?

                                   भाजपा या कांग्रेस ?

      बस दो महीने की प्रतीक्षा और पांच राज्योंके विधानसभा चुनाव परिणाम स्पष्ट कर देंगे कि केंद्र की अगली सरकार किस दल के नेतृत्व में गठित होगी। तीसरा,चौथा या पांचवां कोई भी मोर्चा क्यों न दावा कर रहा हो कि अगली सरकार उसी की बनेगी, लेकिन उनके लिए यह अभी बहुत दूर की कौड़ी है। केंद्र में सरकार भाजपा या कांग्रेस के नेतृत्व में ही पदारूढ़ होगी क्योंकि तीसरे या चौथे मोर्चे की वकालत कर रहे राजनैतिक दलों में से कोई भी दल ऐसा नहीं है जिसका अस्तित्व राष्ट्रीयस्तर पर हो। सवाल यह भी है कि जिस दल का राष्ट्रीय स्तर पर  कोई प्रभाव नहीं है, अन्य क्षेत्रीय दल उसका नेतृत्व स्वीकार करने को क्यों राजी होंगे ?
       लोग तर्क दे सकते हैं कि वीपी सिंह, देवगौड़ा, गुजराल या चंद्रशेखर की सरकारें भी तो केंद्र में पदारूढ़ रह चुकी हैं, वे सरकारें तो भाजपा या कांग्रेस के नेतृत्व में नहीं गठित हुयी थीं ? जवाब यह है कि वे सरकारें भी तभी बन सकीं और तभी तक अपना अस्तित्व बनाए रख सकीं, जब तक कि भाजपा या कांग्रेस में से किसी एक दल का सहयोग या समर्थन उन्हें हासिल था। यह अलग बात है कि कभी भाजपा केंद्र में महज दो सांसदों की ताकत  लेकर ही पहुँच पायी थी और कभी कांग्रेस का उत्तर  भारत से सूपड़ा ही साफ़ हो गया था, लेकिन फिर भीआज का सच यही है कि जनाधार, लोकप्रियता और विस्तार के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति केवल दो ही दलों भाजपा और कांग्रेस के आस-पास ही घूमती है   
        वर्ष २०१४ में देश के लिए आम चुनाव होने हैं, लेकिन उसके भी पहले पाँच राज्यों दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनाव अगले दो माह के भीतर ही संपन्न होने जा रहे हैं। मिजोरम अपेक्षाकृत छोटा राज्य है और वहां होने वाला कोई भी राजनैतिक परिवर्तन केंद्र की राजनीति पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं डालता।दिल्ली,राजस्थान,  मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की राजनैतिक उथल-पुथल केंद्र को निश्चित रूप से प्रभावित करेगी, इसलिए इन राज्यों के सम्पन्न होने जा रहे विधानसभा चुनावों को यदि वर्ष २०१४ के आम चुनावों का सेमीफाइनल मान लिया जाय तो गलत नहीं होगा।इन चार राज्यों में से दो इस समय भाजपा के कब्जे में हैं और दो कांग्रेस के। विधानसभा चुनावों में उथल-पुथल की संभावनाओं  से इनकार नहीं किया जा सकता, तो यह भी तय माना जा रहा है कि उपरोक्त चार राज्यों में से तीन पर जो भी बढ़त हासिल करेगा , केंद्र की अगली सरकार उसी दल के नेतृत्व में गठित होगी। 
          राजनीति में दोस्ती या दुश्मनी कुछ भी स्थायी नहीं होती तो कोई भी राजनैतिक निर्णय भी अंतिम नहीं होता।  चूंकि केंद्र में कांग्रेस सत्तारूढ़ है इसलिए सत्तारूढ़ गठबंधन के दल ही नहीं बाहर से समर्थन देने वाले भी कई दल अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति होने तक ही कांग्रेस के साथ हैं।  यदि आम चुनाव में कांग्रेस लड़खड़ाती है तो आज के उसके सहयोगी दलों में से शायद ही कोई उसके साथ टिका रह सकेगा। भगदड़ तो उपरोक्त पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रारम्भ होना तय है। भाजपा या कांग्रेस जिसका भी ग्राफ नीचे जाएगा उसके मित्र उसे टा-टा कहने में देर नहीं लगायेंगे और जिसका भी ग्राफ बढेगा उसके सहयोगियों की संख्या अनायास ही बढ़ जायेगी। 
          पाँच राज्य,६३० विधानसभा सीटें और ११ करोड़ ६० लाख मतदाता। ७० सीटों वाला राज्य दिल्ली सबसे महत्वपूर्ण है तो यहाँ की शीला सरकार के खिलाफ असंतोष भी मुखरित हो रहा है। भाजपा अपनी बढ़त के प्रति आश्वस्त तो है लेकिन इस बार सबसे बड़ी समस्या अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को माना जा रहा है। भाजपाई भी स्वीकार करते हैं कि आप के प्रत्याशियों के मैदान में होने से कांग्रेस का अगर बड़ा नुकसान होगा तो भाजपा के वोटों पर भी निश्चित रूप से प्रभाव पडेगा। यद्यपि  में भाजपा के पास २३ तो कांग्रेस के पास ४३ सीटें हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और महगाई से आजिज राज्य के मतदाता कौन सी करवट लेंगे, कहना आसान नहीं है।
     राजस्थान की २०० विधानसभा सीटों में से पिछले चुनाव में ९६ पर विजय का परचम लहराकर कांग्रेस ने भाजपा के हाथों से सत्ता छीन ली थी। तब से अब तक ढेरों पानी बह चुका है।  यूं भी राजस्थान हर पाँच वर्ष पर प्रायः सत्ता परिवर्तन के लिए जाना जाता है, फिर भाजपा को ७८ से १०० सीटों का आंकड़ा पार करना शायद बहुत मुश्किल नहीं होगा।  गहलोत सरकार लचर क़ानून व्यवस्था,भ्रष्टाचार और हालिया अपने ही मंत्री पर लगे यौन शोषण के आरोपों के कारण आक्रामक मुद्रा में कम, बचाव की मुद्रा में अधिक है। यहाँ भाजपा अपनी सुनिश्चित विजय मान रही है , लेकिन अंतिम फैसला तो राज्य के मतदाताओं को ही करना है।
       मध्य प्रदेश की कुल २३० सीटों में से भाजपा १४३ के साथ सत्ता पर काबिज है तो कांग्रेस ७१ सीटों के साथ विपक्ष में है। भाजपा का मानना है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की कार्यशैली और मोदीवाद के उभार के चलते भाजपा फिर सत्ता पर काबिज होगी, लेकिन इस राज्य में भाजपा के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए कांग्रेस अपनी पूरी ताकत लगा रही है। ग्वालियर के युवराज ज्योतिरादित्य सिंधिया को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर कांग्रेस युवाओं को आकर्षित करने का प्रयास कर रही है।  मध्य प्रदेश भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए महत्वपूर्ण है।  यद्यपि अभी तक दोनों ही दल अपने प्रत्याशियों का भी पूर्णरूप से चयन नहीं कर सके हैं , लेकिन राजनैतिक समीक्षक मानते हैं कि इस बार मुकाबला कांटे का है।
        छत्तीसगढ़ की ९० सीटों में से भाजपा ५० पर काबिज और सत्तारूढ़ है।  कांग्रेस ३८ सीटों के साथ विपक्ष में है तो माना जा रहा है कि मध्य प्रदेश के माहौल का प्रभाव छत्तीसगढ़ में भी पड़ेगा क्योंकि यह राज्य मध्य प्रदेश के विभाजन के बाद ही अस्तित्व में आया है।
        इन चुनावों में मोदी की लोकप्रियता की भी परिक्षा होना तय है। यदि मतदाता भ्रष्टाचार और महगाई के खिलाफ वोट देते हैं तो कांग्रेस के लिए मुश्किलें बढ़ना तय है और यदि वे साम्प्रदायिकता के खिलाफ जाते हैं, मोदी की आक्रामक हिन्दूवाद के विरोध में मतदान करते हैं तो भाजपा की राह भी आसान नहीं होगी। अब यह तो देश के मतदाता ही तय करेंगे कि वे देश की बागडोर किसके हाथों में सौंपना चाहते हैं, भाजपा या कांग्रेस ?
                                                      - एस. एन. शुक्ल 

Friday, 18 October 2013

बेटों पर भी जरूरी है अंकुश



                                     बेटों पर भी  जरूरी है अंकुश 


     निर्भया मामले में अदालत ने चारों आरोपियों को फांसी की सज़ा सुनायी। अखबारों ने कालम रंगे और कहा न्याय हुआ तो समाज का एक बड़ा तबका तो इतना खुश हो रहा था मानो देश ने फिर से आज़ादी हासिल कर ली हो। बड़ा सवाल यह है कि अदालत के इस फैसले से क्या समाज पर वास्तव में कोई असर पड़ा है ? क्या शोहदों और बलात्कारियों की हरकतों पर इससे विराम लगेगा ? और क्या लोग निर्भया मामले या उक्त मामले में आये अदालती फैसले को लम्बे समय तक याद भी रखेंगे?
        फिलहाल ऐसा कुछ होता तो नहीं दिखता। बलात्कार और छेड़खानी की घटनाएं थमने की बजाय शायद और भी बढ़ गयी हैं। उस दिल्ली की रफ़्तार पर भी कोई अंतर नहीं पड़ा जहां निर्भया को दरिंदों ने अपनी दरिन्दगी और हवाश का शिकार बनाया तथा जहां की अदालत ने उन्हें फाँसी की सजा सुनायी।ऐसी वारदातों की खबरों से देश के अखबार रोज ही रेंज रहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि मात्र क़ानून की सख्ती से ही अपराधों को रोक पाना संभव नहीं है। क़ानून अपराधी को सजा दे सकता है लेकिन वह भी तब, जबकि अपराधी के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य हों और अदालत में गवाह तथा वकील आरोपी को अपराधी साबित कर सकें। कानून समाज को नहीं बदल सकता।  समाज को बदलने के लिए तो समाज को ही पहल करनी होगी। 
       हम बेटी को तो तंग और देह दिखाऊ कपड़े पहनने से रोकते हैं,वह कालेज से घर आते समय रास्ते की जाम की वजह से भी लेट हो जाए तो सौ सवाल करते हैं। वह क्या करे और क्या न करे, इस पर आये दिन उपदेशात्मक व्याख्यान देते रहते हैं, लेकिन क्या बेटे के साथ भी ऐसा कर पाते हैं? बेटा क्या करता है,कहाँ जाता है,कैसे लोगों की शोहबत में उठता -बैठता है इन बातों पर कितना गौर करते हैं हम? बेटी की किसी लड़के से सामान्य मित्रता पर भी सौ सवाल, प्रेम प्रसंग की भनक भी लग जाय तो उसके घर से निकलने पर पाबंदी, मरने-मारने पर उतारू। यहाँ तक अपनी ही बेटी को मौत के घाट उतारने तक में संकोच नहीं, लेकिन वही कुछ बेटा करे तो क्या उसके भी दो तमाचे जड़कर उससे भी सवाल किये जाते हैं कहीं?
        पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऑनर किलिंग के नाम पर लम्बे समय से बहस-मुबाहसा जारी है,लेकिन इस मसाले का हल क्या हो,बेटियों को मौत के घात उतारने पर विराम लगे, ऐसे किसी निर्णय तक नहीं पहुंचा जा सका है। अदालत ने पिछले दिनों थोड़ा सख्त रुख अवश्य अपनाया था लेकिन जो सारा समाज इज्जत के नाम पर एक जैसी सोच से बंधा हो,जहां पंचायत और बिरादरी के भय से कोई मुह खोलने को भी राजी न हो, वहां ऑनर किलिंग के नाम पर हत्याएं हों तो अदालत के सामने साक्ष्य और गवाह कहाँ से लाये जायेंगे? दुर्भाग्य से इस समाज में भी प्रतिबन्ध केवल बेटियों के लिए ही हैं, बेटों के लिए नहीं। आखिर वही समाज यह क्यों नहीं समझ पाटा कि यदि बेटे सामाजिक वर्जनाओं का कड़ाईसे पालन करें तो बेटियाँ तो स्वयं ही उनका अनुकरण करने लगेंगी। 
     सच यही है कि समाज में फ़ैल रही गन्दगी और विषाक्तता का कारण बहुत हद तक समाज खुद ही है। वह बेटी और बेटों के मामले में दुहरे मानदण्ड अपनाता रहा है तो आज भी अपना रहा है। बस अंतर इतना अवश्य है कि पहले लोग समाज और सामाजिक प्रतिष्ठा की परवाह अधिक करते थे। बड़ों के प्रति सम्मान था तो उनकी नज़र में खुद की साफ़-सुथरी छवि बनाए रखने की एक दृढ़ परम्परा भी थी जिसके कारण समाज बिना किसी नैतिक शिक्षा के नैतिकता के प्रति समर्पित था। तब चरित्र को एक आवश्यक गुण के रूप में देखा जाता था और चरित्रहीन व्यक्ति समाज के लिए त्याज्य था। 
     आज ऐसा नहीं है। सारे परिवार और बच्चों  के साथ फिल्मों के अंतरंग दृश्यों को देखने में परहेज नहीं तो युवा होते बच्चे भी माता-पिता के सामने खुलने लगे हैं। फ़िल्में और धारावाहिक उन्हें प्रभावित करते हैं तो वे खुद भी उन पात्रों की तरह आचरण करने लगते हैं। शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इन दिनों टीवी चैनलों पर किस तरह के धारावाहिक कर रहे हैं और समाज में किस तरह की संस्कृति परोस रहे हैं। इन धारावाहिकों की अपसंस्कृति से भावी पीढ़ी को बचाने का शायद यही उपाय है कि अभिभावक खुद ही ऐसे कार्यक्रमों को देखने से परहेज करें। 
     सड़क चलती लड़कियों पर छीटाकसी तो लड़के ही करते हैं।  वे प्रायः संपन्न घरानों के भी होते हैं। इसका मतलब साफ़ है कि उन्हें परिवार में अच्छे संस्कार नहीं दिए गए। कहा जाता है कि बेटे में पिता के स्वाभाविक गुण पाए जाते हैं।  यदि बेटे  के चरित्र पर उंगली उठती है तो क्या पिता का चरित्र संदेह के घेरे में नहीं आता। शायद यह आज की आवश्यक आवश्यकता है कि समाज को सुधारने की शुरुआत घर से ही की जाय और बेटों को चरित्र प्रधान बनाया जाय। वे चरित्रवान होंगे तो न खुद समाज में गन्दगी फैलायेंगे और न ही दूसरों को फैलाने देंगे। अब फैसला आप ही करें कि सुधारने की जरूरत किन्हें है बेटियों को या बेटों को ?
                                                 
                                                                                 -एस.एन. शुक्ल 

Wednesday, 16 October 2013

हवा में तीसरा मोर्चा



                                                    हवा में तीसरा मोर्चा

     हर आम चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे का राग अवश्य सुनायी देता है लेकिन यह मोर्चा मूर्तरूप लेता हुआ अभी तक तो देखा नहीं गया .इस बार सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने के फिर दावे कर रहे हैं.दरअसल २०१२ के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता से उत्साहित समाजवादी पार्टी ने लक्ष्य २०१४ का नारा बुलंद करते हुए लोकसभा चुनाव में केंद्र में सत्तासीन होने की परिकल्पना की थी. मुलायम उसी परिकल्पना को मूर्तरूप देने के लिए व्यग्र हैं.सवाल यह है कि यदि तीसरा मोर्चा गठित करने की कवायद होती भी है तो मोर्चे के साथ आयेंगे कौन-कौन दल और मोर्चे की अगुवाई कौन करेगा ?फिलहाल संभावित तीसरे मोर्चे के मुलायम सिंह यादव स्वयंभू नेता हैं और इस मोर्चा बनाने की छटपटाहट  के पीछे उनकी खुद की महत्वाकांक्षा है .
         वर्ष १९९६ में तीसरे मोर्चे का राग बड़े तेज स्वर में बजा था और उस राग को बजानेवाले थे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत .सबको पता है कि वामपंथियों को भाजपा और हिंदुत्व से सदैव एलर्जी रही है .वर्ष १९९० में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाकर सपा मुखिया मुलायम सिंह "मुल्ला मुलायम "का खिताब पा चुके थे तो स्वाभाविक तौर पर वामपंथियों से उनकी निकटता भी बढ़ गयी थी. कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेकने,धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने और साम्प्रदायिकता की प्रतीक भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर तब हरिकिशन सिंह सुरजीत ने तीसरे मोर्चे की मुहीम को हवा दी थी तो मुलायम सिंह यादव के सिर पर वरदहस्त रख उन्हें प्रधानमंत्री पद के सपने भी दिखाए .
      तब्ब लोकसभा में तीसरा मोर्चा बड़ी ताकत के रूप में उभरकर आया भी था, लेकिन सुरजीत की पुरजोर पैरवी के बावजूद मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर सहमति न बन सकी. उस समय मोर्चे में सबसे बड़ा घटक जनता दल था जो उस पीड़ा को भुला नहीं पा रहा था जब १९९१ में मुलायम सिंह ने जनता दल तोड़कर पहले चंद्रशेखर की अगुवाई में सजपा का दामन थामा और फिर चाँद दिनों बाद ही अपनी अलग समाजवादी पार्टी बना डाली .अर्थात जनता दल द्वारा आपत्ति के कारण ही तब मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे, लेकिन वह टीस आज भी उनके मन में है और वह किसी भी तरह एक बार भारत के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने का सपना पूरा करना चाहते हैं .
        वामदलों के बीच स्थापित अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण उसके बाद भी मुलायम स्वीकार्य बने रहे तो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य से बड़ी ताकत के साथ वह लोकसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे .वर्ष २००८ में जब भारत-अमेरिकी परमाणु करार का विरोध करते हुए वामदलों ने यूपीए-1 सरकार से समर्थन वापस लिया था तो उन्हें मुलायम से भी सरकार के विरोध की उम्मीद थी,लेकिन मुलायम तब सरकार के साथ खड़े नज़र आये. अभी बहुत दिन नहीं हुए जब एफडीआई मुद्दे पर मुलायम सिंह ने जो दांव खेला था उससे उन पर सर्वाधिक भरोसा करनेवाले वामदलों को भी गहरा आघात लगा था.जब वामदल एफडीआई के विरोध में वोटिंग पर मुलायम का सहयोग चाहते थे , उस समय उन्होंने संसद से बहिर्गमन कर परोक्ष रूप में सरकार की मदद ही की .
     राष्ट्रपति चुनाव के समय ममता बनर्जी को भड़काने वाले और फिर अचानक पाला बदल लेने वाले मुलायम सिंह ही थे. जयललिता राजग की ओर फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ा चुकी हैं .चंद्रबाबू नायडू को भी भाजपा के साथ जाने में ही अपना हित लग रहा है.बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद को मुलायम से बड़ा नेता मानते हैं तो वह क्यों तैयार होंगे मुलायम का नेतृत्व स्वीकार करने को ? यूं भी इस समय उनकी कांग्रेस से गहरी छन रही है. अकाली दल पंजाब में भाजपा के साथ सत्ता का सुख भोग रहा है. हरियाणा में इनेलो को वर्त्तमान परिस्थिति में भाजपा ही सबसे बड़ी मददगार नज़र आ रही है तो उत्तर प्रदेश में रालोद अब किसी भी कीमत पर सपा से हाथ मिलाने को तैयार नहीं है.
          जहां तक वामदलों का सवाल है तो वे बंगाल में ही अभी अपनी बिगड़ी सेहत संभाल पाने की स्थिति में नहीं हैं.बिहार में कभी वे ताकतवर थे भी तो अब गुटों में बट जाने के कारण वे खुद ही पस्त नज़र आ रहे हैं.लालू प्रसाद यादव भले ही इन दिनों जेल में हैं लेकिन उनकी पार्टी राजद,  मुलायम को कभी भी नेता स्वीकार करने को तैयार नहीं होगी.द्रमुक इस समय कांग्रेस के साथ है और हाल-फिलहाल वह अलग भी नहीं होगी. कर्नाटक में देवगौड़ा को किसी सहयोगी की दरकार तो है किन्तु सपा की वहां कोई ताकत नहीं है तो देवगौड़ा किसी अन्य राज्य में किसी दूसरे  की मदद कर पाने की स्थिति में नहीं हैं.
      सवाल यह है कि यदि फिर भी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तीसरा मोर्चा बनाना ही चाहते हैं तो उस मोर्चे में शामिल होने वाले दल भी वही होंगे जो शायद ही एक या दो सांसदों के साथ लोकसभा पहुँच सकें और सदन में दलों की सूची में अपने नाम को दर्ज करा सकें.
    मुलायम अखाड़े के पहलवान रहे हैं लेकिन अपने राजनैतिक जीवन में अपने सहयोगी दलों को भी पटखनी देने में अखाड़े के दांव आजमाते रहे हैं. उत्तर प्रदेश में जब मुलायम सरकार जनता दल और कांग्रेस के सहयोग से चल रही थी तब जनता दल के ३२ में से २८ को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल करनेवाले और जनता दल की जड़ों में मट्ठा डालने वाले भी मुलायम सिंह ही थे.बसपा के साथ उन्होंने जो किया वह इतिहास का काला अध्याय ही कहा जाएगा तो रियायत उन्होंने अपने सियासी गुरू चौधरी चरण सिंह और वरिष्ट राजनेताओं हेमवती नन्दन बहुगुणा, वी.पी.सिंह और चंद्रशेखर के साथ भी नहीं की.
        यही वजह है कि मुलायम सिंह की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने वाले भी उनसे सतर्कता और शंका के साथ ही हाथ मिलाते हैं. वर्त्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में न तो सपा प्रमुख से हाथ मिलाने के लिए कोई सशक्त सहयोगी नज़र आ रहा है और न ही भाजपा या कांग्रेस नीत गठबंधनों के अतिरिक्त किसी मजबूत महाज के बनने की संभावनाएं ही दिखाई दे रही हैं. फिर भी यदि मुलायम सिंह यादव तीसरे मोर्चे का राग अलाप रहे हैं, तो यह तो वही बता सकते हैं कि आखिर कैसे बनेगा उनके सपनों का तीसरा मोर्चा .
                                                           
                                                                                           -एस.एन.शुक्ल