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Monday 28 May 2012

समाधान क्या है ?

            लूट तो हर जगह है और समस्याएं भी अनंत/ आज जनता से जुडी प्रायः हर समस्या का कारण भ्रष्टाचार है/ जन लोकपाल बिल कानून का रूप ले भी ले तो क्या
आम आदमी की बिजली, पानी, सड़क, सफाई और राशन कार्ड जैसी सम्स्याओं का समाधान हो जाएगा ? इसके
लिए तो खुद ही लड़ना पडेगा/ जीवन है तो समस्याएं भी रहेगी और उनके समाधान के लिए संघर्ष भी, और जीतेगा
भी वही जो लडेगा/
            भारत का संविधान किसी ने नहीं बनाया/ सैकड़ों विद्वानों, विधिवेत्तायों, धर्माधार्यों आयर मनीषियों की 2
बरस 11 माह 18 दिन की म्हणत और माथापच्ची के बाद निर्मित किये गए संविधान में उसके लागू होने के बाद
से ही संशोंधन भी शुरू हुए और वे आज तक हो रहें हैं/ इसका स्पस्ट कारण है की भारतीय संविधान अभी तक पूर्ण
नहीं है और शायद भविष्य में भी नहीं हो पायेगा/ परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है और उस परिवर्तन के साथ
परिस्थितियां तथा आवश्यकताएं भी बदलतीं हैं तब कई जरूरतों के लिए संविधान में नए आयाम जोड़े जायेंगें,
लेकिन उससे पुराने की उपयोगिता समाप्त भी नहीं हो जायेगी/ यह हर उस देश में होता है जहां लिखित संविधान
प्रभावी है इसलिए भारत के संविधान में भी वे अपेक्षाएं रहेगीं लेकिन इससे वर्तमान संविधान अनुपयोगी और
निष्प्रयोज्य नहीं हो जाता/
            समय के साथ लोगों की प्रवृत्ति बदलती है, अच्छे बुरे लोगों का अनुपात बदलता है/ वर्तमान में असंतोष
बढ़ा है और सच्चाई यही है की असंतोष का कारण देश की भौतिक प्रगति ही है/ जब पड़ोसी ओर संबंधी हमसे
ज्यादा वैभव और सुविधायों का भोग कर रहें हों, तो हम भी उन्हें हासिल करने के लिए लालायित हो उठते हैं/ परिवार और बच्चों की जिद और दबाव के आगे कितने ऐसे लोग हैं जो उचित-अनुचित की सीमाओं में बंधे रहते
हैं ? अन्दर कहीं कसमसाहट होती है की हम पड़ोसी या रिश्तेदार के बच्चों जैसी सुविधाएं अपने बच्चों को नहीं दे
पा रहें हैं, और यहीं से नैतिक-अनैतिक की सीमाएं टूट जाती हैं/ भ्रष्टाचार की यहीं से शुरुवात हो जाती है/
परिवर्तन चाहे कैसा भी हो उसके साथ बहुत से दोस्त निश्चित रूप से आते हैं ऋतुएं बदलती हैं और दो-दो ऋतुयों
के संधिकाल में प्रायः शारीरिक व्याधियां भी धावा बोलती हैं/ तब लोग सर्दी, जुकाम, सिरदर्द, खासी, बुखार आदि 
का प्रायः सामना करते हैं, उनका इलाज भी किया जाता है/ भारत में इन दिनों उसी तरह का पुरातन और नवीन 
मान्यताओं का, रूढ़िवादिता और प्रगतिशीलता का, पश्चिम के प्रभाव का, बढ़ते संसाधनों और सुविधायों का 
संधिकाल है, अर्थात जटिलताओं भरा संधिकाल/ जिस प्रकार व्याधियों से घिर जाने पर शरीर का इलाज किया 
जाता है उसी प्रकार परिवर्तन जनित व्याधियों से घिरे समाज और राष्ट्र का इलाज भी जरूरी है/
            बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्र जागरण अभियान या अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल को 
लेकर किये गए आन्दोलन और लोकपाल शब्द से पूर्व जन शब्द जोडनें का उद्देश्य महज एक था, देश भर में 
व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रभावी विराम लगाना, जनहितकारी योजनाओं को अंतिम और पात्र व्यक्ति तक 
सुनिश्चित तौर पर पहुचाया जाना तथा विकास की दिशा को सर्वांगीण और सर्वव्यापी बनाना/ जो लोग इन 
आन्दोलनों के विरोधी रहें हैं अथवा हैं उनकी समाज और राष्ट्र के प्रति निष्ठा सन्देह से परे नहीं है/ फिर भी 
उम्मीदें समाप्त नहीं हुयी हैं/ जब एक बार राष्ट्र विरोध में खड़े होने का साहस जुटा लेता है, तो फिर वह बार-बार खडा होता है, और ऐसा हो चुका है/
              अभी उम्मीदें समाप्त नहीं हुईं हैं/ इस देश का आम आदमी हजारों वर्षों से उम्मीदों के सहारे जीता 
गया है/ यह प्रकृति प्रदत्त है/ आकाशीय वर्षा के भरोसे फसल बोने वाला किसान सोचता है की वर्षा अच्छी 
होगी तो उसकी फसल भी अच्छी होगी/ बरसात अच्छी नहीं होती, फसल सूख जाती है, तब भी वह उसे 
अपना प्रारब्ध मानकर संतोष कर लेता है/ फिर खेतों में नयी उम्मीदों के ताने-बाने बुनते हुए बीज डालता है, चाहें वे वर्षों-वर्ष न पुरे हों/ यहाँ आततायी और अन्यायी का मुकाबला करने के लिए देवी-देवताओं, पीरों-फकीरों, मजारों की अद्रश्य शक्तियों से मदद माँगने और याचना की पुरानी परम्परा है/ लोग सोचते हैं की ईश्वर हर 
अन्यायी को सजा अवश्य देगा/ एक विदेशी आक्रान्ता ने मुट्ठी भर सेना के बल पर सोमनाथ मंदिर को लूट 
लिया और हजारों भक्त देखते रहे की भगवान शिव अभी अपनी तांडव मुद्रा में प्रकट होंगें और आक्रान्ता 
सेना का विनाश हो जाएगा/ वह नहीं हुया लेकिन न देवता और न ही उस मंदिर के प्रति लोगों की आस्था कम 
हुयी/
           2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा जेल चले गए, लोग इतने भर से खुश हैं की उसे कर्मों की सजा मिली 
है/ वे नहीं जानते की यह इतना बड़ा घोटाला था, इतनी बड़ी धनराशि की हेराफेरी थी की राजा उस धन से शायद 
एक टापू खरीदकर वास्तव में राजा बन सकता था/ यहाँ आदमी  बीमार होता है और दुर्भाग्यवश बीमारी कुछ लम्बी खिचती है तो लोग औलिया, पीर, औघड़, गंडडा- ताबीज, और मंदिरों 
की शरण में जाते हैं/ ईश्वर दंड देगा, ईश्वर सब कुछ ठीक कर देगा/ यह अंध आस्था इतनी है की सड़क के 
किनारे रात में किसी पेड़ पर लाल रंग की एक झंडी बाँध दो तो अगले दिन से लोग उस पेड़ की पूजा करने लगते 
हैं/ जीवित आदमी चाहें भीषण ठंढ में फुटपाथ पर ठिठुरकर दम तोड़ दे, उसकी मदद के लिए कोई बिरला हांथ 
ही आगे आयेगा, लेकिन मंदिर-मस्जिद की तामीर के नाम पर लाखों दान करने में भी संकोच नहीं/
             लोग कहते हैं भारत आस्थाओं का देश है, लेकिन जहां तक मैं समझ सका हूँ, यह भीरु जन से घिरा 
हुआ देश है जहां कुछ करने की बजाय कुछ पाने की अपेक्षा अधिक रहती है/ हम अपने दायित्व का निर्वहन कर 
रहे हैं या नहीं इसे देखना नहीं चाहते, किन्तु हम दूसरों की और उंगली उठाने, उन्हें उनका दायित्वबोध कराने 
से नहीं चूकत आयर इतना ही नहीं यदि कोई कुछ करता है तो उसमे दोष निकाकानें उसकी आलोचना करने 
का अवसर भी हम अपने हाँथ से जाने जाने नहीं देना चाहते/यह आलोचना आज अन्ना हजारे की मुहीम की भी 
हो रही है, बाबा रामदेव की भी हो रही है और शान्तिभूषण की भी/ लोग जिन उम्मीदों के साथ इस आन्दोलन के 
पक्ष में खड़े हुए थे वे अनंत हैं तो वे सभी हल भी नहीं हो सकतीं, जब तक की लोग खुद कुछ करना नहीं चाहेंगें/ जब चुनाव होता है तो देश का आम आदमी उसमें मतदान को अपना कर्त्तव्य मानकर योगदान नहीं करता/ सही और गलत प्रत्याशी का खुद फर्क नहीं करता/ यदि योग्य और ईमानदार प्रत्याशी का चयन हो, संसद और 
विधानसभाओं में अच्छे लोगों की संख्या बढ़ जाये तो देश की और आम जमता से जुडी 50 फीशदी से अधिक 
समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाएगा/ यह लोग समझते भी हैं जानते वही हैं लेकिन मानते नहीं/
              भारत लोकतांत्रिक देश है, अर्थात जनता द्वारा शासित लेकिन जनता यह समक्ष नहीं या रही की वह 
स्वयं शासक है/ वह अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए खुद तैयार नहीं हैं और अपनी ही गलतियों का दोष 
दूसरों के सर मढ़ रही है/ जो मतदान में भागीदारी नहीं निभातें, उनकी संख्या भी आधी है तो कहीं-कहीं आधी 
से अधिक भी, और सच्चाई यही है की वे ही व्यवस्था के दोषों के सबसे बड़े आलोचक भी हैं/ स्पस्ट है की वे 
वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं, लेकिन यदि वे अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं करते तो क्या उन्हें दूसरों से 
ईमानदारीपूर्वक कर्त्तव्य निर्वहन की अपेक्षा करनी चाहिए/
             किसी बाबा के पास, किसी समाजसेवी के पास जादू की छडी नहीं है की वह मंत्र फूंकेगा और सब कुछ 
सही हो जाएगा/ व्यवस्था बदलनें के लिए सुधार की शुरूवात खुद से करनी होगी, निजी स्वार्थों को तिलांजलि 
देनी होगी, अन्याय के प्रतिकार में खड़े लोगों को समर्थन देना होगा, छोटे से छोटे भ्रष्टाचार का विरोध करना 
होगा और यह विरोध संगठित रूप से करने के लिए दूसरे ऐसे लोंगों की लड़ाई में भागीदारी निभानी होगी और 
सबसे बड़ा काम यह है की आगामी हर चुनाव में इमानदार और कवक इमानदार प्रत्याशी के पक्ष में मात्रां का 
संकल्प लेना होगा तभी बचाया जा सकेगा राष्ट्र का स्वाभिमान/
                                                                       
                                                                                                                                  एस. एन. शुक्ल   
   

2 comments:

  1. सही कहा आपने ..

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  2. तात्कालिक स्थितियों परिस्थितियों का सुन्दर अवलोकन करती पोस्ट!
    सच्चाई किसी की मोहताज नहीं होती ?यही बात आपने कहीं हैं --

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