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Thursday, 24 May 2012

चौथे स्तम्भ की लोकतान्त्रिक सत्ता पर गहराते संकट

चौथे स्तम्भ की लोकतान्त्रिक सत्ता मौजूदा दौर में सवालों के घेरे में है/ स्वयं पत्र व्यवसाय ही व्यावसायिकता 
के काकस में घिरा हुआ है/ जहाँ एक तरफ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का व्यावसायिक स्वार्थ चौथे स्तम्भ के  बुनियादी ढाँचे के लिए एक तरह का खतरा है तो वहीं भारत की विभिन्न राजनैतिक पार्टियों का गणित एक दुसरे
प्रकार का खतरा है/ एस व्यावसायिक स्वार्थबद्दधता के कारण आज पूरे भारत की पत्रकारिता दो समूहों में बंट
गयी है/ इसमे से एक पत्रकार समूह जनता के प्रति समर्पन का भाव रखता है और चौथे स्तम्भ के मूल रूप को
बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है तो दूसरी स्थिती का पत्रकार समूह सत्ताधीशों तथा प्रशासनिक अभिकारियों के
हितों के लिए प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से कार्यरत है/ यह स्थिती पत्रकारिता के लिए समग्र चिंतनीय होने क्र साथ-साथ चौथे स्तंभ की स्वतंत्र सत्ता के ऊपर गहराते खतरे के रूप में देखा जा सकता है/
               कहना गकत न होगा कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता के ऊपर संकट के बादल होने की शुरुआत
आपातकाल के समय से हुयी थी/ बावजूद इसके उत्तर भारत के क्षेत्रीय पत्रकारों में सन 1970 तक जनता में
समर्पण का भाव नजर आता था/ यह जन समर्पण का भाव आज भी स्थानीय स्तर के पत्रकारों में मौजूद है/ आंचलिक पत्रकारिता आज भी उर्जावान है/ यद्यपि  उसके विषय बहुत अधिक रोचक और स्थाई नहीं हैं पर फिर भी गाँव, देहात, खेत, खलिहानों से जुड़े बुनियादी सवाल, आंचलिक भाषा के तेवर और भारत की
प्रसिद्ध लोकोक्तियों से भरपूर ग्रामीण भाषा की गर्मी एस आंचलिक पत्रकारिता से नए रंग देती रही है/ मिटते-मिटते भी आज की पत्रकारिता का यह जिवित धरातल है जो  के अक्षर बीनती उँगलियाँ और हाँथ से चलते
छापाखानों की काली स्याही की छाप से शुरू हुआ यह सफ़र कम्पूटर पर कम करती उँगलियों से होता हुआ आफसेट
की आधुनिक मशीनों तक पहुँच गया है लेकिन पुरानी कार्यशैली आज तक प्राणवंत है और मानवीय है/
             वहीं आज ज़माना आधुनिकता का है/ आधुनिक तकनीकी, भाषा को निरंतर क्लिष्ट होने के साथ-साथ
निष्प्राण भी है और बहुधा निरर्थक निष्प्रयोज्य भी है ज्यादा तर पत्रकार पब्बे काले करते हैं/ और इधर उधर से
कंचे की गोलियों की तरह सरकते निष्ठाहीन राजनीतिज्ञों के हालिया बयानों को ही जनता से जुडी पत्रकारिता कहकर
लिखते रहते हैं/ हम जानते हैं की इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है/
             संजय गांधी और इंदिरा गांधी के मर्यादाहीन शासनकाल में भारत की पत्रकारिता घुटनों तले बैठकर
अभ्यर्थना में मश्गुल थी/ केवल उत्तर भारत तथा मध्यप्रदेश के कुछ प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्रों सने एस
आपातकाल स्तुतिगान से खुद को बचाकर रखा था पर महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, हिमांचल प्रदेश और
राजस्थान में शायद ही कोई समाचार पत्र रहा हो जिसके सम्पादक मंडल अथवा किसी विशेष संवाददाता को सरकारी
यंत्रणा का शिकार न होना पडा हो/ इसके विपरीत अपने सीमित शाधनों की व्यस्थ व्यवस्था में से ही उत्तर
भारत के अधिकांश समाचार पत्रों ने अपनी गुणवत्ता तथा जन सापेक्ष द्रष्टि को बनाए रखा जिससे कि जनता को
कहीं से कोई खतरा नहीं पहुंचा/ आपातकाल के भयभीत अन्धेरों में भी अगर दिल्ली में जनसत्ता, दैनिक
हिंदुस्तान, और नव भारत टाएम्स निरंतर निष्पक्ष पत्रकारिता के समाचार पत्र बने रहे/ तब इलेक्ट्रानिक
मीडिया नहीं था रस वक्त दूरदर्शन भी इतना प्रसारित नहीं था बावजूद इसके आकाशवाणी और दूरदर्शन
सरकारी प्रचार के रूप में कार्य कर रहा था/ ऐसे समय में इंदिरा गांधी, संजय गांधी और युवा कांग्रेश कम्पनी
के अत्याचारों की राई रत्ती समीक्षा केवल एस हिन्दी भाषी समाचार पत्रों के माध्यम से ही माता पुत्र
प्रशासन की पोल-पट्टी खोलती है और भारत की बहुसंख्यक ग्रामीण और शहरी जनता तक सच्चाइयां बहुत
साफ तरीके से पहुचती थीं/ भारत का लोकतंत्र एन कलम के सिपाहियों का सदैव कर्जदार रहेगा/ जिनके साहस
तथा निष्पक्षता के कारण ही आपातकाल के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को जनता का अभूतपूर्व
समर्थन मिला और जयप्रकाश नारायण आन्दोलन इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गया और
सन 1977 में जनता पार्टी कांग्रेस के विकल्प के रूप में सामने आयी/
                जनता पार्टी सरकार के पतन के साथ ही भारत में पत्रकारों तथा पत्रकारिता पर भी खतरे बढनें लगे/
जनता के प्रति समर्पण का भाव कम होता गया तथा सत्तापुरुशों को महिमा मंडित करके सुविधाएं प्राप्त करने
के लिए इक्षुक पत्रकारों की एक बाढ सी आ गयी/ आज के युग समाचार पत्रों के अधिकांश प्रकाशन सरकार का
मुंह देखकर ही हो रहें हैं/ सुचनायों का संग्रहण कम होता जा रहा है तथा सरकारी प्रचार-प्रसार माध्यमों पर
निर्भरता बढ़ती जा रही है/ इस खतरे से हम कैसे निबतेंगे ये सोचना भी बंद ओ गया है/
               जन समस्यायों के शसक्त पैरोकार के रूप में कल तक बोलने वाले पत्रकार अब चुप हों गए हैं/ धीरे-धीरे जन सामान्य भी एस सर्वव्यापी अन्याय और भ्रष्टाचार का आदी हो गया है/ जनता के बीच में अन्याय के
प्रति एक प्रकार की सहनीयता आ गयी है/ या फिर से वह समाचार पत्रों के मंच को समस्यायों के निदान के लिए
पूर्णतया अनुपयुक्त मान रहें हैं/
                जब भारत का जन सामान्य स्वयं ही सभी समस्यायों का निराकरण कर रहा हो तब समाचार पत्रों
की भूमिका केवल सुचनायों के प्रसारण तक ही सीमित रह जाती है/ कभी समाचार पत्रों का एक साहित्यिक
प्रचार भी होता था पर आज दैनिक पत्रों के माद्यम से बहुत ही सतही किस्म का साहित्य मूलक लेखन सामग्री
भारतीय जन सामान्य तथा पाठक वर्ग तक पहुच रही है/ इसके लिए जरुरत है किसी प्रतिबद्ध साहित्यिक
आन्दोलन की/ जिसमें पत्रकारिता के मूल स्वरुप को बचाया जा सके और चौथे स्तंभ की लोकतान्त्रिक सत्ता
को बहाल किया जा सके/
                                                  अजमेर अंसारी

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