अभिशाप नहीं है बढ़ती आबादी
देश की बढ़ती जनसंख्या क्या वास्तव में अभिशाप है ? सरकारों और बुद्धिजीवी वर्ग की बंद कमरों में होने वाली गोष्ठियों की चिंता को देखें तो लगता है कि शायद देश की सारी समस्याओं की मूल वजह बढ़ती जनसंख्या ही है / अब से महज चार दशक पीछे लौटें तो अभाव , अकाल , भुखमरी , गरीबी कहीं वर्त्तमान से भी ज्यादा नज़र आती है / इन चालीस वर्षों में देश की जनसंख्या बढ़कर ढाई गुना से भी ज्यादा हो गयी , लेकिन फिर भी समस्याएं उतनी नहीं हैं जितनी कि तब थीं / जनसंख्या बड़ी , वाहनों की तादाद बीस गुने से भी ज्यादा हो गयी तो सडकों पर , ट्रेनों में , अस्पतालों में भीड़ का बढ़ना भी स्वाभाविक है / तब आदमी पैदल या साइकिल से चलता था , अब स्वचालित दुपहिया या चौपहिया वाहनों पर , जो आदमी की अपेक्षा कई गुना ज्यादा जगह घेरते हैं , तो फिर भीड़ तो बढ़ेगी ही और रास्ते भी सकरे होते जायेंगे / तब जानलेवा बीमारियों , महामारियों में असमय मौतों की संख्या सर्वाधिक थी , इसी वजह से आम आदमी की औसत आयु बहुत कम थी / अब दुर्घटनाओं की बहुतायत के बावजूद औसत आयु दर बढ़ी है / इसका सीधा सा अर्थ है कि सुविधाएं और स्वास्थ्य सेवायें भी बढ़ी हैं , भले ही वे अभी विक्सित राष्ट्रों की तुलना में बहुत कम हैं /
अब ज़रा जनगणना के आंकड़ों पर गौर करें / बीते वर्ष 31 मार्च 2011 को जनगणना के जारी किये गए आंकणों में भारत की आबादी 1.21 अरब अर्थात 121 करोड़ बतायी गयी थी / उस लिहाज से देखें तो दुनिया की जनसंख्या में भारत की आबादी का प्रतिशत बढ़कर 17.5 हो गया / पिछली जनगणना 2001 की तुलना में जनसंख्या में वृद्धि का प्रतिशत 15 से 16 रहा , अर्थात जनसंख्या विस्फोट के मुहाने पर बैठे भारत के उन माता - पिताओं को सद्बुद्धि आ गयी जो प्रजनन और जनसंख्या वृद्धि में योगदान को ही अपना एकमात्र धर्म मान बैठे थे / उन्होंने शायद खुद ही जनसंख्या वृद्धि की दुरूहताओं और अपनी संतानों को उचित परवरिश देने के लिहाज से कम संतान पैदा करने के सिद्धांत को अपनाया / यह वृद्धि निश्चित तौर पर सुखद परिणाम ही मानी जायेगी क्योंकि दस वर्ष में जनसंख्या की पंद्रह - सोलह फीसदी बढ़ोत्तरी तब कोई मायने नहीं रखती जबकि औसत आयु में अप्रत्याशित वृद्धि हुयी हो /
वे जो साथ - सत्तर वसंत देख चुके हैं , देश के ऐसे बुजुर्गों की करोड़ों की तादाद आगामी एक - दो दशकों में अपनी आयु पूर्ण कर लेगी , और संतानोत्पत्ति के मामले में जैसी जागरूकता आज समाज में दिख रही है , यदि वह बरकरार रही तो आगामी दो दशकों में ही जनसंख्या की बढ़त और मृत्यु दर का आंकड़ा बराबरी पर पहुँच जाएगा / अर्थात जितनी संख्या में नवजीवन शरीर धारण करेगा लगभग उतने ही लोग इस दुनिया को अलविदा भी कह चुके होंगे / इस समय भारत सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला देश है , अर्थात उनका जिनकी आयु १८ से ४० वर्ष के बीच है / ये युवा अचानक और करीब - करीब एक साथ बूढ़े भी होंगे और पृकृति के नियमानुसार इस दुनिया से विदा भी लेंगे / शायद तब बिना किसी प्रयास के अचानक लगेगा जनसंख्या वृद्धि पर विराम / इसका सीधा सा अर्थ यह है कि यदि अब बढ़ती आबादी रोकने के सरकारी प्रयास न भी किये जाएँ तो भी जनसंख्या के बढ़ने के खतरे नहीं हैं /
अब प्रकृति के खेल पर भी गौर करें / उसका अपना खेल है, जो प्रकृति से खेलने लगता है तो प्रकृति उससे खेलने लगती है / जनगणना के आंकड़ों पर ही गौर करें तो लकड़ियों की लगातार घटती तादाद और पुरुष तथा महिलाओं की तादाद में बढ़ता आनुपातिक अंतर वास्तव में चिंता काविशय है / जन्म दर घटी है और उसमें भी लड़कों की अपेक्षा लाकदियं की ज्यादा घटी है / यदि यही स्थिति बरकरार रही तो आगामी दस वर्ष बाद भारत के बीस फीसदी से भी अधिक पुरुषों के लिए पत्नी मिलना मुश्किल हो जाएगा / यद्यपि अब बेटी और बेटों में बहुत अंतर भी नहीं रह गया है , वरन सच्चाई यह है कि बेटियाँ अपने माता - पिटा के प्रति बेटों की अपेक्षा कहीं ज्यादा चिंतित और कहीं ज्यादा वफादार होती हैं , फिर भी भारतीय समाज बेटों की चाह के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहा है / भले ही भ्रूण ह्त्या अपराध की श्रेणी में आता हो लेकिन अब भी गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण और गर्भ में बेटी होने की पुष्टि पर गर्भ समापन खूब हो रहा है /
यह प्रकृति का नियम है कि चरम पर पहुँचने के बाद उतार ही होता है और शायद जनसंख्या वृद्धि के मामले में इस समय भारत अपने चरम पर है / परवरिश की द्रिध्ती से कम बच्चे पैदा करने की विकशित होती सोच , समाज में नारियों का घटता अनुपात और हर पुरुष को भविष्य में पत्नी न मिल पाने के संभावित खतरे के चलते भविष्य में जनसंख्या बढ़ने के बजाय घटने की संभावनाएं कहीं अधिक हैं / सवाल यह है कि क्या तब जनसंख्या वृद्धि के उपाय किये जायेंगे ? दुनिया के कई देशों को इस परिस्थिति का सामना करना पद रहा है , इसलिए यदि भविष्य में भारत को भी उसी परिस्थिति का सामना करना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं होगा / जहाँ तक जनसंख्या वृद्धि को अभिशाप मानने का मामला है तो जो ऐसा मानते हैं वे महज एक ही पक्ष देख रहे हैं , उनके लिए जरूरतें पूरी करने और संसाधन जुटाने का पक्ष / वे उनकी शक्ति के सदुपयोग की बात नहीं कर रहे हैं / दुनिया के दूसरे देश हमारी प्रतिभाओं की योग्यता और शक्ति का अपने हित के लिए उपयोग कर समृद्धि की उंचाइयां छू रहे हैं , और हम किंकर्तव्यविमूढ़ हैं / क्या यह देश अपनी ही प्रतिभाओं और श्रम शक्ति का अपने हित में उपयोग कर समृद्धि की ऊँचाइयां नहीं छू सकता ? इसलिए यदि कहा जाय कि बढ़ती जनसंख्या अभिशाप नहीं वरन इस देश की नीतियाँ और नीयत खुद अभिशप्त हैं , तो गलत नहीं होगा /
SAHI BAAT
ReplyDeleteसच कहा.............
ReplyDeleteसार्थक लेखन
सादर.
सार्थक चिंतन
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
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