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Thursday, 19 April 2012

(17) श्रमेव जयते ?

मई दिवस , मई का पहला दिन अर्थात अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस / वर्ष में एक दिन श्रीमिकों के नाम , श्रमिकों के लिए और राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रम दिवस के आयोजन, बहस- मुबाहसे , सेमीनार, परिचर्चाएं / शायद संगठित श्रम क्षेत्र के लिए कुछ घोषनाएँ भी हों , और बस / क्या इतने भर से ही सम्मानित हो जाता है श्रम ? बिना श्रमिकों की भागीदारी के दुनिया का कोई भी काम हो पाना संभव नहीं है , फिर भी सर्वाधिक उपेक्षित है श्रम और उसके अधिष्ठाता श्रमिक / संगठित क्षेत्र में श्रमिकों के सांगठनिक दबावों के कारण भले ही उन्हें महत्व दिया जाता हो , भले ही उनकी बात सुन ली जाती हो , लेकिन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की पीड़ा कौन सुनता है ?
      कल्पना करें कि यदि एक दिन के लिए ही सही , सारे श्रमिक काम रोक दें तो दुनिया भर का जीवन और प्रवाह थम जाएगा / खेतिहर मजदूर काम पर न जाएँ , सड़क मजदूर सामूहिक अवकाश ले लें , सफाईकर्मी काम करने से इनकार कर दें , पल्लेदार वैगनों और ट्रकों का माल चढाने - उतारने से इनकार कर दें , बारबर हजामत बनाने से मना कर दें , धोबी कपडे धोने और उन पर इस्तरी करने से इनकार कर दें , वाहनों के मकैनिक  अपना  रिंच - पाना रखकर  छुट्टी  मनाने  लग जाएँ , बाज़ारों और दुकानों में काम करने वाले लोग काम न करें , होटलों और रेस्तराओं के रसोइये तथा बैरे काम न करें , घरों की कामवालियाँ काम पर न जाएँ , कारखानों के श्रमिक काम रोक दें , टैक्सियों और ट्रकों - बसों के चालाक चक्का जाम कर दें , रिक्शे - टाँगे aurठेला खीचने वाले घर बैठ जाएँ , दरजी कपडे सिलने , मोची जूता गाठने  और उस पर पालिश करने , माली बगीचे की निराई - गुडाई , कुम्हार बर्तन बनाने , लुहार खेती के औजार बनाने या उन पर धार रखने , बिजली विभाग के लाइनमैन बिजली के पोल पर चढाने और कनेक्शन की खराबी ठीक करने , वाचमैन रखवाली करने , राजमिस्त्री और मजदूर निर्माण कार्य करने ,लिफ्टमैन लिफ्ट चलाने, संगतराश पत्थर तराशने , आता- मसाला पीसने वाले चक्कियाँ चलाने , रेहड़ी - ठेले वाले रेहड़ीयां लगाने , दूधिये दूध दुहने, उसे घरों तक पहुंचाने से इनकार कर दें /  ईंट भट्ठों के पथेरे , भट्ठों में ईंटें लगाने- निकासी करने वाले , कोयला उतारने वाले , भट्ठों में कोयला झोकने वाले महज एक दिन का अवकाश ले लें, कारखानों के श्रमिक एक दिन की बंदी की घोषणा कर दें तो शायद सारी दुनिया का प्रवाह थम जाएगा और चारों और त्राहि - त्राहि मच जायेगी / कलमकार एक दिन के लिए कलम रोक दें , रिपोर्टर रिपोर्ट बनाने , कम्प्यूटर ओपरेटर कम्प्यूटर चलाने , छपाई मशीन चलाने वाले मशीन चलाने और हाकर अखबारों का वितरण करने से मना कर दें , तो देश- दुनिया की खबरों से कट जाएगा आदमी /
     देश - दुनिया के उच्च पदों पर आसीन बड़ी मानी जा रही हस्तियाँ तो पूरी तरह पंगु ही हो जायेंगी क्योंकि उनकी सारी गतिविधियाँ उनके सेवकों , सहयोगियों के श्रम पर निर्भर करती हैं /वे स्वयं नहीं चला सकते वाहन , स्वयं अपने पेट के लिए भोजन तक नहीं बना सकते , स्वयं कपडे नहीं धुल सकते , इस्तरी नहीं कर सकते , जूतों पर पालिश नहीं कर सकते , स्वयं हजामत नहीं कर सकते , यहाँ तक कि स्वयं अपने हाथ उठाकर पानी भी नहीं पी सकते / यदि महज एक दिन के लिए उन्हें मिलाने वाली उनके सेवकों की सेवाए रोक दी जाएँ तो वे क्या करेंगे ? दुर्भाग्य यह कि जो दूसरों की श्रम सेवाओं पर सर्वाधिक आश्रित हैं वे ही सबसे अधिक उपेक्षा भी करते हैं श्रम और श्रमिकों की / उनकी और उनके बच्चों की नज़र में श्रमिक गंदे आदमी होते हैं , क्योंकि परिवार में उन्हें ऐसा ही बताया भी जाता है / और उनके ही क्यों , आम सनाज में भी थोड़ा सा साफ़ - सुथरा काम करने वाले लोगों का नजरिया भी श्रमिकों के प्रति उपेक्षापूर्ण ही होता है / सरकारी कार्यालयों में एक अदना से कर्मचारी के सामने भी कोई मज़दूर कुर्सी पर बैठ सकने का साहस नहीं कर सकता / ट्रेनों - बसों की भीड़ में सफ़र करते समय प्रायः यह श्रमिक तबका सीटों और बर्थों से नीचे फर्श पर बैठकर सफ़र करता नज़र आता है / सार्वजनिक समारोहों में कुर्सियां उनके लिए नहीं होतीं , जबकि वे निर्माता भी होते हैं और उन समारोहों के नियंता भी / वही लगाते हैं पंडाल , बिछाते हैं कुर्सियां , लेकिन खुद बैठ नहीं सकते / वे अपनी उपेक्षा से आहात भी नहीं होते , क्योंकि लगातार तिरस्कार सहते - सहते वे उसकी अभ्यस्त हो चुके होते हैं /
      प्रश्न यह है कि यदि सारी दुनिया का सभ्य , सुसंस्कृत और समृद्ध समाज उन्हीं श्रमिकों और उनकी सेवाओं पर आश्रित है तो फिर वह उन्हीं के द्वारा उपेक्षित क्यों है ? इसका जवाब कोई नहीं दे सकता क्योंकि सेवकों और श्रमिकों का शोषण तथा उपेक्षा समाज में परम्परा की तरह स्थापित हो चुकी है तो श्रमिकों की पेशेगत मजबूरी और रिजी - रोटी की आवश्यकता इस शोषण और उपेक्षा को स्वीकार भी कर चुकी है / महज मालिकों द्वारा ही नहीं , श्रमिक वर्ग अपने ही वर्ग के अपने से वरिस्थ पदों पर आसीन श्रमिकों द्वारा भी शोषित और उपेक्षित है / यथा राजमिस्त्री बिना मज़दूरों की मदद के किसी इमारत की आमीर नहीं कर सकता , यहाँ 
राजमिस्त्री और मज़दूर दोनों ही श्रमिक हैं , लेकिन राजमिस्त्री द्वारा भी शोषित और उपेक्षित होते हैं मज़दूर / यह परम्परा पढ़े - लिखे तबके में भी है / आफिस का बॉस अपने ही चपरासी को हेय द्रष्टि से देखता है / जिस स्कूल में चपरासी का बच्चा पढ़ने जाता है , उस स्कूल में बाबू अपने बच्चे को भेजना अपनी तौहीन समझता है / और सच मायने में यह अंतर , यह भेदभाव पैदा करने के लिए देश का राजनैतिक और प्रशासनिक तंत्र भी कम जिम्मेदार नहीं है /भारत के लोकतांत्रिक संविधान में सामान नागरिक अधिकारों को व्याख्यायित किये जाने के बावजूद यह भेदभाव स्पष्ट तौर पर दीखता भी है और किया भी जाता है / यदि एक सामान्य व्यक्ति सहमत न होने पर किसी राजनैतिक पदाधिकारी को विरोध स्वरुप काला झंडा दिखाता है तो वह अपराधी है , उसे पुलिस के साथ ही राजनैतिक मठाधीश भी जूतों से रौंद सकते हैं , लेकिन जूते से प्रहार करने वाले राजनैतिक व्यक्ति को अपराधी नहीं माना जाता , उसे क़ानून सार्वजनिक जीवन से बाहर करने की सजा नहीं सूना सकता / ( ऐसा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान हो चुका है ) / यदि किसी राजनैतिक विरोधी के साथ ऐसा हो सकता है तो आम आदमी और आम श्रमिक व निम्न वर्ग के साथ कैसा बर्ताव होता होगा , इसे ज्यादा व्याख्यायित करने की आवश्यकता नहीं है /
       अब शिक्षा का स्तर बढ़ने के साथ जागरूकता भी बढ़ी है  , लेकिन उतनी नहीं जितनी कि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक राष्ट्र में होनी चाहिए / श्रमिक वर्ग में शिक्षा का स्तर अब भी बहुत न्यून है , इसलिए उनमें अभी भी जागरूकता नहीं आ पायी है / प्रौढ़ शिक्षा और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रम भी श्रमिक वर्ग और उनके बच्चों का शैक्षिक उद्धार नहीं कर सके तो निशित रूप से इसके लिए व्यस्था की खामियां ही जिम्मेदार हैं /
       सवाल यह है कि क्या ये व्यस्थागत खामियां कभी दूर की जा सकेंगी ? क्या कभी कोई श्रमिक भी अपने बच्चे को इंजीनियर , डाक्टर या प्रशासनिक अधिकारी बनाने के सपने को देख और साकार कर पायेगा ? क्याकभी किसी मजदूर का बच्चा किसी प्रशासनिक अधिकारी के बच्चे के साथ कक्षा की एक ही बेंच पर बैठकर पढ़ पायेगा ? जब तक इन प्रश्नों का समाधान नहीं किया जाता , तब तक श्रम और श्रमिकों के लिए सम्मान जैसे आयोजन , भाषण और शब्द महज आडम्बर के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं / जब श्रम उपेक्षा का शिकार होता है , श्रम का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता , तभी उभरता है आक्रोश / यह आक्रोश उबला भी है और कई बार उसकी परिणति की भयावह परिणाम भी भोगें हैं देश ने / आक्रोश न उबले , इसके लिए जिम्मेदार लोगों को चिंतन करना चाहिए , उपाय किये जाने चाहिए और उन्हें ईमानदारी पूर्वक कार्यान्वित भी किया जाना चाहिए / तभी सार्थक हो सकेगा श्रमेव जयते /
                                            - एस. एन. शुक्ल

3 comments:

  1. जब श्रम उपेक्षा का शिकार होता है , श्रम का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता , तभी उभरता है आक्रोश / यह आक्रोश उबला भी है और कई बार उसकी परिणति की भयावह परिणाम भी भोगें हैं देश ने / आक्रोश न उबले , इसके लिए जिम्मेदार लोगों को चिंतन करना चाहिए , उपाय किये जाने चाहिए और उन्हें ईमानदारी पूर्वक कार्यान्वित भी किया जाना चाहिए / तभी सार्थक हो सकेगा श्रमेव जयते /

    श्रम का सम्मान हो और श्रमिक का भी...सार्थक पोस्ट !

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