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Sunday, 15 April 2012

(16) बेघर और खाली घर

देश में २ करोड़ ४६ लाख ७३ हजार घर ऐसे हैं जिनमें वर्षों से कोई रहने वाला नहीं है , लेकिन फिर भी १४ करोड़ से से भी अधिक लोगों को सिर पर छत नसीब नहीं है / वे कहीं झुग्गियों में, कहीं पालीथिन सीट के नीचे , कहीं पेड़ों की छाँव में और कहीं सडकों पर पैदल चलानेवालों के लिए बने फुटपाथ पर जाड़ा, गर्मी, बरसात सहते हुए जिन्दगी बसर करने को मजबूर हैं / यदि इन तालाबंद घरों को आबाद कर दिया जाए और औसत प्रति छः सदस्यों वाले परिवार को एक छत उपलब्ध करा दी जाए तो १४ करोड़ ८० लाख , ३८००० लोगों को अपना घर उपलब्ध कराया जा सकता है /अर्थात फिर किसी को नहीं सोना पडेगा खुले  आकाश के नीचे / फिर शायद सरकारों और विकास प्राधिकरणों को बेघर लोगों के लिए नए घर बनाने, उनके लिए बजट जुटाने और जमीनें खोजने की जद्दोजहद भी नहीं करनी पड़ेगी और वह पैसा जो आवासीय योजनाओं में खर्च करना पद रहा है ,विकास की अन्य आवश्यक योजनाओं , नागरिक सुविधाओं को बेहतर बनाने पर खर्च किया जा सकता है /सच यह है कि सरकारों और देश के तंत्र में ऐसा करने की इच्छाशक्ति का अभाव है, नहीं तो महज एक योजना  , एक अध्यादेश , और देश की सबसे बड़ी समस्या का चुटकियों में समाधान ! लेकिन क्या कभी ऐसा होगा ?
      हम यह नहीं कहते कि बेघरों को घर मुफ्त में दे दिए जाएँ / उनसे घरों की कीमत ली जाए और उसे सुविधानुसार किश्तों में वसूला जाए / वे अदा भी कर सकेंगे अपने  आवास का मूल्य, क्योंकि जब  वे अपने परिवार की सुविधा  और सुरक्षा  के प्रति आश्वस्त  होंगे  , तो वे ज्यादा देर तक , ज्यादा काम कर सकेंगे, ज्यादा कमा सकेंगे और अपना खुद का घर होने का सपना साकार करने के लिए घर की कीमत अदा करने का प्रयत्न भी करेंगे /तब शायद अपराधों का ग्राफ भी गिरेगा क्योंकि अपराधियों के लिए अपराधों के अवसर घटेंगे और सरकारों का क़ानून- व्यवस्था बनाए रखने का भारी बोझ भी घटेगा /
      देश में ढाई करोड़ घर खाली पड़े हैं , जिनमें कोई रहने वाला नहीं है , यह खुलासा केंद्रीय गृह मंत्रालय ने खुद अपने ताज़ा आंकड़ों में किया है / संभव है कि खाली घरों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं और भी अधिक हो , लेकिन अब आम आदमी का सवाल होगा कि ये घर खाली क्यों हैं और किसके हैं ?गृह मंत्रालय के अनुसार पिछले एक दशक में ही खाली घरों की संख्या में एक करोड़ घरों का इजाफा हुआ है / मतलब साफ़ है कि ये तालाबंद एक करोड़ घर या तो नए बनवाये गए हैं या खरीदे गए हैं / एक और सवाल कि यदि घर बनवाये गए या खरीदे गए तो इनमें लोग रह क्यों नहीं रहे हैं ? दरअसल जो इन घरों के मालिक हैं उन्हें घरों की आवश्यकता ही नहीं है / उनके पास पहले से ही पारिवारिक आवश्यकता से कहीं अधिक जगह वाले अपने घर हैं  / जो हिस्सा आवश्यकता से अधिक है , वह किरायेदारों से भरा है और शहरों में मकानों के किराए की दरें भी इतनी ज्यादा हैं कि प्रायः हर किरायेदार दस वर्ष में ही उस आवासीय हिस्से का मूल्य अदा कर देता है जो उसके पास किराए पर है /वह मकान नहीं खरीद सकता क्योंकि उसके पास मकान की एकमुश्त कीमत अदा करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है / इसलिए जिनके पास अकूत पैसा है, काला धन है , वे उसे प्रापर्टी में लगाकर स्थायी संपत्ति में परिवर्तित कर रहें  हैं / चालीस  लाख का मकान 5 लाख में खरीदा  गया  दिखाया  जाता है, अर्थात ३५ लाख रुपया दो नंबर में अदा किया जाता है / अब क्या कर लेंगे इनकम टैक्स वाले ? काली कमाई को छुपाने का इससे बेहतर रास्ता और भला क्या हो सकता है ?
     इतना ही नहीं  सरकारी / अर्धसरकारी आवासीय संस्थाओं तथा नगरीय विकास प्राधिकरणों के भवनों और भूखंडों के आवंटन में सरकारी मशीनरी अपनी जेबें गरम करने का जो खेल खेलती रही है , उससे जिन लोगों के लिए योजनायें बनायी गयी थीं , उनकाशायद ही भला हो सका हो , लेकिन रसूखदार और काली कमाई वालों ने एक ही संस्था से तीन- तीन , चार- चार मकान हासिल कर लिए / परिवार में चार प्राणी और चारों के नाम पर अलग- अलग मकान / कहीं तो एक ही नाम पर तीन- तीन मकान और वह भी एक ही शहर में , एक ही संस्था द्वारा आवंटित करा लिए गए , जबकि उन्होंने आवेदन   के समय नोटरी  द्वारा सत्यापित  शपथ- पत्र   दाखिल  किये थे कि शहर में उनके नाम से कोई अन्य आवास नहीं है / इस गोरखधंधे में विकास प्राधिकरणों के अफसरों से लेकर चपरासियों तक ने खूब काली कमाई की तो शहरों में तैनात  लेखपाल  रातों - रात  करोड़पति  बन  गए / दिल्ली नगर  निगम  से लेकर लखनऊ  विकास प्राधिकरण के बाबुओं की इस हरामखोरी की खबरें समाचार  - पत्रों में कई  बार  प्रकाशित  भी हुईं  और हुआ बस यह कि निजाम  बदला  तो प्राधिकरण के बड़े  अधिकारी को वहां  से हटाकर  किसी दूसरी  मलाईदार  पोस्ट  पर बिठा  दिया गया /
       उत्तर  प्रदेश  की पूर्व  मुख्यमंत्री मायावती के दरी प्रोजेक्ट काशीन्राम शहरी आवास योजना का सच भी यही है कि ज्यादातर आवास उन्हें आव्बंतित किये गए जो पात्र नहीं थे , लेकिन आवंटन अधिकारी की जेबों में नोटों की गद्दी ठूंसने की हैसियत में थे , तो बीते वर्षों में दिल्ली विकास प्राधिकरण का भी भवन आवंटन का ऐसा ही कारनामा महीनों तक समाचारों की सुर्ख़ियों में रहा और फिर बस टाँय- टाँय फिस्स / कर lo जो करना हो , किसी के पास पांच मकान और परिवार के सदस्यों की संख्या चार तो किसी परिवार के १४ सदस्यों के सिर पर फूस का टट्टर भी नहीं /
           जनगणना विभाग के सूत्रों के अनुसार जनगणना २०११ में ऐसे मकानों की भी गणना हुयी थी जो छः महीने या उससे अधिक समय से तालाबंद थे और वे आंकड़े १२ लाख ८० हजार से भी अधिक मकानों के थे / इनमें से अधिकाँश मकान आवासीय योजनाओं के हैं तो उन्हें उन लोगों को पुनः आवंटित करने में क्या समस्या है जिन्हें वास्तव में एक अदद मकान की आवश्यकता है ? जिन लूगों ने झूठे शपथ-पत्रों के आधार पर मकान आवंटित करा लिए , उनके आवंटन निरस्त करने में क्या समस्या है ?
        शायद ऐसा कभी नहीं किया जाएगा , क्योंकि अपात्र होते हुए भी आवासीय योजनाओं में गलत तरीके से मकान हथियाने वाले ज्यादातर लोग सम्पन्न हैं, रसूखदार हैं / वे धनिक वर्ग से हैं और प्रायः हर राजनैतिक दल के आर्थिक मददगार भी / बहुत से तो सीधे राजनैतिक दलों से जुड़े हैं , फिर चाहे जिस दल की सरकार हो , ऐसे झूठे सफेदपोशों के खिलाफ कार्रवाई का साहस कोई कैसे जुटा सकता है ? क्या समझ पायेंगे देश के नीति नियंता इस समस्या को और क्या कभी वास्तव में समस्याओं के निराकरण के ईमानदार प्रयास किये जायेंगे ?
                                                                    - एस. एन शुक्ल 

9 comments:

  1. बढ़िया प्रस्तुति |
    बधाई भाई ||

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  2. ....बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

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  3. अपनी अपनी तकदीर.... यदि ये मकान/घर इन सब बेघरों को मुफ़्त में देदिये गये तो...दूसरे दिन ही वे इन्हें बेच कर ..आगे फ़िर झुग्गी-झौंपडी बना लेंगे...
    ---आप भाग्य नहीं बदल सकते...

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  4. शुक्ल जी ,
    चिंता की बात दोनों तरफ है. बेघर लोग और बेआदम घर. यह लक्षण बदती अव्यवस्था के हैं . जब तक विकास समरूप नहीं. होगा तब तक इस समस्या का हल नहीं मिलेगा.

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  5. मेरे ब्लॉग पर पधारने की कृपा करें

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  6. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने खुद अपने ताज़ा आंकड़ों में किया है .....
    सरकारी / अर्धसरकारी आवासीय संस्थाओं तथा नगरीय विकास प्राधिकरणों के भवनों और भूखंडों के आवंटन में सरकारी मशीनरी अपनी जेबें गरम करने का जो खेल खेलती रही है , उससे जिन लोगों के लिए योजनायें बनायी गयी थीं , उनकाशायद ही भला हो सका हो , लेकिन रसूखदार और काली कमाई वालों ने एक ही संस्था से तीन- तीन , चार- चार मकान हासिल कर लिए .....
    इसे ही तो प्रजातंत्र कहते है .... ??

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  7. bahut sanvedansheel mudda uthaya hai aapne, shukla G, ye pure desh ka haal hai, yahan humare pahad aaj viraan ho rahe hain, vahan ghar hain par unme log nahi, palaayan yahan ki pramukh samasya hai, aur Dehradun jaise pahadi shahar jahan pahle litchi ke ped aam ke bageeche aur baasmati chavlon ki prasiddhi thi aaj concrete ke jangal ban rahe hain.....ye hai asaaman vikaas ki parinati!! be-aadam ghar aur beghar log dono ek dusre ki samasya aur samadhan hain aur is haalaat ka kaaran hamaare neeti-niyanta nahi to aur kaun hai? sthaniya Rojgar aur jeevan ki moolbhoot zaruraton ki pratipurti ho sake to manushya apna basera aasaani se chhodna nahi chahta!

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  8. बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

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