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Saturday 26 October 2013

पत्रकारिता में पक्षपात

                                    पत्रकारिता में पक्षपात 


     अभी हाल ही में चर्चित समाचारपत्र " द हिन्दू " के मुख्य उपसम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन ने यह कहते हुए अपने पद और अखबार से इस्तीफा दे दिया कि " द हिन्दू " सिर्फ नाम से ही हिन्दू है, जबकि यह अखबार घोर हिन्दू और मोदी विरोधी है। साथ ही उन्होंने आरोप लगाया है कि समाचारपत्र के मालिक कस्तूरी एंड सन्स के चेयरमैन एन. राम उन पर बहुत ज्यादा दबाव डाल रहे थे कि अखबार में हिन्दू विरोधी और मोदी विरोधी खबरें प्रमुखता से लगानी हैं।  आमतौर पर उत्तर और मध्य भारत के मीडिया और खासकर हिन्दी मीडिया पर हिंदूवादी होने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन बदले माहौल में मीडिया हाउस या तो वामपंथियों की गिरफ्त में हैं या ईसाइयों के अथवा उस तंत्र के आधिपत्य में जिसके हाथ में सत्ता है। ऐसा मीडिया सत्ता की खामियां छुपाने की कोशिश तो करता ही है , प्रायः सत्ता पर लगने वाले स्पष्ट आरोपों को भी कहीं कोने में और कहीं इतना छोटा स्थान देता है मानो वे महत्वहीन मसले हों। 
      ये आरोप नहीं हैं क्योंकि हालिया घटित एक जैसे दो मामलों में इसी मीडिया ने दुहरे मापदंड अपनाए। पहला मामला आतंकी सोहराबुद्दीन एन्काउन्टर मामले के आरोपी डीजी बंजारा के उस पत्र का था जिसे जेल से जारी करते हुए बंजारा ने कहा था कि उन्हें जेल से छुड़ाने में गुजरात सरकार ने कोई मदद नहीं की जबकि वह मोदी को अपना भगवान मानते थे। यह पत्र अखबारों में प्रमुखता से छापा तो चैनलों पर पत्र को लेकिर बहस भी हुयी। कांग्रेस को तो मानो मोदी के खिलाफ एक और हथियार मिल गया हो इसलिए उसने बाकायदा पत्रकार वार्ता बुलाकर स्टिंग ऑपरेशन की सीडी भी बांटी। उल्लेखनीय है कि बंजारा का पत्र कम्प्यूटर प्रिंट द्वारा जारी किया गया था लेकिन मीडिया ने यह पूछने की जरूरत महसूस नहीं की कि बंजारा को जेल में कम्प्यूटर कैसे उपलब्ध हुआ और किसने उपलब्ध कराया। 
     जिस दिन यह सब हो रहा था, ठीक उसी दिन एक ऐसी ही ख़ास खबर और भी थी कि न्यूयार्क की एक अदालत ने 1984 में भारत के  सिख विरोधी दंगों के दौरान सिखों की हत्याओं में शामिल रहे हत्यारों को बचाने के आरोप में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पेश होने के लिए समन जारी किया है।इस खबर को न तो अखबारों में जगह दी गयी और न ही खबरिया चैनलों ने ही तवज्जो दी। गुजरात दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी को केवल कांग्रेस ही गुनहगार नहीं ठहराती, वे कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी मोदी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ती हैं जो केवल कागजों में पंजीकृत हैं और जनाधार के नाम पर जिनके खाते में एक विधायक तक नहीं है।

     सवाल यह है कि गुजरात दंगों में तो हिन्दू और मुसलमान दोनों ही मरे थे और उन दंगों के भाजपा ही नहीं कांग्रेस के तत्कालीन विधायकों तक पर आरोप लगे थे, लेकिन 1984 के सिख विरोधी दंगों में तो एक ही समुदाय के लोग मारे गए। तब केवल दिल्ली में ही जितने सिखों का क़त्ल-ए-आम हुआ था गुजरात दंगों में हिन्दू-मुसलमान दोनों तबकों के उतने लोग नहीं मरे। यदि मीडिया गुजरात दंगों के लिए मोदी की ओर उंगली उठाता है तो उसे 1984 के सिख विरोधी दंगे क्यों नहीं याद आते ?यह भी उल्लेखनीय है कि सिख विरोधी दंगों के आरोपी कांग्रेसी नेताओं एचकेएल भगत, जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को अदालत और क़ानून के पंजों से बचाने और निर्दोष साबित करने के लिए कांग्रेस ने पुलिस और जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कर अपने नेताओं को भले ही बचा लिया हो, लेकिन यह गुनाह तो उसके सिर रहेगा ही।
     सिखों के क़त्ल-ए-आम पर तब अपनी टिप्पणी में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है (उल्लेखनीय है कि तब इंदिरा गांधी की ह्त्या के खिलाफ सिखों पर हमले हुए थे) और जवाब में भाजपा नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था " जब धरती हिलती है तभी पेड़ गिरते हैं, पेड़ों के गिराने से धरती नहीं हिला करती। "
       ये बातें तो सियासत की हैं, जहां आरोप और प्रत्यारोप के पीछे भी सियासी स्वार्थ होते हैं लेकिन जब मीडिया खबरों में पक्षपात करता है, गलत को सही ठहराने का प्रयास करता है और साथ ही निष्पक्षता का दम भी भरता है तब यह सवाल उठाना लाजिमी है कि मीडिया की बागडोर क्या किन्हीं दूसरे हाथों में है अथवा पद और पैसे से उपकृत हो रहा मीडिया अपने स्वार्थ की भाषा बोल रहा है? उल्लेखनीय है कि जिन एन. राम पर दबाव डालने का आरोप लगाते हुए सिद्धार्थ वरदराजन ने " द हिन्दू " अखबार की नौकरी छोड़ दी वह नरसिम्हन राम इसलिए  हिन्दू विरोधी हैं क्योंकि उनकी पहली पत्नी सूसन आयरिश हैं और वर्त्तमान में भारत में ऑक्सफ़ोर्ड पब्लिकेशन की इंचार्ज हैं तो हालिया पत्नी मरियम भी कैथोलिक ईसाई हैं। 
    अभी हाल ही में बरखा दत्त की बड़ी आलोचना इसलिए हुयी थी क्योंकि उन्हीं के साक्षात्कार में पकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देहाती औरत कहा था। बरखा दत्त NDTV में काम करती हैं और यही एकमात्र ऐसा चैनल है जो अधिकृत रूप से पाकिस्तान में दिखाया जाता है। बीते सप्ताह ही जावेद अख्तर ने कहा था कि मोदी अच्छे प्रधानमंत्री नहीं हो सकते।  यहाँ बताना आवश्यक है कि जावेद अख्तर "मुस्लिम फॉर सेकुलर डेमोक्रेसी " के प्रवक्ता हैं और यह संस्था तीस्ता सीतलवाड़ के पति जावेद आनंद चलाते है। शायद अब यह भी बताने की आवश्यकता नहीं है कि तीस्ता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों के लिए गुनाहगार ठहराने के लिए क्यों वर्षों से मुहीम चला रही हैं ?
     सीधी बात में अब प्रभु चावला की जगह एंकरिंग करने वाले  करन थापर ITV के मालिक हैं, जो बीबीसी के लिए कार्यक्रमों का निर्माण करती है।  इसके अतिरिक्त करन थापर के पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो आसिफ अली जरदारी की अच्छी मित्रता रही है। फिर आप थापर से कितनी उम्मीद कर सकते हैं कि वह हिन्दुओं के पक्ष में बोलेंगे ? भारत में सक्रिय और सबसे अधिक सर्वेक्षण के लिए चर्चित चैनल CNN-IBN ( मुस्लिम+ईसाई समर्थक ) चैनल हैं।  यदि वे भारत के हित की भाषा नहीं बोलते तो आश्चर्य किस बात का। डेक्कन क्रानिकल के चेयरमैन टी.वी. रेड्डी कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सदस्य रहे हैं तो वर्तमान में डेक्कन क्रानिकल और एशियन एज के सम्पादक एम.जे. अकबर भी कांग्रेस से जनप्रतिनिधि रह चुके हैं। सन टीवी चैनल समूह तथा  तमिल दैनिक दिनाकरन के मालिक कलानिधि मारन पूर्व केन्द्रीय संचार मंत्री दयानिधि मारन के भाई हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि दयानिधि मारन की पत्नी पत्रकार एन. राम की भतीजी हैं। एम. करुणानिधि के पुत्र एम. के. अझागिरी कैलाग्नार टीवी चैनल के मालिक हैं।  करूणानिधि की पुत्री कनिमोझी भी " द हिन्दू " अखबार की उपसम्पादक रही हैं।
   तमिल भाषा का सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अखबार ईनाडु तथा ETV चैनल के मालिक रामोजी राव आन्ध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के अभिन्न मित्र हैं। किसके कहाँ सम्बन्ध हैं और किस नेता का कौन सा अखबार या चैनल है , किस की किस मीडिया समूह में भागीदारी है, यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है फिर भी यह बता दें कि के. के. बिरला की बेटी शोभना भरतिया जो कांग्रेस से राज्यसभा सदस्या भी हैं इस समय हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की अध्यक्ष हैं।  जब अखबारों और टीवी चैनलों पर नेताओं और उद्योगपतियों का ही कब्जा है तो कैसी अपेक्षा की जा सकती है कि वे जनमत की भाषा बोलेंगे और अपने मालिकों की मर्जी के खिलाफ जाकर सच को सच कह पायेंगे ?
         
                                                        -एस. एन. शुक्ल 

3 comments:

  1. खरी-खरी और दो टूक। नमन।
    जहाँ तक मेरी जानकारी है, ई नाडु तमिल का सर्वाधिक प्रसारित अख़बार नहीं बल्कि तेलुगु का है। तमिल का सर्वाधिक प्रसारित अख़बार डेली तांती है।

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  3. शुक्ला जी मीडिया में पक्षपात होना अब कोई आम बात नही है ... आज हर मीडिया ग्रुप किसी न किसी खानदान से जुड़ा है ..........एक ओर राजनीति में जहा परिवारवाद हावी है वही अब पत्रकारिता में मित्रवाद ( cronyism ) हावी हो चला है लेकिन मीडिया में पक्षपात होना इस चौथे स्तंभ के लिए खतरे की घंटी है

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