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Thursday 10 October 2013

क्या सीबीआई विश्वस्त जांच एजेंसी है ?

                           क्या सीबीआई विश्वस्त जांच एजेंसी है ?


    बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाले मामले में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव व अन्य आरोपियों को दोषी ठहराने और उन्हें सजा दिलवाने का सर्वाधिक श्रेय सीबीआई को ही जाता है, तो दूसरी और आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के आरोपी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तथा बसपा सुप्रीमो मायावती को क्लीन चित देने वाली भी सीबीआई ही है। लम्बे समय से सत्ता द्वारा सीबीआई का दुरुपयोग किये जाने के आरोप लगाए जाते  रहे हैं , ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या सीबीआई जांच में पक्षपात करती है? क्या उसे विश्वस्त जांच एजेंसी माना जा सकता है?

सीबीआई स्वाधीन नहीं है 

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  पहले तो केवल इस तरह के आरोप ही लगते थे लेकिन जब पिछले दिनों राहुल गांधी ने खुद स्वीकार कर लिया कि सीबीआई के काम में सरकार का हस्तक्षेप रहता है तो फिर सवाल उठाने की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है। सीबीआई को  सरकारी दबाव से मुक्त किये जाने की मांग अभी पिछले दिनों ही बड़े जोर-शोर से उठी थी लेकिन सरकार उसे मुक्त करने को तैयार नहीं है। आज कांग्रेस सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है तो कल आने वाली सरकार भी वैसा ही करेगी। दोषी बचाए जाते रहेंगे और निर्दोष विरोधियों को फंसाने तथा डराने के लिए सरकार इस जांच एजेंसी का मनमाना उपयोग करती रहेगी। हाँ प्रायः आम जनता से जुड़े मामलों में सीबीआई ईमानदारी से ही काम करती है लेकिन आखिर वहां भी तो काम करने वाले सरकारी नौकर ही हैं , सरकार उन्हें प्रोन्नति दे सकती है , उन्हें विशेष ओहदों से नवाज सकती है तो उनका अहित भी कर सकती है।  फिर भला सीबीआई के अधिकारी कैसे जा सकते हैं सरकार के खिलाफ ?

दुरुपयोग तो होता है सीबीआई का

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     सत्ता पुलिस,प्रशासन और अपने आधीन जांच एजेंसियों का हमेशा मनचाहा उपयोग करती रही है।  पहले राजनीति में अच्छे और ईमानदार लोग ज्यादा थे , वे समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ करते थे।  तब भी जांच एजेंसियों पर दबाव रहता था लेकिन वह नाममात्र का था लेकिन अब जब राजनीति के बहुतायत हिस्से पर अपराधियों और दागियों का ही कब्जा है तो आप यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि सत्ता में पहुँच चुके ऐसे लोग सीबीआई का दुरुपयोग नहीं करेंगे ? आम आदमी को तो नागरिक पुलिस से  न्याय नहीं मिलता और रसूखदार , पैसेवाला आरोपी ही नहीं अपराधी होते हुए भी सीना तान कर चलता है। यही हाल जिलों पर भी है,राज्य स्टार पर भी और केन्द्रीय स्टार पर भी। फिर यदि ऊपर ऐसा खेल होता है , सरकार सीबीआई का दुरुपयोग करती है तो आश्चर्य कैसा ?

  सारे कुएं में भांग है 

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     जब हम जनप्रतिनिधि चुनते समय साफ़-सुथरे और ईमानदार उम्मीदवारों के पक्ष में नहीं खड़े हो पाते , जब हम अपराधियों और बाहुबलियों को सत्ता की सीढियां चढाने में मददगार बनते हैं, तो फिर सत्ता से शुचिता की अपेक्षा क्यों करते हैं ? उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में हम देख चुके हैं कि जिन प्रशासनिक अधिकारियों को उनकी ही आईएएस एसोसिएशन ने महाभ्रष्ट घोषित किया था , उन्हें सरकार ने राज्य के सबसे बड़े प्रशासनिक पद मुख्यसचिव  पद पर बिठा दिया। क्या इससे सरकार की मंशा समझ में नहीं आती ? जब सरकार ही चाहती हो अर्थात सरकार चलानेवाले ही चाहते हों  कि अधिकारी भ्रष्ट तरीके से कमायें और उन्हें भी हिस्सा दें , तो फिर तो ऐसा ही चलना है। 
      आजकल देश में सब कुछ बिकाऊ हो गया है।  राजनीति में ९० फीसदी से भी ज्यादा ऐसे लोग हैं जिन्होंने पैसों और सत्ता सुख के लिए अपना ईमान तक बेच दिया है। ऐसे लोग ईमानदार लोगों को जिम्मेदार पदों पर ही नहीं टिकने देंगे , यही वजह है कि अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए ईमानदार अधिकारी भी मजबूरन बिक रहे हैं।

  बहुत मुश्किल है सुधार 

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       सारा सिस्टम इतना अव्यस्थित हो चुका है कि जल्दी सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। दरअसल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सबसे अधिक संवैधानिक खामियां भी हैं। संसद सबसे ऊपर है, आखिर क्यों ? जिस लोक अर्थात जनता के मतों से निर्वाचित होकर पहुँचने वाले जनप्रतिनिधियों को मिलाकर संसद का गठन होता है वह जनता सर्वोच्च क्यों नहीं ? अभी पिछले दिनों ही सरकार अपराधी जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए अध्यादेश ले आयी।  वह तो यदि राष्ट्रपति ने सवाल न उठाये होते तो अब तक अध्यादेश क़ानून बन गया होता और शायद लालू यादव जैसे लोग अब भी संसद में सबको ठेंगा दिखा रहे होते। 
         केवल केंद्र सरकार ही क्यों, अपने आस-पास ही देखिये कई राज्य सरकारें वोटों की लालच में अपराधियों पर से मुकदमे वापस ले रही हैं। वे अपराधी फिर मनमानी करेंगे , सामाजिक समरसता को पलीता दिखाएँगे और हम कुछ नहीं कर सकते।  इस निरीहता के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं।  जब तक हम जाति-धर्म के नाम पर स्वार्थी नेताओं के पीछे भागते रहेंगे तब तक वे इसी तरह मनमानी करते रहेंगे। 

     किससे उम्मीद करें ?

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    कुर्सी पर जो भी आता है, वही खून का प्यासा है। जहां बदलाव के लिए आन्दोलन खडा हुआ , जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया। केंद्र से लेकर राज्यों तक जनता ने सत्ता बदली।  एक बार नहीं कई-कई बार , लेकिन हर बार उसे छला गया। सत्ता तो बदली लेकिन व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ। व्यवस्था बदलने के दावेदार खुद उसी व्यवस्था का हिस्सा बनकर वही सब , बल्कि अपने पूर्ववर्तियों से भी कहीं अधिक अनीतियाँ बरतने लगे।    यही वजह है कि अब कोई भी सुधारवादी आन्दोलन खडा भी होता है तो जनता उसे आशंका की नज़र से देखने लगती है। वह भी जानती है कि आन्दोलन की बैसाखी के सहारे ये भी सत्ता तक पहुँचना चाहते हैं। शायद यह सच भी है क्योंकि  व्यवस्था परिवर्तन के बड़े पैरोकार अरविन्द केजरीवाल ने पिछले दिनों जब पार्टी खादी कर ली और अब दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं तो क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह भी सत्ता पाने के लिए ही छटपटा रहे थे। दिल्ली की सत्ता पाकर न तो वह 

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - शुक्रवार - 11/10/2013 को माँ तुम हमेशा याद आती हो .... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः33 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra


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