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Friday 18 October 2013

बेटों पर भी जरूरी है अंकुश



                                     बेटों पर भी  जरूरी है अंकुश 


     निर्भया मामले में अदालत ने चारों आरोपियों को फांसी की सज़ा सुनायी। अखबारों ने कालम रंगे और कहा न्याय हुआ तो समाज का एक बड़ा तबका तो इतना खुश हो रहा था मानो देश ने फिर से आज़ादी हासिल कर ली हो। बड़ा सवाल यह है कि अदालत के इस फैसले से क्या समाज पर वास्तव में कोई असर पड़ा है ? क्या शोहदों और बलात्कारियों की हरकतों पर इससे विराम लगेगा ? और क्या लोग निर्भया मामले या उक्त मामले में आये अदालती फैसले को लम्बे समय तक याद भी रखेंगे?
        फिलहाल ऐसा कुछ होता तो नहीं दिखता। बलात्कार और छेड़खानी की घटनाएं थमने की बजाय शायद और भी बढ़ गयी हैं। उस दिल्ली की रफ़्तार पर भी कोई अंतर नहीं पड़ा जहां निर्भया को दरिंदों ने अपनी दरिन्दगी और हवाश का शिकार बनाया तथा जहां की अदालत ने उन्हें फाँसी की सजा सुनायी।ऐसी वारदातों की खबरों से देश के अखबार रोज ही रेंज रहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि मात्र क़ानून की सख्ती से ही अपराधों को रोक पाना संभव नहीं है। क़ानून अपराधी को सजा दे सकता है लेकिन वह भी तब, जबकि अपराधी के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य हों और अदालत में गवाह तथा वकील आरोपी को अपराधी साबित कर सकें। कानून समाज को नहीं बदल सकता।  समाज को बदलने के लिए तो समाज को ही पहल करनी होगी। 
       हम बेटी को तो तंग और देह दिखाऊ कपड़े पहनने से रोकते हैं,वह कालेज से घर आते समय रास्ते की जाम की वजह से भी लेट हो जाए तो सौ सवाल करते हैं। वह क्या करे और क्या न करे, इस पर आये दिन उपदेशात्मक व्याख्यान देते रहते हैं, लेकिन क्या बेटे के साथ भी ऐसा कर पाते हैं? बेटा क्या करता है,कहाँ जाता है,कैसे लोगों की शोहबत में उठता -बैठता है इन बातों पर कितना गौर करते हैं हम? बेटी की किसी लड़के से सामान्य मित्रता पर भी सौ सवाल, प्रेम प्रसंग की भनक भी लग जाय तो उसके घर से निकलने पर पाबंदी, मरने-मारने पर उतारू। यहाँ तक अपनी ही बेटी को मौत के घाट उतारने तक में संकोच नहीं, लेकिन वही कुछ बेटा करे तो क्या उसके भी दो तमाचे जड़कर उससे भी सवाल किये जाते हैं कहीं?
        पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऑनर किलिंग के नाम पर लम्बे समय से बहस-मुबाहसा जारी है,लेकिन इस मसाले का हल क्या हो,बेटियों को मौत के घात उतारने पर विराम लगे, ऐसे किसी निर्णय तक नहीं पहुंचा जा सका है। अदालत ने पिछले दिनों थोड़ा सख्त रुख अवश्य अपनाया था लेकिन जो सारा समाज इज्जत के नाम पर एक जैसी सोच से बंधा हो,जहां पंचायत और बिरादरी के भय से कोई मुह खोलने को भी राजी न हो, वहां ऑनर किलिंग के नाम पर हत्याएं हों तो अदालत के सामने साक्ष्य और गवाह कहाँ से लाये जायेंगे? दुर्भाग्य से इस समाज में भी प्रतिबन्ध केवल बेटियों के लिए ही हैं, बेटों के लिए नहीं। आखिर वही समाज यह क्यों नहीं समझ पाटा कि यदि बेटे सामाजिक वर्जनाओं का कड़ाईसे पालन करें तो बेटियाँ तो स्वयं ही उनका अनुकरण करने लगेंगी। 
     सच यही है कि समाज में फ़ैल रही गन्दगी और विषाक्तता का कारण बहुत हद तक समाज खुद ही है। वह बेटी और बेटों के मामले में दुहरे मानदण्ड अपनाता रहा है तो आज भी अपना रहा है। बस अंतर इतना अवश्य है कि पहले लोग समाज और सामाजिक प्रतिष्ठा की परवाह अधिक करते थे। बड़ों के प्रति सम्मान था तो उनकी नज़र में खुद की साफ़-सुथरी छवि बनाए रखने की एक दृढ़ परम्परा भी थी जिसके कारण समाज बिना किसी नैतिक शिक्षा के नैतिकता के प्रति समर्पित था। तब चरित्र को एक आवश्यक गुण के रूप में देखा जाता था और चरित्रहीन व्यक्ति समाज के लिए त्याज्य था। 
     आज ऐसा नहीं है। सारे परिवार और बच्चों  के साथ फिल्मों के अंतरंग दृश्यों को देखने में परहेज नहीं तो युवा होते बच्चे भी माता-पिता के सामने खुलने लगे हैं। फ़िल्में और धारावाहिक उन्हें प्रभावित करते हैं तो वे खुद भी उन पात्रों की तरह आचरण करने लगते हैं। शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इन दिनों टीवी चैनलों पर किस तरह के धारावाहिक कर रहे हैं और समाज में किस तरह की संस्कृति परोस रहे हैं। इन धारावाहिकों की अपसंस्कृति से भावी पीढ़ी को बचाने का शायद यही उपाय है कि अभिभावक खुद ही ऐसे कार्यक्रमों को देखने से परहेज करें। 
     सड़क चलती लड़कियों पर छीटाकसी तो लड़के ही करते हैं।  वे प्रायः संपन्न घरानों के भी होते हैं। इसका मतलब साफ़ है कि उन्हें परिवार में अच्छे संस्कार नहीं दिए गए। कहा जाता है कि बेटे में पिता के स्वाभाविक गुण पाए जाते हैं।  यदि बेटे  के चरित्र पर उंगली उठती है तो क्या पिता का चरित्र संदेह के घेरे में नहीं आता। शायद यह आज की आवश्यक आवश्यकता है कि समाज को सुधारने की शुरुआत घर से ही की जाय और बेटों को चरित्र प्रधान बनाया जाय। वे चरित्रवान होंगे तो न खुद समाज में गन्दगी फैलायेंगे और न ही दूसरों को फैलाने देंगे। अब फैसला आप ही करें कि सुधारने की जरूरत किन्हें है बेटियों को या बेटों को ?
                                                 
                                                                                 -एस.एन. शुक्ल 

2 comments:

  1. जितनी पावंदी बेटियों पर है उतनी पावंदी बेटों पर भी होना चाहिए |
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  2. आज निहायत ज़रूरी है कि समाज अपने गिरेबाँ में झाँके और सामाजिक मूल्यों के न्यायौचित्य को आँके। जहाँ परिवार रुपी संस्था के द्वारा बचपन से ही ऐसा प्रशिक्षण शुरू हो जाता है जो बेटे को ' राजा ' होना सिखाता है और बेटी को ' प्रजा ' होना, तो ऐसे में जो परिणाम सामने हैं वे सहज-स्वाभाविक हैं। आवश्यक है कि लिंग - विषमता के पक्षधर इस समाज को बार-बार आईना दिखाकर इसके संस्कारों को सुधार जाए।

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