स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष और इन पैंसठ वर्षों में देश के छः करोड़ 50 लाख से भी अधिक लोग विकास के नाम पर अपने ही देश में बेघर कर दिए गए। औसत प्रति वर्ष 10 लाख से भी अधिक लोगों के आशियाने उजाड़े गए और उन्हें फिर से बसाने की चिंता देश की किसी भी सरकार ने नहीं की। यह आरोप नहीं सच्चाई है जिसे पिछले दिनों ही डब्लू जी एच आर की रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है। ऐसी ही अनेक योजनाओं से धनपति और उद्यमी तो मालामाल हुए लेकिन वहां के बाशिंदे बेघर और कंगाल। वे गरीब वर्षों से न्याय की उम्मीद में भटक रहे हैं, क्या कभी पोछे जा सकेंगे उनके आँसू ?
वह भाखड़ा नांगल बाँध , जिसके निर्माण पर इस देश ने अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाई थी, लेकिन देश की यह बड़ी उपलब्धि सबसे अधिक महगी देश के उन 2180 परिवारों को साबित हुयी, जिनके आशियानों और रोटी देने वाले खेतों को इस विशाल बाँध ने निगल लिया।वर्ष 1963 में उजाड़े गए इन परिवारों में से पच्चीस वर्ष बाद 1988 में महज 730 परिवारों को ही पुनः बसाया जा सका, शेष 1450 परिवार कहाँ गए, क्या कर रहे हैं और हैं भी या नहीं , इसे जानने की जरूरत इस देश की व्यवस्था ने आज तक नहीं महसूस की।
केवल भाखड़ा ही नहीं, देश के अन्य बांधों के निर्माण में भी अब तक 1 करोड़ 64 लाख लोग विस्थापित किये गए तो खनन के कारण 25 लाख 50 हजार,उद्यमों की स्थापना में 12 लाख 50 हजार तथा अन्य विकास परियोजनाओं के कारण 11 लाख से अधिक लोग बेघर कर दिए गए। यह 1950 के बाद से लेकर अब तक का अधिकृत आंकड़ा है, जबकि वास्तविक सँख्या कहीं इससे भी अधिक हो सकती है। विस्थापितों की इस संख्या में वे लोग शामिल नहीं हैं जो वर्षों से उन अधिगृहीत की गयी जमीनों पर खेती- बारी तो कर रहे थे लेकिन उनके पास उन जमीनों से सम्बंधित ऐसे कोई अभिलेख नहीं थे जिससे वे खुद को उन जमीनों का मालिक साबित कर सकें। वर्किंग ग्रुप आन ह्यूमन राइट्स इन इंडिया ( w g h r ) की गत वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार देश की स्वाधीनता के बाद से अब तक देश के लगभग साधे छः करोड़ लोगों को विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापन का दंश झेलना पड़ा।
उल्लेखनीय है कि पूरी दुनिया में शरणार्थियों की संख्या 1.5 करोड़ से 1.6 करोड़ के बीच है तो अकेले भारत में विकास के नाम पर साधे छः करोड़ लोग बेघर कर दिए गए, अर्थात अपने ही देश में शरणार्थियों से भी बदतर बना दिए गए , क्या यह स्थिति दुखद एवं भयावह नहीं है ? बांधों और जलाशयों के अधिकाँश निर्माण उन क्षेत्रों में ही किये गए जहां बहुतायत संख्या में आदिवासी परिवार रहते थे। प्रस्तुत 17 बड़े बांधों के निर्माण में कुल 9, 07, 874 लोग विस्थापित हुए तो से 5, 48, 426 लोग अर्थात 60.41 फीसदी लोग जनजातीय परिवारों के थे।आदिवासी प्रायः अशिक्षित होते हैं। उन्हें अपने अधिकारों और क़ानून के बारे में जानकारी नहीं होती। उनके लिए तो पुलिस ही अदालत है और पुलिस ही क़ानून।जब ठेकेदारों और अधिकारियों से उपकृत होकर पुलिस को धमकाती है तो वे प्रतिरोध नहीं कर पाते और बिना विस्थापन के मुआवजे की प्रतीक्षा किये ही रोजी-रोटी की तलाश में बड़े शहरों की ओर निकल जाते हैं।
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कुल संख्या
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सरदार सरोवर गुजरात 2,00000 1,15,200
पोलावरम आन्ध्र प्रदेश 1,50000 79,350
मेथान /पांचेत बिहार 93,874 53,001
पोंग हिमाचल प्रदेश 80,000 45,000
कोयल कारो बिहार 66,000 58,080
उकई जलाशय गुजरात 52,000 9,838
माही बजाज सागर राजस्थान 38,400 29,292
इवमपल्ली आन्ध्र प्रदेश 38,100 29,062
.चांडिल बिहार 37,600 33,058
.भाखड़ा हिमाचल प्रदेश 36,000 11,160
.इचा झारखण्ड 30,800 24,640
.महेश्वर मध्य प्रदेश 20,000 12,000
.ऊपरी इन्द्रावती ओडिशा 18,500 16,502
.तुलतुली महाराष्ट्र 13,600 7,019
.बोधघाट मध्य प्रदेश 12,700 9,387
.कर्जन गुजरात 11,600 11,600
.दमन गंगा गुजरात 8,700 4,237
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9,07,874 5,48,426
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गुजरात,बिहार,आन्ध्र प्रदेश और राजस्थान से आये ऐसी ही विकास परियोजनाओं के सताए आदिवासियों की एक बड़ी विस्थापित आबादी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की झोपड़पट्टियों में वर्षों से मेहनत -मजदूरी करके अपना पेट पाल रही है। उन्हें यह भी नहीं पता कि वे जहां से उजाड़े गए थे , वहाँ क्या बनाया गया है और उनके साथ ही अन्य विस्थापित किये गए लोगों को पुनर्वास की कोई व्यवस्था सरकार ने की है या नहीं।
योजनाकारों का मानना है कि 4000 मेगावाट की क्षमता वाले थर्मल प्लांट की स्थापना में लगभग 250 परिवार विस्थापित होते हैं लेकिन इससे 10,000 लोगों को अतिरिक्त रोजगार भी मिलता है। सवाल यह है कि उस रोजगार में विस्थापित परिवारों को कितनी भागीदारी दी जाती है ? माना कि वे कुशल श्रमिक नहीं होते लेकिन हर परियोजना में 50 फीसदी से अधिक अकुशल श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती ही है, तो वह अवसर सबसे पहले विस्थापित परिवारों के बेरोजगारों को न दिया जाना क्या नाइंसाफ़ी नहीं है ?
सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसी भी विकास परियोजना में विस्थापन पहले होता है, अर्थात लोगों के घर- बार उजाड़कर उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है और फिर उसके बाद उजाड़े गए लोगों को पुनर्वासित करने के लिए पुनर्वास पॅकेज स्वीकृत होने में वर्षों का समय लग जाता है। प्रश्न यह है कि विस्थापित किये गए लोग तब तक क्या करें और क्या खाएं ? मजबूरी में वे रोजी- रोटी की तलाश में दूर शहरों की और पलायन को विवश होते हैं और उसके बाद व्यवस्थाकारों द्वारा भी वे पूरी तरह भुला दिए जाते हैं। बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि भृष्ट अफसरशाही की मिलीभगत से पुनर्वास पॅकेज का भी बंदरबांट हो जाता है और फर्जीवाड़े के जरिये पुनर्वास की धनराशि डकार ली जाती है।
सरकार, उद्यमियों और ठेकेदारों के लिए आदिवासी और जनजातीय लोग अशिक्षित होने के कारण हमेशा सहज शिकार रहे हैं। जहां बाँध, खनन, उद्योग या ऐसी ही अन्य परियोजनाओं के कारण लोगों का विस्थापन किया गया , वे क्षेत्र आदिवासी और जनजातीय बहुल इसलिए भी चयनित किये गए क्योंकि वहाँ वर्षों नहीं वरन पीढ़ियों से जमीनों पर खेती-बारी करने वाले उन गरीबों के पास जमीनों के मालिकाना अधिकार प्रदर्शित करने वाले दस्तावेजी कागजात नहीं थे। जो जमीन लोगों के नाम अंकित ही नहीं उसे सरकारी ठहराकर अधिग्रहण भी आसान था। बस कब्जेदारों के सामने पुलिस ने लाठियां फटकारी , उन्हें सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे के आरोप में जेल भेजने की धमकी दी गयी और वे बेचारे भयभीत होकर इसे अपना भाग्य मानाकर्मानाकर अपनी पुश्तैनी जमीनें और घर - बार छोड़कर पलायन कर गए।यह दुर्भाग्य है कि स्वाधीनता के 65 वर्ष बीतने के बाद भी अभी तक देश की जमीनों के रिकार्ड पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हैं।यह हाल व्यक्तिगत ही नहीं सरकारी जमीनों तक का है।इसका परिणाम यह है कि जहां ऐसी जमीनों पर भूमाफिया दबंगई और पैसे के बल पर काबिज होकर सम्पन्नता की उंचाइयां छू रहे हैं , वहीं जो पीढ़ियों से उन जमीनों पर काबिज रहे , उन्हें महज एक बन्दर घुड़की से बेदखल कर दिया जा रहा है।
व्यवस्था के दोष : देश की स्वाधीनता और भारतीय लोकतंत्र की स्थापना के बाद केंद्र से लेकर राज्यों की सरकारों तक ने विकास की योजनायें तो बनाईं। उनमें से बहुत से कार्य संपन्न भी हुए, लेकिन उनके कारण जो लोग प्रभावित हुए या हो रहे थे , उनके संरक्षण और पुनर्वास के लिए स्वाधीनता के 60 वर्षों बाद तक भी कोई स्पष्ट नीति नहीं बनायी जा सकी।जब विस्थापित लोगों का विरोध और आक्रोश जोर पकड़ने लगा और पानी सर से ऊपर गुजरने की नौबत आ गयी, तब वर्ष 2007 में सरकार ने नयी राष्ट्रीय पुनर्वास नीति " रिसेटेलमेन्ट एंड रिहेबिलिटेशन " की घोषणा की। यह नीति भी आधी- अधूरी ही थी इसलिए आक्रोश निरंतर बढ़ता रहा और केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने वर्ष 2011 में नए "भूमि अधिगृहण , पुनर्वास एवं विस्थापन विधेयक " को तैयार किया। इस विधेयक में यह प्राविधान किया गया है कि जमीनों के अधिगृहण का काम केवल सरकार करेगी और इसके लिए निजी कंपनियों को अनुमति नहीं दी जायेगी। उल्लेखनीय है कि अभी तक यह विधेयक केवल तैयार भर किया गया है, उसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस नक्सलवाद के नए रूप माओवाद से इस समय देश के 200 से भी अधिक जिले बुरी तरह प्रभावित हैं और जिससे निपटने के लिए देश की सरकारें अब तक खरबों रुपये खर्च कर चुकी हैं, उसमें विस्थापन के आक्रोश की बहुत बड़ी भूमिका है।
- एस . एन .शुक्ल
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बड़े बांधों ने सबसे अधिक आदिवासी उजाड़े
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क्रम परियोजना राज्य विस्थापितों की आदिवासीकुल संख्या
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सरदार सरोवर गुजरात 2,00000 1,15,200
पोलावरम आन्ध्र प्रदेश 1,50000 79,350
मेथान /पांचेत बिहार 93,874 53,001
पोंग हिमाचल प्रदेश 80,000 45,000
कोयल कारो बिहार 66,000 58,080
उकई जलाशय गुजरात 52,000 9,838
माही बजाज सागर राजस्थान 38,400 29,292
इवमपल्ली आन्ध्र प्रदेश 38,100 29,062
.चांडिल बिहार 37,600 33,058
.भाखड़ा हिमाचल प्रदेश 36,000 11,160
.इचा झारखण्ड 30,800 24,640
.महेश्वर मध्य प्रदेश 20,000 12,000
.ऊपरी इन्द्रावती ओडिशा 18,500 16,502
.तुलतुली महाराष्ट्र 13,600 7,019
.बोधघाट मध्य प्रदेश 12,700 9,387
.कर्जन गुजरात 11,600 11,600
.दमन गंगा गुजरात 8,700 4,237
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9,07,874 5,48,426
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गुजरात,बिहार,आन्ध्र प्रदेश और राजस्थान से आये ऐसी ही विकास परियोजनाओं के सताए आदिवासियों की एक बड़ी विस्थापित आबादी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की झोपड़पट्टियों में वर्षों से मेहनत -मजदूरी करके अपना पेट पाल रही है। उन्हें यह भी नहीं पता कि वे जहां से उजाड़े गए थे , वहाँ क्या बनाया गया है और उनके साथ ही अन्य विस्थापित किये गए लोगों को पुनर्वास की कोई व्यवस्था सरकार ने की है या नहीं।
योजनाकारों का मानना है कि 4000 मेगावाट की क्षमता वाले थर्मल प्लांट की स्थापना में लगभग 250 परिवार विस्थापित होते हैं लेकिन इससे 10,000 लोगों को अतिरिक्त रोजगार भी मिलता है। सवाल यह है कि उस रोजगार में विस्थापित परिवारों को कितनी भागीदारी दी जाती है ? माना कि वे कुशल श्रमिक नहीं होते लेकिन हर परियोजना में 50 फीसदी से अधिक अकुशल श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती ही है, तो वह अवसर सबसे पहले विस्थापित परिवारों के बेरोजगारों को न दिया जाना क्या नाइंसाफ़ी नहीं है ?
सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसी भी विकास परियोजना में विस्थापन पहले होता है, अर्थात लोगों के घर- बार उजाड़कर उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है और फिर उसके बाद उजाड़े गए लोगों को पुनर्वासित करने के लिए पुनर्वास पॅकेज स्वीकृत होने में वर्षों का समय लग जाता है। प्रश्न यह है कि विस्थापित किये गए लोग तब तक क्या करें और क्या खाएं ? मजबूरी में वे रोजी- रोटी की तलाश में दूर शहरों की और पलायन को विवश होते हैं और उसके बाद व्यवस्थाकारों द्वारा भी वे पूरी तरह भुला दिए जाते हैं। बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि भृष्ट अफसरशाही की मिलीभगत से पुनर्वास पॅकेज का भी बंदरबांट हो जाता है और फर्जीवाड़े के जरिये पुनर्वास की धनराशि डकार ली जाती है।
सरकार, उद्यमियों और ठेकेदारों के लिए आदिवासी और जनजातीय लोग अशिक्षित होने के कारण हमेशा सहज शिकार रहे हैं। जहां बाँध, खनन, उद्योग या ऐसी ही अन्य परियोजनाओं के कारण लोगों का विस्थापन किया गया , वे क्षेत्र आदिवासी और जनजातीय बहुल इसलिए भी चयनित किये गए क्योंकि वहाँ वर्षों नहीं वरन पीढ़ियों से जमीनों पर खेती-बारी करने वाले उन गरीबों के पास जमीनों के मालिकाना अधिकार प्रदर्शित करने वाले दस्तावेजी कागजात नहीं थे। जो जमीन लोगों के नाम अंकित ही नहीं उसे सरकारी ठहराकर अधिग्रहण भी आसान था। बस कब्जेदारों के सामने पुलिस ने लाठियां फटकारी , उन्हें सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे के आरोप में जेल भेजने की धमकी दी गयी और वे बेचारे भयभीत होकर इसे अपना भाग्य मानाकर्मानाकर अपनी पुश्तैनी जमीनें और घर - बार छोड़कर पलायन कर गए।यह दुर्भाग्य है कि स्वाधीनता के 65 वर्ष बीतने के बाद भी अभी तक देश की जमीनों के रिकार्ड पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हैं।यह हाल व्यक्तिगत ही नहीं सरकारी जमीनों तक का है।इसका परिणाम यह है कि जहां ऐसी जमीनों पर भूमाफिया दबंगई और पैसे के बल पर काबिज होकर सम्पन्नता की उंचाइयां छू रहे हैं , वहीं जो पीढ़ियों से उन जमीनों पर काबिज रहे , उन्हें महज एक बन्दर घुड़की से बेदखल कर दिया जा रहा है।
व्यवस्था के दोष : देश की स्वाधीनता और भारतीय लोकतंत्र की स्थापना के बाद केंद्र से लेकर राज्यों की सरकारों तक ने विकास की योजनायें तो बनाईं। उनमें से बहुत से कार्य संपन्न भी हुए, लेकिन उनके कारण जो लोग प्रभावित हुए या हो रहे थे , उनके संरक्षण और पुनर्वास के लिए स्वाधीनता के 60 वर्षों बाद तक भी कोई स्पष्ट नीति नहीं बनायी जा सकी।जब विस्थापित लोगों का विरोध और आक्रोश जोर पकड़ने लगा और पानी सर से ऊपर गुजरने की नौबत आ गयी, तब वर्ष 2007 में सरकार ने नयी राष्ट्रीय पुनर्वास नीति " रिसेटेलमेन्ट एंड रिहेबिलिटेशन " की घोषणा की। यह नीति भी आधी- अधूरी ही थी इसलिए आक्रोश निरंतर बढ़ता रहा और केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने वर्ष 2011 में नए "भूमि अधिगृहण , पुनर्वास एवं विस्थापन विधेयक " को तैयार किया। इस विधेयक में यह प्राविधान किया गया है कि जमीनों के अधिगृहण का काम केवल सरकार करेगी और इसके लिए निजी कंपनियों को अनुमति नहीं दी जायेगी। उल्लेखनीय है कि अभी तक यह विधेयक केवल तैयार भर किया गया है, उसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस नक्सलवाद के नए रूप माओवाद से इस समय देश के 200 से भी अधिक जिले बुरी तरह प्रभावित हैं और जिससे निपटने के लिए देश की सरकारें अब तक खरबों रुपये खर्च कर चुकी हैं, उसमें विस्थापन के आक्रोश की बहुत बड़ी भूमिका है।
- एस . एन .शुक्ल
विकास के नाम पर व आतंक के नाम पर विस्थापन में कुछ ना कुछ तो समानता है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सटीक ... फिर एक बार आपके ब्लॉग पर आना अच्छा लगा ...
ReplyDeleteविस्थापित हो कर जीना इंसान को अस्वाभाविकता की ओर धकेल देता है!
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
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