लगातार घटती बेटियाँ
चिकित्सा क्षेत्र में गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है , लेकिन इसी उपलब्धि के चलते पुरुष प्रधान समाज और बेटों की चाह और बेटियों को पराया धन समझने वालों के लिए बेटियों को गर्भ में ही समाप्त कर देने का एक आसान रास्ता भी दे दिया। इस मामले में शिक्षित और खुद को प्रगतिशील मानने वाला समाज सबसे आगे रहा है। अब बेटियों की घटती संख्या को लेकर सरकार भी चिंतित है क्योंकि सारा देश और सारा समाज बेटियों की घटती संख्या के दुष्प्रभाव से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण करना और करवाना अपराध की श्रेणी में तब स्वीकार किया गया जब पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा।पहले तो सरकारी स्टार पर ही बड़े- बड़े विज्ञापन जारी कर प्रचारित किया जा रहा था की अनचाहे गर्भ से छुटकारा पाना अब आसान हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि वर्ष 1961में देश में जहां प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की सँख्या 976 थी , वह पचास वर्ष बाद वर्ष 2011 आते- आते घटकर प्रति हजार लड़कों के अनुपात में 914 रह गयी। वर्ष 2001 की जनगणना में प्रति एक हजार लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 927 थी और केन्द्रीय योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनामें वर्ष 2011-12 तक लड़कियों की संख्या प्रति एक हजार लड़कों के मुकाबले 935 तक पहुंचाने का लक्ष्य तय किया था। इस लक्ष्य का भी वही हस्र हुआ जो प्रायः हर सरकारी योजना का होता है।लड़कियों की संख्या और अनुपात बढ़ने के बजाय और भी घट गया। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि प्रति हजार लड़कों की तुलना में देश में लड़कियों की वर्त्तमान संख्या 914 है। लिंग परीक्षण अब भी किये जा रहे हैं और कराये जा रहे हैं। चूंकि अब ऐसा करना और करवाना विधिक रूप से अपराध है , इसलिए जाँच परिणाम लिखित तौर पर नहीं दिए जाते और परीक्षण की दर भी कुछ अधिक ली जा रही है। जिस क्लीनिक पर लिखा टंगा है कि यहाँ गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण नहीं किया जाता, प्रायः वहीं वह सबसे ज्यादा होता है।
सरकार और योजना आयोग भी स्वीकार कर रहा है कि लड़कियों के लगातार घटते अनुपात का कारण कन्या भ्रूण ह्त्या के बढ़ते मामले ही हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि कानूनन अपराध घोषित किये जाने के बावजूद अभी भी गर्भस्थ शिशुओं के लिंग परीक्षण कराये जा रहे हैं और शायद ऐसे मामले पहले की तुलना में अब और भी ज्यादा हैं।इससे चिंतित सरकार ने भले ही अगले पाँच वर्षों में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या 950 तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा है, लेकिन क्या बिना जनसहयोग के और बिना समाज की सोच बदले 914 की संख्या को बढ़ाकर 950 तक पहुँचा पाना आसान होगा ?
लड़कियों की घटती संख्या के दुष्परिणाम सामने हैं।भारत के चरित्र को विश्व में हमेशा सर्वोपरि स्थान मिलता रहा है तो रिश्तों की पवित्रता और रिश्तों के प्रति ईमानदारी में भी भारत की कोई सानी नहीं रहा है।महज पिछले दो दशक के दौरान ये सारे मापदण्ड धराशायी होते दिखे हैं। अदालत ने समलैंगिक यौन संबंधों को सहमति की दशा में अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। यौन तुष्टि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जब लड़कों को लड़कियाँ नहीं मिल रहीं और परिपक्व आयु के बावजूद शादियाँ नहीं हो पा रहीं तो वे अनैतिक रास्तों से यौनाकांक्षाओं को पूरा करने की और उन्मुख होते हैं। दिल्ली लड़कियों की संख्या के मामले में सबसे पीछे है, प्रति एक हजार लड़कों के अनुपात में 866 लड़कियाँ। साफ़ है कि प्रति एक हजार लड़कों में से 134 अर्थात साधे तेरह प्रतिशत लड़कों को कुँआरा ही रह जाना है। यौनाकांक्षायें तो फिर भी समाप्त नहीं होंगी, अर्थात व्यभिचार, अप्राकृतिक यौनाचार तथा बलात्कार की घटनाएँ बेतहाशा बढ़ेंगी। दिल्ली में लड़कियों की तादाद सबसे कम है तो उपरोक्त सारे दुष्कर्म दिल्ली में ही सबसे ज्यादा हो भी रहे हैं।
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वर्ष प्रति हजार लड़कों पर लड़कियां
1961 976
1971 964
1981 962
1991 945
2001 927
2011 914
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सबसे कम लड़कियों वाले राज्य
दिल्ली 866
उत्तराखण्ड 886
उत्तर प्रदेश 899
बिहार 933
झारखंड 943
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वर्ष प्रति हजार लड़कों पर लड़कियां
1961 976
1971 964
1981 962
1991 945
2001 927
2011 914
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सबसे कम लड़कियों वाले राज्य
दिल्ली 866
उत्तराखण्ड 886
उत्तर प्रदेश 899
बिहार 933
झारखंड 943
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बेटियों का बचाया जाना आवश्यक है , अन्यथा सृष्टि का संतुलन गड़बड़ा जाएगा और साथ ही सामाजिक संबंधों का ताना- बाना भी।ऐसा भी नहीं है कि लड़कियों को जन्म देने के सभी विरोधी ही हों , लेकिन जिस प्रकार की यौनिक स्वच्छन्दता और उच्छ्रंखलता समाज में बढ़ती जा रही है उसे देखते हुए लोग अपनी बेटियों की सुरक्षा के प्रति कहीं अधिक आशंकित और चिंतित हैं। वे समाज को नहीं बदल सकते , माहौल को नियंत्रित नहीं कर सकते , इसलिए उन्हें सबसे कारगर उपाय यही नजर आता है कि बेटियाँ पैदा ही न होने दी जाएँ। लड़कियां होंगी तो वे शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्कूल- कालेज भी जायेंगी और आज के अर्थ प्रधान युग में अपनी योग्यता के अनुरूप काम भी करना चाहेंगी और कमाई भी।उन्हें बाहर जाना ही होगा जहां का वातावरण उनके लिए कतई सुरक्षित नहीं है और यही वजह है कि अधिसंख्य आधुनिकता के पक्षधर माता- पिता भी बेटियों की सुरक्षा के प्रति आशंका के कारण ही उन्हें जन्म देने से हिचकिचा रहे हैं।
योजना आयोग की योजना चाहे जो हो , लेकिन जब तक भावी माता- पिताओं के मन बेटियों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्ति नहीं पैदा होगी , तब तक बेटियों की संख्या बढ़ा पाना आसान भी नहीं होगा। सड़क पर चलाती लड़कियों पर फब्तियाँ कसना, अशलील इशारे करना शहरों की जिन्दगी में अब आम हो गया है। ऐसे शोहदे प्रायः संपन्न घरों के कुसंस्कारों में पले लडके ही होते हैं। पुलिस मौजूदगी के बावजूद प्रायः ऐसी घटनाओं की अनदेखी करती है , यही वजह है कि शोहदों का दुस्साहस बढ़ता है और वे सामूहिक बलात्कार तक की घटनाओं को अंजाम देने में नहीं हिचकते। क्या योजना आयोग बेटियों की सामाजिक सुरक्षा की भी कोई योजना लाने जा रहा है, यदि नहीं तो महज बेटी बचाओ अभियान के फर्जी नारों से सार्थक परिणामों की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
- एस .एन .शुक्लयोजना आयोग की योजना चाहे जो हो , लेकिन जब तक भावी माता- पिताओं के मन बेटियों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्ति नहीं पैदा होगी , तब तक बेटियों की संख्या बढ़ा पाना आसान भी नहीं होगा। सड़क पर चलाती लड़कियों पर फब्तियाँ कसना, अशलील इशारे करना शहरों की जिन्दगी में अब आम हो गया है। ऐसे शोहदे प्रायः संपन्न घरों के कुसंस्कारों में पले लडके ही होते हैं। पुलिस मौजूदगी के बावजूद प्रायः ऐसी घटनाओं की अनदेखी करती है , यही वजह है कि शोहदों का दुस्साहस बढ़ता है और वे सामूहिक बलात्कार तक की घटनाओं को अंजाम देने में नहीं हिचकते। क्या योजना आयोग बेटियों की सामाजिक सुरक्षा की भी कोई योजना लाने जा रहा है, यदि नहीं तो महज बेटी बचाओ अभियान के फर्जी नारों से सार्थक परिणामों की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
blog link : snshukla.blogspot.com
सुन्दर प्रस्तुति |
ReplyDeleteबढ़िया विषय |
गंभीर समस्या पर सामयिक सटीक आलेख...बहुत बहुत बधाई...
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