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Tuesday 8 January 2013

अव्यवस्था: दोष किसका

                                  अव्यवस्था: दोष किसका 


       भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्केंडेय काटजू ने कहा कि देश के 90 फीसदी भारतीय मूर्ख हैं। जिस पर देश की मीडिया ने आपत्ति जताई और इसे जस्टिस काटजू के विवादित बयानों की श्रंखला में एक और विवादित बयान करार दिया। पर क्या वास्तव में जस्टिस काटजू द्वारा दिया गया बयान विवादित या अमर्यादित है जबकि आज भी हमारा सामाजिक ताना- बाना जातिगत और धार्मिक विचारधारा  से ग्रसित है। कहने को तो हम आधुनिक है पर हमारी आधुनिकता का असली परिचय मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा माध्यम बन चुकी सोशल नेटवर्किंग साईटों पर बखूबी दीखता है, जहाँ प्रतिदिन हम जातिगत और धार्मिक लड़ाई लड़ते रहते है लेकिन वास्तविक जीवन में सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। दोष देश और देश की व्यवस्था का देते हैं , तब क्या हम खुद दोषी नहीं हैं ?
          स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष बीत गए और भारतीय संसद के छ दशक, अर्थात स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से लेकर लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना के बीच जन्म लेने वाली एक समूची पीढी अब बुजुर्गों में गिनी जाती है।वह पीढी तो लगभग समाप्त प्राय है जिसने देश की आज़ादी की लड़ाई में सक्रीय भूमिका निभाई थी, या जिसने उस संघर्ष और ब्रिटिश सरकार के दमन के दौर को अपनी आँखों से देखा था।आज की युवा पीढी नहीं जानती कि वह देश की जिस आज़ाद हवा में सांस ले रही है, उसे हासिल करने में कितने देशभक्तों ने क्या-क्या सहा , कितनी कुर्बानियां दीं और कितने त्याग तथा बलिदानों की नीव पर भारतीय लोकतंत्र की इमारत बुलंद हुयी।
         राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जन्मदिवस देश की वर्त्तमान पीढी के लिए अब शायद ही कोई प्रेरणा देता हो,वरन यह उनके लिए बस एक छुट्टी का दिन है। नेताजी सुभाषचंद बोष का जन्म दिवस किस तिथि को होता है , यह देश के 70 फीसदी पढ़े-लिखे लोगों को भी पता नहीं है। आज़ाद, भगत सिंह, बिस्मिल,रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी , ऊधम सिंह की कुर्बानियां भी विस्मृत प्राय हो चुकी हैं, तो जिन राजनैतिक दलों अथवा सामाजिक संगठनों के बड़े-बड़े इश्तहारों में उन्हें आदर्श बताकर प्रचारित किया जाता है, वे उनके नामों को ब्राण्ड बनाकर अपनी दुकानें चलाते नज़र आ रहे हैं। आज का स्वाधीन भारत जिस और जैसे रूप में है वैसे स्वाधीन भारत की कल्पना तो गाँधी , सुभाष या हमारे क्रांतिवीरों ने नहीं की होगी।
         अपनी श्रेष्ठ परम्पराओं,अपने सामाजिक आदर्शों, अपने उच्चतम चरित्र, अपने ज्ञान और अपने मानव मूल्यों के कारण कभी जगदगुरू माना जाता रहा भारत यदि लम्बे समय तक परतंत्र रहा तो उसका कारण भी उसकी उदारमना प्रवृत्ति ही थी , और साथ ही अधिसंख्य भारतीयों की भावना कि " कोउ नृप होय हमहि का हानी " जैसी प्रवृत्ति। लोग दूसरों के दुःख से दुखी नहीं होते वरन अपने दुःख और दूसरों का सुख देखकर दुखी होते हैं। यह देश की आम आदत सी बन गयी है कि जब तक खुद पर संकट नहीं आता , तब तक लोगों की भावनाओं में उबाल भी नहीं आता। ट्रेनों, बसों और बाज़ारों की भीड़ में लड़कियों के साथ शोहदों की छेड़खानी को लोग चुपचाप देखते रहते हैं। लफंगों-गुण्डों की ज्यादती खुद के साथ न हो तो मुह फेरकर चले जाते हैं, जैसे कि  मुर्दे हों। तभी बुलंद होते हैं अराजक तत्वों के हौसले और चाँद लफंगे भीड़ पर भारी पड़ते हैं।बात यहीं तक सीमित नहीं है, बहुत से लोग तो अनायास अराजक तत्वों के समर्थन में खड़े होते भी दिखाते हैं। यह सब नया भी नहीं है। कभी शकों, हूणों , गौरी,गजनबी, सिकंदर,लोदी और मुगलों की मुट्ठी भर ताकतें विशाल भारत के लिए चुनौतियाँ बनीं। लुटेरों ने इस भीरु देश को केवल लूटा ही नहीं यहाँ आकर शासक भी बन बैठे। फिर वही डचों,पुर्तगालियों और अंग्रेजों ने भी किया। ब्रिटेन की एक व्यापारिक कंपनी ने इस देश की उदारता (भीरुता) का लाभ उठाकर देश पर राज करना प्रारम्भ कर दिया और सारा देश देखता रहा।
           ढाई सौ वर्ष की अंग्रेजों की गुलामी! इस बीच यदि किसी ने उनके विरोध में आवाज भी उठायी तो उसे जनसमर्थन नहीं मिल सका। वजह यह कि हम हिन्दू थे, मुसलमान थे ,सवर्ण थे, दलित थे, सैकड़ों जातियों-उपजातियों और सम्प्रदायों के बीच बाते हुए, जिनके बीच व्यावहारिक संबंधों का पूरी तरह अभाव था।ईश्वरीय न्याय पर भरोसा करने वाला देश लगातार अपनी गति को प्राप्त होता रहा।देश की स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वाले तब भी चंद  लोग ही थे। लम्बी लड़ाई के बाद स्वाधीनता मिली भी तो भी हम मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पाए। आज हम राजनैतिक दलों के गुलाम हैं। देश की 121 करोड़ की जनसंख्या किसी एक अपरिपक्व नेतृत्वकर्ता की और बड़ी अपेक्षाओं से देखने लगती है। जब उसके विरोधी उसकी आलोचना करते हैं तो यह देश उसके पक्ष और विपक्ष में बताने लगता है बिना किसी सार्थक बहस के, बिना किसी तर्क के और बिना अपने विवेक के इस्तेमाल के।सच समझाने और विवेक जगाने की जिम्मेदारी जिस बुद्धिजीवी वर्ग की होनी चाहिए वह बंद कमरों में बहस तो कर सकता है लेकिन जनता को जगाने और उसकी अगुवाई करने का साहस नहीं कर सकता।
       हम अफवाहों पर बहुत जल्दी भरोसा कर लेते हैं।सपने दिखाने वालों के पीछे दौड़ने लगते हैं। समग्र क्रान्ति के नारों के रथ पर सवार होकर सत्ता हथियाने वाली जनता पार्टी जब निजी स्वार्थों में फिर टुकड़ों में बात गयी तो उसके नेताओं का गिरेबान पकड़कर किसी ने पूछने की किसी ने जरूरत नहीं महसूस की कि कहाँ है उनकी सम्पूर्ण क्रान्ति। जब वी . पी . सिंह ने बोफोर्स टॉप सौदे में दलाली के आरोप लगाकर जनता का समर्थन हासिल कर राजीव सरकार को धकिया कर  सत्ता हथिया ली तो किसी ने उन पर सच को सामने लाने का दबाव नहीं बनाया। जब राम मंदिर आन्दोलन को हथियार बनाकर भाजपा सत्ता सुख भोग रही थी तो किसी ने यह नहीं पूछा कि जिस मुद्दे को लेकर उनहोंने देश की पुरातात्विक धरोहर नेस्त - नाबूद कर दी , उसके लिए वे क्या कर रहे हैं। हर चुनाव में एक नया नारा और हम सियासी कलंदरों के इशारे पर बंदरों की तरह नाचने वाले लोग, क्या यही भारत की नियति है ?

                                              गुनाहगार जनता भी है 

       आये दिन राजनैतिक पाले बदलने वाले लोग कभी इस दल और कभी उस दल की नाव पर सवार होकर चुनावी वैतरणी पार कर जाते हैं।  वोट देकर उन्हें  माननीय बनाने वाले तो आम मतदाता ही हैं, फिर क्या राजनीति और राजनेताओं से ज्यादा गुनहगार वे स्वयं नहीं हैं ? जो राजनेता पिछले चुनाव में दूसरे दल की आलोचना कर रहा था , उसकी नीतियों को जनविरोधी बता रहा था , यदि आज वह पाला बदलकर उसी दल की वकालत कर रहा है तो मतदाता उससे क्यों नहीं पूछते कि कल तक तो आप दूसरा ही राग आलाप रहे थे।
        सबसे बड़ी जिम्मेदारी मीडिया तंत्र की है जो खुद को समाज का सजग प्रहरी, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हुए ख़म ठोकता रहता है। प्रायः चुनावों के दौरान वे यह तो बताते हैं कि कौन कहाँ कमजोर या भारी पड़ रहा है लेकिन क्या मीडिया का यह दायित्व नहीं है की वह गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले राजनेताओं से सावधान रहने की जनता से अपील भी करे। मीडिया  तंत्र शासन, प्रशासन और जनता के बीच की कड़ी है ,तो उसकी यह जिम्मेदारी है कि वह जनसमस्याओं , जन आक्रोश की जानकारी शासन-प्रशासन तक पहुंचाए और यदि शासन- प्रशासन में कोई खामियां हैं तो उनसे जनता को भी आगाह करे। देश में जिस मतदाता वर्ग की सबसे अधिक संख्या है और जो मतदान में सबसे अधिक भागीदारी निभाता है, जिसकी सत्ता सौंपने और सत्ता हस्तांतरण में सबसे अधिक भूमिका है , उसका अधिकाँश हिस्सा शिक्षा और ज्ञान में सबसे अधिक पिछड़ा है।वे हर चुनाव में राजनेताओं और राजनैतिक दलों द्वारा बरगलाये जाते हैं और चुनाव सम्पन्न हो जाने के बाद वही सबसे अधिक उपेक्षित भी किये भी जाते हैं।उन्हें जगाना और सचेत करना मीडिया का पहला कर्त्तव्य है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो क्या उसकी सजग प्रहरी की भूमिका संदेहास्पद नहीं है ?
         यदि आज भारत की प्रतिष्ठा विश्व समुदाय के बीच घटी है तो उसके लिए केवल देश की राजनीति ही जिम्मेदार नहीं है।हम स्वयं भी कम दोषी नहीं हैं। एक प्राचीन बोध कथा याद आती है कि एक बार हंस के एक जोड़े (नर-मादा ) ने लम्बी उड़ान भरी ,इतनी लम्बी कि  दिन का प्रकाश शेष रहते उनकी वापसी संभव नहीं रह गयी। फिर लम्बी उड़ान की थकान भी थी इसलिए हंस और उसकी मादा ने एक गाँव के बाहर खड़े बड़े से पेड़ पर रात बिताने का निश्चय किया।गाँव कुछ उजाड़-उजाड़ सा था इसलिए रात को हंसिनी ने हंस से गाँव की दुर्दशा के प्रति जिज्ञाशा प्रकट की तो हंस ने बताया कि इस गाँव पर एक उल्लू की कुदृष्टि पद रही है इसीलिये गाँव बर्बादी की ओर  उन्मुख है।
         उल्लू उसी पेड़ की जड़ में बने कोटर में बैठा था। उसे अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं हुयी और जब सुबह हंस का जोड़ा फिर अपनी उड़ान की तैयारी कर रहा था , तो उल्लू ने हंस से कहा कि तुम जहां चाहो जा सकते हो , लेकिन यह हंसिनी नहीं जायेगी, क्योंकि यह मेरी है।हंस ने प्रतिवाद किया कि तुझ जैसी निम्न कोटि के पक्षी की हंसिनी कौन मान लेगा भला ? उल्लू ने कहा कि फिर इस बात का फैसला गाँव वालों से ही करा लो , जो वर्षों से इसे मेरे साथ इसी पेड़ पर रहते देख रहे हैं।
         हंस इस बात पर सहमत हो गया। उसे विशवास  था कि गाँव के लोग यह झूठ नहीं बोलेंगे कि हंसिनी उस उल्लू के साथ पेड़ पर रह रही होगी। फिर दोनों पक्ष गाँव की पंचायत के सामने थे और उल्लू ने पंचों के सामने दावा ठोकते हुए कहा कि यह हंसिनी वर्षों से उसके साथ गाँव के बाहर पेड़ पर रही है , आज यह हंस उसे अपनी बताकर अपने साथ ले जाने की जिद कर रहा है, इसलिए मैं आप पंचों के पास न्याय के लिए आया हूँ। आप लोग जो भी फैसला करेंगे वह हम दोनों पक्षों को स्वीकार्य होगा।
         पंचों ने थोड़ी देर आपस में कानाफूसी की और सबने तय किया कि यदि वे सच कहेंगे तो हंस अपनी मादा को लेकर उड़ जाएगा। यदि वे उसे उल्लू की बता देंगे तो वह यहीं रहेगी और गाँव के लोगों को भी रोज हंसिनी के दर्शन का लाभ मिलेगा। फिर  था , पंचों ने समवेत स्वर में कहा कि हंसिनी तो उल्लू की ही है क्योंकि उसे वर्षों से उसी के साथ गाँव के बाहर पेड़ पर रहते देखा जा रहा है। हंस शर्त हार चुका था, पंचों से उसे न्याय नहीं मिला, इसलिए वह हंसिनी को वहीं  छोड़ खिन्न मन से चल दिया।
            अभी वह कुछ कदम ही गया होगा कि उल्लू पंख फराफराता हुआ उसके पास पहुँचा और बोला,ठहरो ! हंस ने अनिक्षा से उसकी और देखा और बोला, अब क्या चाहते हो ? उल्लू बोला मैं चाहता कुछ भी नहीं, तुम्हारी हंसिनी भी नहीं, लेकिन जो तुम रात को कह  रहे थे कि यह गाँव उल्लू की कुदृष्टि के कारण बर्बादी की कगार पर है, क्या अब भी वही मानते हो ? अरे जिस गाँव के लोग पक्षियों में सर्वश्रेठ हंसिनी को उल्लू की बता सकते हैं, उल्लू को सौंप सकते हैं , वे अपने कर्मों की वजह से बर्बादी की और जा रहे हैं या उल्लू की कुदृष्टि के कारण ?
      यही कहावत इस समय इस देश पर भी चरितार्थ हो रही है। जाति , धर्म, सम्प्रदाय , क्षेत्र और ऊँच - नीच के फिरकों में बाते देश के लोग यदि सत्ता की हंसिनी उल्लुओं को सौंपकर खुश हो रहे हैं , तो इस देश को बर्बादी से कौन बचा सकता है ?
    
                         - एस .एन .शुक्ल
       blog link : snshukla.blogspot.com

4 comments:

  1. सटीक |
    शुभकामनायें ||

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  2. हकीकत ...बहुत उम्दा

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  3. देश की सारी जनता जेसे गहरी नींद में थी ..शायद अब जग चुकी है ...सार्थक पोस्ट।

    recent poem : मायने बदल गऐ

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