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Monday, 15 October 2012

मीडिया पर हमला

                                          मीडिया पर हमला 

  अशोक कुमार सिंह 

 लखनऊ 17 अगस्त।अलविदा की नमाज होने तक शहर में ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था कि इस तहजीब के शहर में कुछ अघटित होने वाला है। जो कुछ भी हुआ वह अप्रत्याशित था। हमेशा की तरह आम मुसलमान मस्जिदों से नमाज पढ़कर, अपनों और अवाम की खुशहाली की दुआ मांगकर बाहर निकल रहा था। शायद उन्हें भी किसी अनहोनी की आशंका नहीं रही होगी, नहीं तो वे अपने साथ अपने बच्चों तक को लेकर क्यों आते। रामजान के महीने का मुसलमानों का सबसे ख़ास और सबसे अजीम दिन, इसलिए मीडिया के कैमरे भी कल के अखबारों और समाचारों के लिए छायाचित्र और चलचित्र उतारने को बेताब थे। नमाज के समय और फिर उसके बाद अपने घरों की और लौट रहे लोगों , उनके त्यौहार की खुशियों भरे चेहरों को दर्शाना चाहता था मीडिया। कहीं कोई तल्खी या वादविवाद की बात भी नहीं थी। यद्यपि महज एक सप्ताह पहले देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में मीडिया और पुलिस वालों के साथ उग्र मुस्लिम समुदाय ने जो बदसलूकी की थी वह जेहन में तो था, लेकिन लखनऊ में भी कुछ ऐसा होगा या हो सकता  है इसकी आशंका किसी को भी नहीं थी।
      सब कुछ ठीक ठाक था। लखनऊ की जो संस्कृति है, जो तहजीब है उसी तरह आम मुसलमान और मीडियाकर्मियों के बीच भी दुआ-सलाम और ईद पर आने, बुलाने की चर्चा थी। अचानक एक भीड़ उमड़ी, शायद ये लोग नमाजी नहीं थे, लेकिन वे लग मुसलमान ही रहे थे। उनके हाथों में लाठी-डंडे थे और लग रहा था जैसे वे कहीं धावा बोलने, किसी पर हमला करने जा रहे थे। उनके आक्रामक तेवरों से आम मुसलमान भी भौचक्का था। उसे भी यह समझ नहीं आ रहा था कि वे लोग इस कदर गुस्से में क्यों हैं। हम लोग अर्थात हमारे पत्रकार और छायाकार साथी उनसे कुछ पूछने, उग्रता की वजह जानने के लिए आगे बढे और सबसे पहले उनके आक्रोश का वे ही निशाना बने। फिर तो  प्रायः हर मीडियाकर्मी निशाने पर था और विशेषकर छायाकार, क्योंकि उनके कैमरे दूर से ही उनकी पहचान करा रहे थे कि वे मीडिया वाले हैं। कैमरे तोड़े गए, मीडिया से मारपीट की गयी। शर्मशार हुआ लखनऊ क्योंकि इससे पहले अदब के इस शहर में ऐसी बेअदबी पहले कभी नहीं हुयी थी।
       बाद में उन उग्र लोगों ने जो कुछ भी किया, शायद वह पूर्व नियोजित था जैसे बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध और जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्तियों पर हमला, उन्हें ईंट पत्थर चलाकर अपमानित करना और हथौड़े फावड़ों से उन्हें तोड़ना। नमाज़ के साथ काफी संख्या में पुलिस बल भी तैनात था। सुरक्षा एजेंसियां इस अनहोनी घटना को रोकने के लिए पहले से ही चक चौबंद थी। अप्रिय हादशा न हो प्रशासन भी इस घटना का पूर्वाभास लगा चुका था लिहाजा उदासीनता या लापरवाही का आरोप भी नहीं लगाया जाना चाहिए। ये दीगर बात है कि उग्र भीड़ पर पुलिस अपना रोल अदा करती इससे पहले ही घटनास्थल पर तैनात हल्का अधिकारी को ऊपर की ओर से तत्काल फोन करके इस बात का स्पस्ट निर्देश दिया गया की प्रशासन की ओर से कोई भी ऐसी कार्यवाही नहीं की जाएगी जिससे आक्रोश और तनाव बढे। वहीँ होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। इस अदब-ओ-अमन के शहर लखनऊ को धार्मिक उन्माद में जबरन धकेल दिया गया। अल्लामा इकबाल का तराना कि 'मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' झूठा साबित कर दिया उन्हीं के चाहने वालों ने।




3 comments:

  1. सार्थक पोस्ट ...आभार !

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  2. इलेक्ट्रोनिक मीडिया के टीवी समाचार चेनल का आचरण प्रिंट मीडिया से अधिक खतरनाक है क्योंकि इलेक्ट्रोनिक मीडिया समाचार देने के बजाय दर्शकों पर अपने नियोजित विचार थोपने लगा है. निष्पक्ष समाचारों का प्रसारण तो अब लगभग समाप्त हो गया है. टीवी चेनलों पर चलने वाले बहस,परिचर्चाओं में कांग्रेस समर्थित लोगों को प्रायोजित अवधारणा के अनुसार लोगों को बुलाकर बहस कराई जाती है. लगभग सभी टीवी समाचार चेनल आजकल भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के समर्थन में जी जान लगा रहे हैं. अब इसमें भी कोई शक नहीं रहा कि लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया ने अपनी स्वार्थपूर्ण,भ्रमित पक्षपातपूर्ण समाचार देने की हरकतों से जनता का मीडिया पर विश्वास लगभग समाप्त हो गया है.

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  3. ऐसे तत्वों को जरूरत से ज्यादा फुटेज देकर आसमान में भी तो मीडिया ही उठाता है.

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