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Thursday, 11 October 2012

गांधीजी के सपनों का भारत और वर्त्तमान लोकतंत्र - 5

                        हम अपराधी हैं गांधीजी के 

   जिस व्यक्ति ने देश  की स्वाधीनता के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन और स्वाधीनता के पश्चात अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए हों, यदि उसे वह स्वाधीन  राष्ट्र भूल जाय तो क्या इसे कृतघ्नता की अति नहीं कहना चाहिए? महात्मा गांधी ने अपने लिए तो क्या अपने परिवार के लिए भी स्वतंत्र भारत राष्ट्र से कुछ नहीं चाहा था और कृतघ्नता की पराकाष्ठा यह कि उसके बाद जिन सियासतबाजों ने गांधी के नाम पर राजनीति की , खुद को उनका अनुयायी बताते रहे, उनहोंने भी महात्मा गाँधी के परिवार और परिजनों को भारतीय राजनीति में प्रवेश नहीं करने दिया। हम अर्थात हम भारतवासी भी कम दोषी नहीं हैं क्योंकि देश के 95 फीसदी से भी ज्यादा लोग यह नहीं जानते और न ही यह जानने की कोशिश की कि जिस व्यक्ति ने देश और देशवासियों के हित के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उसका परिवार इस स्वाधीन भारत में कहाँ और कैसी हालत में है।
      सत्ता और शासक का अपना स्वभाव होता है। वह स्वयं को सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान मानता है। वह समझता है कि सिर्फ वही सही है और वह जो कुछ भी कर रहा है वही ठीक है। रावण और राम राज्य में बहुत अधिक अंतर मानना उचित भी नहीं है क्योंकि राजा रावण हो तो सीता का अपहरण होगा और राजा राम हो तो सीता का परित्याग होगा। न्याय की अपेक्षा और सम्पूर्ण न्याय की अपेक्षा आप रामराज्य में भी नहीं कर सकते क्योंकि यदि किसी को न्याय मिलेगा तो किसी के साथ अन्याय भी अवश्य होगा। शायद यही सोचकर स्वाधीन भारत के लिए समाजवादी लोकतंत्र का चयन किया गया था कि शासक आम जनता होगी , वह अपने विवेक के अनुसार व्यवस्था का संचालन करने के लिए जनप्रतिनिधियों का चयन करेगी। जनप्रतिनिधि जनता और जनहित के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह होंगे, लेकिन क्या ऐसा हो रहा है?
      स्वाधीन भारत के पैंसठ वर्षों में देश की राजनैतिक प्रगति यह है कि तंत्र दिनोंदिन शक्तिशाली होता गया और लोक निरीह बना दिया गया। राजनेता व्यापारी बन गए, आम जनता के मताधिकार को भी क्षेत्रीयता, जातीयता, साम्प्रदायिकता आदि के खांचों में बाटकर पथ भ्रमित कर दिया गया। जिस तरह व्यापारी अपने खराब माल को भी अच्छा बताकर ग्राहकों के सर मढ़ने का प्रयास करता है उसी प्रकार सियासतबाजों  ने भी खुद को और खुद के दलों के सिद्धांतों को दूसरों से बेहतर बताकर राजनीति का व्यवसायीकरण कर दिया। सारा एश भ्रमित होकर राजनेताओं के चक्रव्यूह में फँसा  है। किसी से भी बात करें, भ्रष्टाचार को कोसता नज़र आता है, किन्तु उन्हीं से पूछिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या कर रहे हैं , तो किसी के भी पास उत्तर नहीं है। आम आदमी का जवाब होगा कि वह कर ही क्या सकता है। यदि यही गांधीजी ने भी सोचा होता , यही स्वाधीनता सेनानियों और क्रांतिकारियों ने सोचा होता तो शायद यह देश कभी भी गुलामी से मुक्त नहीं हो पाता।
      गांधीजी, उनके सहयोगियों और क्रांतिकारियों के अथक प्रयासों से प्राप्त हुयी आज़ादी को यदि हम अक्षुण नहीं रख पा रहे हैं, यदि आज़ादी हमारी अकर्मण्यता के चलते भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती जा रही है तो क्या हम स्वयं अपराधी नहीं हैं? हम विरोध नहीं करना चाहते और चाहते हैं कि सब कुछ ठीक हो जाए, तो क्या यह संभव है? यदि ऐसा ही गांधीजी और स्वाधीनता सेनानियों ने भी सोचा होता तो? हम अपनी विवशताओं का रोना रोते हैं लेकिन क्या उनके सामने विवशताएँ नहीं थीं? आज जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और जो उनका समर्थन कर रहे हैं, उन सबको तिरस्कृत किये जाने की आवश्यकता है, यह साहस कौन जुटाएगा ? ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर सारा देश मौन है। जो ऐसे विरोधों की मुहीम चलाते भी हैं , उनको समर्थन देने के बजाय उनमें ही दाग खोजने की कोशिश होने लगती है।
      अभी पिछले दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का जनांदोलन जब उबाल पर था और सारे देश में " मैं भी अन्ना - मैं भी अन्ना " के स्वर गुंजायमान हो रहे थे , उसी समय सत्तारूढ़ दल के एक प्रवक्ता ने कहा , " अन्ना तुम भी ईमानदार नहीं हो " इस वाक्य का सीधा अर्थ यह निकलता है कि मैं बेईमान हूँ तो तुम भी ईमानदार नहीं हो। पार्टी प्रवक्ता का अर्थ पार्टी पार्टी का मुह होता है, मतलब यह कि उस प्रवक्ता ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि उसका दल बेईमान है। फिर भी देश के, देश मीडिया तंत्र के किसी भी व्यक्ति ने यह नहीं पूछा कि यदि तुम बेईमान हो तो तुम्हें सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? इतना ही नहीं , अन्ना  टीम के सदस्यों पर हमले करने के लिए बाकायदा किराए के गुंडों को लगा दिया गया और आरोप लगाए जाने लगे कि अन्ना आन्दोलन को आर .एस .एस . का समर्थन प्राप्त है। मतलब भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज को भी साम्प्रदायिक करार देने की साजिश और जनता के बीच से कहीं विरोध के स्वर नहीं। क्या इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि हम खुद भ्रष्टाचार को मौन समर्थन दे रहे हैं ?
      लूटतंत्र अंग्रेजों के समय भी अवश्य रहा होगा लेकिन उतना नहीं जितना कि इन दिनों है। कमजोरों पर अन्याय तब भी होता होगा लेकिन क्या आज उससे कम है ? तब विदेशी लूटते थे , आज उनकी मानस संतानें लूट रही हैं। जब गांधीजी ने विदेशी लुटेरों के खिलाफ विरोध का बिगुल बजाया था तब सारा देश उनके साथ उठ खडा हुआ था, आज जब देशी लुटेरों के खिलाफ कोई आवाज उठती है तो हम उसे नैतिक समर्थन देने का साहस भी नहीं करते , फिर  हम सब कुछ व्यवस्थित और ठीक हो जाने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? और यदि हम अन्याय , अनाचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का साहस नहीं कर सकते तो क्या हम स्वयं गुनहगार नहीं हैं ? गांधीजी के जन्मदिवस पर उनके चित्र और प्रतिमा पर माल्यार्पण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेना झूठी श्रृद्धांजलि है। यदि हम विरोध का साहस नहीं जुटा सकते , अन्याय, उत्पीड़न सहकर भी मौन हैं , गलत लोगों को व्यवस्था से बाहर करने की पहल नहीं करना चाहते , तो हम स्वयं अपराधी हैं और गांधीजी तथा गांधीवाद के विरोधी हैं।
                 - शर्मा पूरन 

1 comment:

  1. अब गांधी तथा गांधीवाद की पोल कांग्रेस पार्टी के कुकृत्यों से खुल रही है. इस पार्टी की वजह से तिरंगे पर भी भ्रष्टाचार के छींटे पड़ने लगे हैं.अच्छा होता सरकार तिरंगों का दुरुपयोग रोकने के लिए राजनितिक पार्टियों,गैर सरकारी संस्थाओं पर तिरंगे के उपयोग पर प्रतिबंध लगाये.

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