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Sunday 16 September 2012

लोकतंत्र , मीडिया और मुसलमान -1

                           बुद्धिजीवी आगे आयें 

  शरीर का संचालन और नियंत्रण मस्तिष्क करता है। किसी उद्यम , योजना, कारखाने का नियंत्रण, प्रबंधन और संचालन उसके प्रबंधक द्वारा किया जाता है अर्थात उनका मस्तिष्क प्रबंधन में स्थापित होता है। तब समाज और देश का नियंत्रण और संचालन किनके कन्धों पर होना चाहिए ? साधारण जवाब होगा मस्तिष्क अर्थात बुद्धिजीवी वर्ग ! लेकिन क्या आज भारत में ऐसा हो रहा है ? बहुत पुरानी  कहावत है और आम प्रचलित भी कि " प्रजातंत्र मूर्खों का शासन होता है " अंग्रेजी भाषा में कहें तो  "democracy  is the government of fools " . अंग्रेजी के इस फूल् शब्द का अर्थ विदूषक अर्थात जोकर और मूर्ख दोनों ही होता है, तो क्या आज भारत का लोकतंत्र विदूषकों और मूर्खों द्वारा शासित और संचालित नहीं हो रहा है ? मुट्ठी भर लोगों का देश अमेरिका आज यदि सारी दुनिया का बेताज बादशाह बना बैठा है तो उसकी वजह यह है कि वहाँ की व्यवस्था में देश की आतंरिक और वैदेशिक नीतियों तक का संचालन करने के लिए राष्ट्रपति विभिन्न क्षेत्रों और विषयों के पारंगत विद्वानों को अपने मंत्रिमंडल के लिए चयनित करता है। वहाँ राष्ट्रपति के समक्ष ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वह जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों , सीनेटरों को मंत्रिमंडल में स्थान दे।
     अमेरिका में राजनैतिक विरोधी को शत्रु भी नहीं माना जाता और इसका इससे बड़ा कोई दूसरा सबूत हो भी नहीं सकता कि जिन हिलेरी क्लिंटन ने अमेरिका के वर्त्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा के खिलाफ राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था , उन्हें ही ओबामा ने राष्ट्रपति बनाने के बाद उनके विदेश संबंधी ज्ञान को देखते हुए विदेश मंत्रालय जैसी सर्वाधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी। भारत में सब कुछ उलटा- पुल्टा है। यहाँ कृषि मंत्रालय उसे सौंप दिया जाता है जिसने शायद ही कभी खेत की मेड पर पाँव रखा हो। ग्रामीण विकास उसे सौंप दिया जाता है जिसने गाँव देखा ही नहीं और योजना आयोग उस व्यक्ति के हवाले कर दिया जाता है जो भारत को ही सही तरीके से नहीं जानता। रक्षा मंत्रालय संभालनेवाला खुद के चलने में दूसरों की मदद चाहता  है।क्या यह मज़ाक नहीं है और क्या आज देश के सामने जो समस्याएं हैं, उनकी सबसे बड़ी वजह भी यही नहीं है ?
     भारतीय लोकतंत्र का वर्त्तमान सच यह है कि अब देश में राजनैतिक विचारधाराओं और उनके प्रति प्रतिबद्धता का पूरी तरह लोप हो चुका है। उसकी जगह पूंजीवाद, अवसरवाद और माफियावाद स्थापित हो चुका है। अवसरवादी राजनेता हमेशा तिकड़म के खेल खेला करते हैं और बहुत बार तो यह खेल सत्तातंत्र द्वारा भी खेला जाता है। प्रायः देखने में आया है कि जब सरकारों की नीतियों के खिलाफ जनाक्रोश मुखर होने लगता है तो नए विवाद, नए मसाले जन्म लेने लगते हैं और वे मसाले ऐसे होते हैं कि सारे देश का ध्यान उनमें उलझकर रह जाता है। प्रायः ऐसे विवाद और मसले सत्तातंत्र द्वारा प्रायोजित होते हैं।
      मुंबई में बलवाइयों द्वारा महिला पुलिसकर्मियों के साथ अभद्रता की गयी, पुलिसवालों के हाथों से रायफलें तक छीन ली गयीं और पुलिस ने सख्ती नहीं दिखाई। खबर है कि ऊपर से निर्देश थे कि उपद्रवियों के साथ सख्ती न की जाय। अलविदा की नमाज़ के दिन अर्थात 17 अगस्त को नमाज़ के बाद लखनऊ में लाठी- डंडों से लैस उपद्रवी तोड़- फोड़ कर रहे थे और पुलिस अधिकारियों को ऊपर से निर्देश दिए जा रहे थे कि उपद्रवियों के साथ सख्ती न की जाए। इसका सीधा सा अर्थ है कि शायद इस उपद्रव की जानकारी शासन और प्रशासन को पहले से ही थी। शायद यह सब प्रायोजित था ,शायद इसका आशय एक नया विवाद पैदा कर जनाक्रोश की दिशा को बदलना रहा हो। संभव यह भी है कि यह प्रायोजन उनके द्वारा किया गया हो जो सरकार को बदनाम कर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकना चाहते हों। जो अपने राजनैतिक भविष्य के रास्ते तलाश रहे हों और सरकार ने बलवाइयों पर सख्ती न करने की हिदायत इसलिए दी कि विवाद को और अधिक बढ़ने से रोका जा सके। उपरोक्त दोनों बातों में से कम से कम एक बात तो सच जरूर है और सच यह भी है कि इस अमन के खिलाफ साजिश में कोई विदेशी हाथ हो या न हो लेकिन सियासत के हाथ ज़रूर शामिल रहे हैं।
       प्रश्न यह है कि जो कुछ भी हुआ उसमें जान बूझकर मीडिया को ही निशाना क्यों बनाया गया ? आखिर मुसलमानों को मीडिया से क्या शिकायत थी कि वे उनके कैमरे तोड़ने और उनके साथ मारपीट करने लगे ? एक ज़वाब तो यह हो सकता है कि मीडिया द्वारा समाचारों में आम मुसलमान की पीड़ा को यथोचित स्थान न दिए जाने के खिलाफ यह आक्रोश था। यह ज़वाब सम्पूर्ण नहीं है क्योंकि इससे पहले आम मुसलमानों की और से कोई ऐसी बात नहीं उठायी गयी थी कि मीडिया आम मुसलमानों की परेशानियों को कोई अहमियत नहीं दे रहा है। फिर सवाल उठाता है कि क्या मुसलमानों का साजिश के तहत इश्तेमाल किया गया और उन्हें जानबूझकर मीडिया के खिलाफ उकसाया गया ? सच यह भी हो सकता है , हाँ बलवाइयों को जितना करने के निर्देश थे , शायद उनमें युवाओं की अधिकता और उनमें भी अति उत्साह में कुछ ज्यादा ही उत्पात हो गया जिनमें महात्मा बुद्ध और जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी की प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त किया जाना भी शामिल है।
       हमेशा बलवों, विवादों तथा उग्र गतिविधियों में मुसलमानों का वह तबका ही आगे नज़र आता है जो कम पढ़ा- लिखा है अथवा जिसका दायरा केवल दीनी तालीम तक ही सीमित है। निश्चित है कि नफ़रत के सौदागर ऐसे लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर उनका अपने निजी स्वार्थों के लिए उपयोग करते हैं। ऐसे मुसलमानों और फिर उनकी भावी पीढी को भी दुनियावी तालीम से दूर रखने की साजिश सियासत और मुस्लिम समुदाय के ही कुछ बड़े मौलानाओं द्वारा आज़ादी के बाद से ही की जाती रही है , और वह साजिश आज भी हो रही है। सियासी ज़मातें मुसलमानों को हमेशा वोट बैंक बनाए रखना चाहती हैं और यह तभी तक संभव है जब तक मुसलमानों में शिक्षा का अभाव कायम रहेगा और वे अपनी रोजी- रोटी की समस्याओं से जूझते रहेंगे।
       मुस्लिम समाज को बेहतरी के रास्ते पर लाने , उनमें विवेक की ताकत पैदा करने , उन्हें भारतीय लोकतंत्र का वास्तविक हिस्सेदार बनाने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें शिक्षित किया जाए , उनके लिए दीनी ही नहीं दुनियावी तालीम के रास्ते आसान किये जाएँ। यह उम्मीद सरकारों से नहीं की जा सकती क्योंकि वे सियासत की नीतियों से चलती हैं। यह उम्मीद मौलानाओं से भी नहीं की जा सकती क्योंकि तब उनकी इमामत और उनकी अपनी ही रोजी- रोटी के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। यह ज़िम्मेदारी मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवी तबके को उठानी होगी, और साथ ही लोकतंत्र में घुस बैठे चोरों के खिलाफ देश के सभी बुद्धिजीवियों को जनजागरण की अलख जगानी होगी , तभी सुरक्षित रह सकेगा लोकतंत्र, देश की सामाजिक समरसता और हमारा अपना देश भारत।
                              - एस . एन . शुक्ल

2 comments:

  1. भयंकर चुनाव सुधार हों तो बात बने।

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  2. अच्छा विश्लेष्ण किया है ......

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