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Sunday, 16 September 2012

लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान -3

                "  सारे विवाद की जड़ सियासत "


     इस देश में प्रायः हर हादसे के पीछे सियासत ही होती है तो हर मांग, हर आन्दोलन और हर सामूहिक विरोध या समर्थन का मकसद भी सियासत से जुदा होता है। दुर्भाग्य यह है कि ऐसे आन्दोलनों, प्रदर्शनों में सबसे ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने वाले लाभ पाने के मामले में सबसे पीछे रह जाते हैं। यह हमेशा से होता आया है और आज भी हो रहा है। देश भर में जिस तेजी से नए- नए राजनैतिक दलों का उभार हुआ , उसके पीछे सियासत के झंडाबरदारों की अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा थी। उनके जनांदोलनों, प्रदर्शनों में जिन मांगों, जिन अपेक्षाओं को आधार बनाया गया था वे बहुत शीघ्र ही नेपथ्य में चले गए और राजनैतिक मठाधीशों का लक्ष्य महज सत्ता हासिल करना या सत्ता में भागीदारी हासिल करना भर रह गया। राज्यों से लेकर केंद्र तक आज जिस गठबंधन राजनीति का दौर जारी है और जिस प्रकार एक- दूसरे के धुर विरोधी दल स्वार्थों की रोटियाँ सेक रहे हैं उसे देखकर भी यदि आम आदमी को देश की राजनैतिक नीयत समझ में नहीं आती तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।
        हिन्दुओं के बाद इस देश में सबसे अधिक तादाद मुसलमानों की है। यह इतना बड़ा वोट बैंक है कि वह जिस दल के भी पक्ष में करवट ले ले , उसकी विजय सुनिश्चित हो जाती है, और शायद यही वह लालच है कि देश के प्रायः सारे ही राजनैतिक दल उन्हें अपने पाले में लाने या उनमें बिखराव पैदा करने की रणनीति में जुटे हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण के पक्षधर खुद को धर्मनिरपेक्षता का ठेकेदार मानते है और जो इस तुष्टीकरण के पक्ष में नहीं हैं उन्हें साम्प्रदायिक करार देने पर आमादा। सच यह है कि तुष्टीकरण और विरोध दोनों ही गलत रास्ते हैं और इससे देश की सामाजिक समरसता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली का बाटला हाउस मुठभेड़ काण्ड लिया जा सकता है, जिसमें कुछ उग्रवादी मुस्लिम युवाओं से मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के एक जांबाज इंस्पेक्टर को अपनी जान गंवानी पडी थी। जाँच एजेंसियों ने भी उस मुठभेड़ की सत्यता के पक्ष में अपनी मुहर लगाई थी और उस मुठभेड़ में शामिल रहे गुमराह मुस्लिम युवाओं को गुनाहगार ठहराया था , लेकिन पिछले वर्षों उक्त मुददे को लेकर जो सियासत होती रही उससे दुखद क्या हो सकता है कि बिना जांच- पड़ताल के ही कोई नेता मुस्लिम वोटों की लालच में मुठभेड़ को ही गलत ठहरा दे और मुठभेड़ में शहीद हुए अपने ही जांबाज इंस्पेक्टर की मौत का मजाक उडाये।
         एक और मसला गुजरात के बहुचर्चित सोहराबुद्दीन की कथित मुठभेड़ में ह्त्या किये जाने का है , जिसको लेकर वर्षों से देश भर की सियासत गर्म है और अखबारों ने उक्त मसाले को लेकर जाने कितने पन्ने काले किये हैं। यह पूरी तरह प्रमाणित है कि सोहराबुद्दीन एक कुख्यात अपराधी था, उसका आतंकी नेटवर्क से गहरा रिश्ता था , वह जघन्य आपराधिक मामले में लम्बे समय तक जेल में भी बंद रहा था और उसके पास से दो दर्जन विदेश निर्मित एके - 47 रायफलें बरामद हुयी थीं। क़ानून की नजर में ऐसे अपराधी की ह्त्या किया जाना भले ही अनुचित हो, लेकिन समाज और देश हित में क्या उसका मारा जाना अपराध था ? यहाँ एक और भी प्रश्न है कि यदि सोहराबुद्दीन जाती से मुसलमान न होता और उसकी फर्जी मुठभेड़ में ह्त्या की गयी होती तो भी क्या देश की सियासत में उक्त मुठभेड़ को लेकर ऐसा ही भूचाल आया होता ? अपराधी केवल अपराधी होता है , उसका कोई धर्म नहीं होता। क़ानून क्या कहता है , यह दीगर बात है लेकिन मेरा अपना नजरिया है कि जो भी देश के खिलाफ आपराधिक गतिविधियों में शामिल हो , उसका केवल एक ही इलाज है सजा- ए - मौत , फिर चाहे वह पुलिस की गोली से हो, लोगों के गुस्से से हो या अदालत के आदेश से।
         देश की व्यवस्था के स्तर पर हिन्दू और मुसलमान की बात बंद होनी चाहिए। विरोध और तुष्टीकरण दोनों ही बंद होने चाहिए। वोटों की लालच की राजनीति का विरोध किया जाना चाहिए और सार्वजनिक योजनायें जाति , धर्म, सम्प्रदाय के हित की बजाय सार्वजनिक हित की बनायी जानी चाहिए, हाँ आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को मदद अवश्य की जानी चाहिए। वे जो सत्ता के सौदागर हैं, उन्हें अपने स्वार्थ से आगे कुछ दिखाई नहीं देता, लेकिन अब समय आ गया है कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग देश को जगाये और देश की अवाम को समझाये कि उसका कौन लोग और किस प्रकार शोषण कर रहे हैं। कौन लोग उनकी भावनाओं को भड़काकर देश और समाज को तोड़ने की साजिशें रच रहे हैं।
         पराधीनता से देश को मुक्त कराने के लिए स्वाधीनता संघर्ष में जितना योगदान हिन्दुओं का रहा है,उससे कहीं अधिक मुसलमानों का रहा है। फिर देश के बटवारे के समय जो मुसलमान भारत को छोड़कर पाकिस्तान चले गए, उनकी इस देश के प्रति निष्ठा हो भी नहीं सकती लेकिन जिन्होंने भारत को छोड़ना स्वीकार नहीं किया उनकी निष्ठा पर संदेह भी नहीं किया जा सकता। देश के सर्वोच्च अर्थात राष्ट्रपति पद पर डॉ . जाकिर हुसैन, डॉ . फखरुद्दीन अली अहमद और डॉ . ए .पी . जे . अब्दुल कलाम जैसी महान विभूतियाँ आसीन रह चुकी हैं, अर्थात जिनके आलोक में सारे देश की छवि को देखा जाता रहा है। क्या वे किसी वर्ग विशेष के प्रतिनिधि होने के नाते उस ऊँचाई तक पहुंचे ? इस देश को संवारने में सबकी सामान भागीदारी है , इसलिए धर्म और जाति के आधार पर कोई आकलन, कोई तुष्टीकरण उचित नहीं कहा जा सकता।
           सच यह है कि मुस्लिम सम्प्रदाय के खिलाफ साजिशें तो इस देश की सियासत भी करती रही है। उन्हें दीनी तालीम के प्रति परोक्ष रूप से प्रेरित करना और दुनियावी तालीम से महरूम बनाए रखना क्या साजिश नहीं है ? देश का मुस्लिम तबका अब भी अन्य वर्गों की अपेक्षा उस सिक्षा के मामले में बहुत पिछड़ा है जो शिक्षा सामाजिक सोच विक्सित करती है और रोजी - रोटी का जरिया आसान करती है। जो शिक्षित नहीं हैं वे शिक्षा के महत्व को भी आसानी से नहीं समझ सकते कि उनका कौन अपने मकसद के लिए कहाँ और कैसे इश्तेमाल किये ले रहा है। वे आसानी से बरगलाए और बहकाए जा सकते हैं। वे धार्मिक आस्थाओं पर बिना परिणामों की परवाह किये उग्र हो सकते हैं, और गत माह देश के जिन भी हिस्सों में मुसलमान उग्र हुए , वे सारी ही घटनाएँ ऐसी ही सियासती साजिशों की परिणति थीं। गुनाहगार तो वे हैं जो पर्दों के पीछे से अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए खेल, खेल रहे हैं। उन्हें बेनकाब किया जाना चाहिए ताकि देश की एकता बरकरार रहे और भारतीय लोकतंत्र की राह बाधित न हो।
                                                            - आर .एस . उपाध्याय
        


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