भारतीय राजनीति में बाल ठाकरे और अडवाणी
देश की दो
बड़ी राजनैतिक शाख्शियतें शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे और भाजपा के वरिष्ठ
नेता लालकृष्ण अडवानी चाहे वे खुद विवादों में रहें हों या विवाद का कारण
बने हों लेकिन भारतीय राजनीति में उनके योगदान उनके नजरिये और उनकी महत्ता
को नकारा नहीं जा सकता। हम उनकी विचारधारा से असहमत हो सकते हैं लेकिन
भारतीय राजनीति में हम उनकी हैसियत को अस्वीकार नहीं कर सकते।
व्यक्ति हो या सत्ता समाज में उसकी स्वीकार्यता उसके प्रभाव या
दबाव का परिणाम होती है। दबाव की स्वीकार्यता भय या स्वार्थ के कारण होती
है और वह तभी तक रहती है जब तक सत्ता है या व्यक्ति जीवित है। सत्ता और
व्यक्ति के अंत के साथ ही उसकी जनस्वीकार्यता भी समाप्त हो जाती है, किन्तु
जहां स्वीकार्यता प्रभाव के कारण होती है वहां वह सत्ता चले जाने या
व्यक्ति के समाप्त हो जाने पर भी समाप्त नहीं होती। यह बात इसलिए भी
प्रासंगिक हो जाती है कि पिछले दिनों शिवसेना प्रमुख बालासाहेब
ठाकरे की म्रत्यु पर उनकी अंतिम यात्रा में उमड़ी अपार भीड़ और बिना किसी
दबाव के मुंबई बंद में किन अर्थों में देखा जाना चाहिए ? मान लेते हैं कि
बाला साहेब ठाकरे की ताकत के भय से लोग उनके सामने सिर झुकाते थे, किन्तु
उनके निधन के बाद तो आम लोगों का वह भय समाप्त हो जाना चाहिए था। अंतिम
यात्रा में जितनी भीड़ बाल ठाकरे के लिए उमड़ी उतनी तो शायद इससे पहले देश
में किसी भी लोकप्रिय नेता के अंतिम दर्शन के लिए नहीं उमड़ी होगी। खुलेआम
संविधान, चुनाव आयोग, अदालत और व्यवथा को चुनौती देने वाले ठाकरे में कुछ
तो ऐसा था कि देश का क़ानून भी उनके सामने सहम उठता था, और शायद इसकी वजह
उनकी दबंगई नहीं उनकी लोकप्रियता थी।हाजी मस्तान, सुकर नारायण बखिया,यूसुफ़ पटेल और मोहन ढोलकिया जैसे तस्कर सम्राटों की बम्बई में "आमची मुम्बई" का नारा बुलंद करने वाले बाला साहेब ठाकरे ने अपने कृतित्व और प्रयासों से मराठियों के बीच अपनी जो छवि बनायी थी, उसके कारण बड़े-बड़े बाहुबली भी उन्हें चुनौती देने की बात तो दूर उनके सामने सर झुकाने को मज़बूर थे।यह वह दौर था जब देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई (तब बम्बई ) पूरी तरह तस्कर सम्राटों और उनके गुर्गों के आधिपत्य में थी। बाला साहेब ने न केवल उन्हें चुनौती दी वरन उनके आधिपत्य को भी तोड़ा।छत्रपति शिवाजी को आदर्श मानकर उन्हीं के नाम पर शिवसेना बनाई , मुम्बई नगर निगम के महापौर से लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, यहाँ तक कि देश का राष्ट्रपति तक बनाने में अहम् भूमिका निभाई लेकिन खुद के लिए किसी राजनैतिक पद की चाहत नहीं रखी। दृढ़ निश्चयी, जो कह दिया वह पत्थर की लकीर हो गया।झुकना और बात को तोड़-मरोड़कर कहना उनकी फितरत में नहीं था।यह सच है कि अपनी ताकत का कई बार उन्होंने बेजा इश्तेमाल भी किया और लगातार आलोचनाओं और विवादों से भी घिरे रहे, लेकिन दूसरा सच यह भी है कि जिसके सर पर उन्होंने वरद हस्त रख दिया, उसकी और टेढ़ी नज़र से देखने का दुस्साहस न तो दाउद इब्राहीम जैसा अंतर्राष्ट्रीय माफिया सरगना कर पाया और न ही सरकार। सोचिये क्या बाला साहेब की मृत्यु पर लता मंगेसकर ने यूं ही कह दिया था कि " आज वह अपने आप को अनाथ महसूस कर रही हैं।
बाल ठाकरे ने कभी दुहरी जिन्दगी नहीं जी। खुली किताब जैसी उनकी जिन्दगी थी तो शराब का शौक और सिगार के कश तक डंके की नोक पर। लोग उन्हें मुस्लिम विरोधी ठहराते रहे हैं, लेकिन तब वे भूल जाते हैं कि शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के वह कितने बड़े मुरीद थे।उनकी साफगोई और बेबाकीपन ने ही उन्हें लोगों का चहेता बनाया।उन्होंने लोगों को राजनीति के शिखर पर बिठाया , खुद नहीं बैठे तो जो इतिहास रचकर उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा, उस रिक्ति को भविष्य में शायद ही कोई भर सके।
ऐसा ही कुछ भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी के बारे में भी कहा जा सकता है। याद करें 1985 के लोकसभा चुनाव को, जब सारे देश से भाजपा को महज दो सीटों पर ही सफलता हासिल हो पायी थी। अटल बिहारी जैसे नेतृत्व के बावजूद हाशिये पर पहुँच गयी भाजपा के बारे में तब कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि वह किसी दिन केंद्र में सत्तारूढ़ होगी और कांग्रेस का विकल्प बनकर खड़ी हो जायेगी।बाद में ऐसा हुआ और वह करिश्मा कर दिखानेवाले बाजपेयी जी नहीं, लाल कृष्ण आडवाणी थे। लोग कहते हैं कि भाजपा राम मंदिर आन्दोलन के रथ पर सवार होकर, और हिन्दुओं की भावनाएं भड़काकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुयी, यदि यही सच्चाई है तो संघ तो आपातकाल के बाद से ही विश्व हिन्दू परिषद् के नेतृत्व में राम मंदिर का झंडा उठाये घूम रहा था, फिर 1985 के चुनाव में भाजपा को सिर्फ दो लोकसभा सीटों पर ही क्यों सिमट जाना पडा था ?
राम मंदिर मसले को अचानक सारे देश का मुद्दा बना देने का श्रेय आडवाणी जी को ही जाता है। वह भाजपा जिस पर रूढ़िवादिता और साम्प्रदायिकता के आरोप लगते रहे हैं उसके अखिल भारतीय स्वरुप को मूर्तरूप देने का काम भी आडवाणी ने ही किया था। उन्होंने कांग्रेस की कथित धर्मनिरपेक्षता को खुली चुनौती देते हुए देश की राजनीति को विवादास्पद ही सही लेकिन एक नया दृष्टिकोण , एक नयी दिशा दी। यह वह समय था जब कांग्रेस के समाजवाद के विरुद्ध विकल्प के रूप में अगर कुछ था तो वह वामपंथी विचारधारा ही थी। सच यह है कि स्वयं आधी कांग्रेस इसी वामपंथी सोच और विमर्श से जूझ रही थी। बुद्धिजीवी वर्ग समझ रहा था कि कांग्रेस का गांधी के दर्शन और सिद्धांतों से कोई वास्ता नहीं है, इसलिए वामपंथ को विकल्प के रूप में देखा जाने लगा था।
आडवाणी की रथ यात्रा और राष्ट्रवाद के साथ हिन्दू आस्था की घुट्टी ने वह करिश्मा कर दिखाया जो अप्रत्याशित था।यह करिश्मा इसलिए भी था क्योंकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ( आर एस एस ) के जिस हिंदुत्व को देश का हिन्दू बुद्धिजीवी ही रूढ़िवादिता कहकर नकार रहा था, उसी हिंदुत्व के पक्ष में आडवानी ने केवल उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत ही नहीं सारे देश में एक बड़ा समर्थक बुद्धिजीवी वर्ग खडा कर दिया। सुधीन्द्र कुलकर्णी, गिरिलाल जैन और चन्दन मित्रा जैसे साम्यवाद के हिमायती बुद्धिजीवियों को हिंदुत्व का प्रखर समर्थक बनाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है, और इतना ही नहीं दक्षिण भारत में भाजपा की नीव डालने में भी सर्वाधिक योगदान उन्हीं का है।
यह सच है कि अटल बिहारी जैसा वक्ता उस समय देश में शायद कोई दूसरा नहीं था। उनकी सभाओं में उन्हें सुनाने के लिए अपार भीड़ उमड़ती थी लेकिन वह भीड़ वोटों की शक्ल में नहीं बदल पाती थी। आडवाणी ने उस भीड़ को वोटों में बदला, केंद्र में कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा और भाजपा को शहरों से गावों तक आम और ख़ास के बीच स्वीकार्य बनाया। आज यदि भाजपा को ही कांग्रेस के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है तो उसका सिला आडवाणी को ही जाता है। इतना ही नहीं राजग जब भाजपा के नेतृत्व में केन्द में सत्तारूढ़ हुआ तो उसके घटक दलों ने भले ही बाजपेयी के उदारवाद के चलते भाजपा का नेतृत्व स्वीकार किया लेकिन उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तरफ मोड़ने वाले तो आडवाणी ही थे। बाला साहब अब नहीं हैं, आडवाणी जी अभी भी चुस्त-दुरुस्त हैं लेकिन वयोवृद्ध तो हैं ही। हम उनके नजरिये से असहमत हो सकते हैं, उन्हें संकीर्ण विचारधारा का पोषक कहकर उनकी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन भारतीय राजनीति में उनके योगदान और उनकी हैसियत को अस्वीकार नहीं कर सकते।
- एस .एन .शुक्ल
शुक्ल जी बहुत सुंदर विश्लेषण और आकलन.
ReplyDeleteBoth had their points that never analysed...
ReplyDeleteRachana ji,
ReplyDeleteAnupam ji
dhanyavaad aapakee pratikriyaon ka.