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Sunday 27 January 2013

विस्थापन, अर्थात अपने ही देश में शरणार्थी

       स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष और इन पैंसठ वर्षों में देश के छः करोड़ 50 लाख से भी अधिक लोग विकास के नाम पर अपने ही देश में बेघर कर दिए गए। औसत प्रति वर्ष 10 लाख से भी अधिक लोगों के आशियाने उजाड़े गए और उन्हें फिर से बसाने की चिंता देश की किसी भी सरकार ने नहीं की। यह आरोप नहीं सच्चाई है जिसे पिछले दिनों ही डब्लू जी एच आर की रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है। ऐसी ही अनेक योजनाओं से धनपति और उद्यमी तो मालामाल हुए लेकिन वहां के बाशिंदे बेघर  और कंगाल। वे गरीब वर्षों से न्याय की उम्मीद में भटक रहे हैं, क्या कभी पोछे जा सकेंगे उनके आँसू  ?

        वह भाखड़ा  नांगल बाँध , जिसके निर्माण पर इस देश ने अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाई थी, लेकिन देश की यह बड़ी उपलब्धि सबसे अधिक महगी देश के उन 2180 परिवारों को साबित हुयी, जिनके आशियानों और रोटी देने वाले खेतों को इस विशाल बाँध ने निगल लिया।वर्ष 1963 में उजाड़े गए इन परिवारों में से  पच्चीस वर्ष बाद  1988 में महज 730 परिवारों को ही पुनः बसाया जा सका, शेष 1450 परिवार कहाँ गए, क्या कर रहे हैं और हैं भी या नहीं , इसे जानने की जरूरत इस देश की व्यवस्था ने आज तक नहीं महसूस की।
       केवल भाखड़ा ही नहीं, देश के अन्य बांधों के निर्माण  में भी अब तक 1 करोड़ 64 लाख लोग विस्थापित किये गए तो खनन के कारण 25 लाख 50 हजार,उद्यमों की स्थापना में 12 लाख 50 हजार तथा अन्य विकास परियोजनाओं के कारण 11 लाख से अधिक लोग बेघर कर दिए गए। यह 1950 के बाद से लेकर अब तक का अधिकृत आंकड़ा है, जबकि वास्तविक सँख्या कहीं इससे भी अधिक हो सकती है। विस्थापितों की इस संख्या में वे लोग शामिल नहीं हैं जो वर्षों से उन अधिगृहीत की गयी जमीनों पर खेती- बारी तो कर रहे थे लेकिन उनके पास उन जमीनों से सम्बंधित ऐसे कोई अभिलेख नहीं थे जिससे वे खुद को उन जमीनों का मालिक साबित कर सकें। वर्किंग ग्रुप आन ह्यूमन राइट्स इन इंडिया ( w g h r ) की गत वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार देश की स्वाधीनता के बाद से अब तक देश के लगभग साधे छः करोड़ लोगों को विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापन का दंश झेलना पड़ा।
       उल्लेखनीय है कि पूरी दुनिया में शरणार्थियों की संख्या 1.5 करोड़ से 1.6 करोड़ के बीच है तो अकेले भारत में विकास के नाम पर साधे छः करोड़ लोग बेघर कर दिए गए, अर्थात अपने ही देश में शरणार्थियों से भी बदतर  बना दिए गए , क्या यह स्थिति दुखद एवं भयावह नहीं है ? बांधों और जलाशयों के अधिकाँश निर्माण उन क्षेत्रों में ही किये गए जहां बहुतायत संख्या में आदिवासी परिवार रहते थे। प्रस्तुत 17 बड़े बांधों के निर्माण में कुल 9, 07, 874 लोग विस्थापित हुए तो  से 5, 48, 426 लोग अर्थात 60.41 फीसदी लोग जनजातीय परिवारों के थे।आदिवासी प्रायः अशिक्षित होते हैं। उन्हें अपने अधिकारों और क़ानून के बारे में जानकारी नहीं होती। उनके लिए तो पुलिस ही अदालत है और पुलिस ही क़ानून।जब ठेकेदारों और अधिकारियों से उपकृत होकर पुलिस  को धमकाती है तो वे प्रतिरोध नहीं कर पाते और बिना विस्थापन के मुआवजे की प्रतीक्षा किये ही रोजी-रोटी की तलाश में बड़े शहरों की ओर निकल जाते हैं।
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बड़े बांधों ने सबसे अधिक आदिवासी उजाड़े 

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क्रम  परियोजना          राज्य       विस्थापितों की         आदिवासी 
                                                      कुल संख्या    
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  सरदार सरोवर      गुजरात        2,00000        1,15,200
  पोलावरम           आन्ध्र प्रदेश    1,50000           79,350
  मेथान /पांचेत      बिहार              93,874            53,001
  पोंग                   हिमाचल प्रदेश   80,000            45,000
  कोयल कारो         बिहार              66,000            58,080
 उकई जलाशय        गुजरात          52,000              9,838
 माही बजाज सागर राजस्थान       38,400             29,292
 इवमपल्ली           आन्ध्र प्रदेश      38,100             29,062
.चांडिल                   बिहार             37,600             33,058
.भाखड़ा              हिमाचल प्रदेश     36,000            11,160
.इचा                  झारखण्ड             30,800             24,640
.महेश्वर            मध्य प्रदेश           20,000            12,000
.ऊपरी इन्द्रावती   ओडिशा              18,500             16,502
.तुलतुली              महाराष्ट्र            13,600               7,019
.बोधघाट              मध्य प्रदेश         12,700              9,387
.कर्जन                 गुजरात              11,600            11,600
.दमन गंगा          गुजरात                 8,700             4,237
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                                                 9,07,874         5,48,426
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          गुजरात,बिहार,आन्ध्र प्रदेश और राजस्थान से आये ऐसी ही विकास परियोजनाओं के सताए आदिवासियों की एक बड़ी विस्थापित आबादी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की झोपड़पट्टियों में वर्षों से मेहनत -मजदूरी करके अपना पेट पाल रही है। उन्हें यह भी नहीं पता कि वे जहां से उजाड़े गए थे , वहाँ क्या बनाया गया है और  उनके साथ ही अन्य विस्थापित किये गए लोगों को   पुनर्वास की कोई  व्यवस्था सरकार ने की है या नहीं।
       योजनाकारों का मानना है कि 4000 मेगावाट की क्षमता वाले थर्मल प्लांट की स्थापना में लगभग 250 परिवार विस्थापित होते हैं लेकिन इससे 10,000 लोगों को अतिरिक्त रोजगार भी मिलता है। सवाल यह है कि उस रोजगार में विस्थापित परिवारों को कितनी भागीदारी दी जाती है ? माना कि वे कुशल श्रमिक नहीं होते लेकिन हर परियोजना में 50 फीसदी से अधिक अकुशल श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती ही है, तो वह अवसर सबसे पहले विस्थापित परिवारों के बेरोजगारों को न  दिया जाना  क्या नाइंसाफ़ी नहीं है ?
    सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसी भी विकास परियोजना में विस्थापन पहले होता है, अर्थात लोगों के घर- बार उजाड़कर उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है और फिर उसके बाद उजाड़े गए लोगों को पुनर्वासित  करने के लिए  पुनर्वास पॅकेज स्वीकृत होने में वर्षों का समय लग जाता है। प्रश्न यह है कि विस्थापित किये गए लोग तब तक क्या करें और क्या खाएं ? मजबूरी में वे रोजी- रोटी की तलाश में दूर शहरों की और पलायन को विवश होते हैं और उसके बाद व्यवस्थाकारों द्वारा भी वे पूरी तरह भुला दिए जाते हैं। बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि भृष्ट अफसरशाही की मिलीभगत से पुनर्वास पॅकेज का भी बंदरबांट हो जाता है और फर्जीवाड़े के जरिये पुनर्वास की धनराशि डकार ली जाती है।
     सरकार, उद्यमियों और ठेकेदारों के लिए आदिवासी और जनजातीय लोग अशिक्षित होने के कारण हमेशा सहज शिकार रहे हैं। जहां बाँध, खनन, उद्योग या ऐसी ही अन्य परियोजनाओं के कारण लोगों का विस्थापन किया गया , वे क्षेत्र आदिवासी और जनजातीय बहुल इसलिए भी चयनित किये गए क्योंकि वहाँ  वर्षों नहीं वरन पीढ़ियों से जमीनों पर खेती-बारी करने वाले उन गरीबों के पास जमीनों के मालिकाना अधिकार प्रदर्शित करने वाले दस्तावेजी कागजात नहीं थे। जो जमीन लोगों के नाम अंकित ही नहीं उसे सरकारी ठहराकर अधिग्रहण भी आसान था। बस कब्जेदारों के सामने पुलिस ने लाठियां फटकारी , उन्हें सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे के आरोप में जेल भेजने की धमकी दी गयी और वे बेचारे भयभीत होकर इसे अपना भाग्य मानाकर्मानाकर अपनी पुश्तैनी जमीनें और घर - बार छोड़कर पलायन कर गए।यह दुर्भाग्य है कि स्वाधीनता के 65 वर्ष बीतने के बाद भी अभी तक देश की जमीनों के रिकार्ड पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हैं।यह हाल व्यक्तिगत ही नहीं सरकारी जमीनों तक का है।इसका परिणाम यह है कि जहां ऐसी जमीनों पर भूमाफिया दबंगई और पैसे के बल पर काबिज होकर सम्पन्नता की उंचाइयां छू रहे हैं , वहीं जो पीढ़ियों से उन जमीनों पर काबिज रहे , उन्हें महज एक बन्दर घुड़की से बेदखल कर दिया जा रहा है।
  व्यवस्था के दोष   :   देश की स्वाधीनता और भारतीय लोकतंत्र की स्थापना के बाद केंद्र से लेकर राज्यों की सरकारों  तक ने विकास की योजनायें तो बनाईं। उनमें से बहुत से कार्य संपन्न भी हुए, लेकिन उनके कारण जो लोग प्रभावित हुए या हो रहे थे , उनके संरक्षण और पुनर्वास के लिए स्वाधीनता के 60 वर्षों बाद तक भी कोई स्पष्ट नीति नहीं बनायी जा सकी।जब विस्थापित लोगों का विरोध और आक्रोश जोर पकड़ने लगा और पानी सर से ऊपर गुजरने की नौबत आ गयी, तब वर्ष 2007 में सरकार ने नयी राष्ट्रीय पुनर्वास नीति " रिसेटेलमेन्ट एंड रिहेबिलिटेशन " की घोषणा की। यह नीति भी आधी- अधूरी ही थी इसलिए आक्रोश निरंतर बढ़ता रहा और केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने वर्ष 2011 में नए "भूमि अधिगृहण , पुनर्वास एवं विस्थापन विधेयक " को तैयार किया। इस विधेयक में यह प्राविधान किया गया है कि जमीनों के अधिगृहण का काम केवल सरकार करेगी और इसके लिए निजी कंपनियों को अनुमति नहीं दी जायेगी। उल्लेखनीय है कि अभी तक यह विधेयक केवल तैयार भर किया गया है, उसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस नक्सलवाद के नए रूप माओवाद से इस समय देश के 200 से भी अधिक जिले बुरी तरह प्रभावित हैं और जिससे निपटने के लिए देश की सरकारें अब तक खरबों रुपये खर्च कर चुकी हैं, उसमें विस्थापन के आक्रोश की बहुत बड़ी भूमिका है।
                                     -    एस . एन .शुक्ल
            

Friday 11 January 2013

लगातार घटती बेटियाँ


                              लगातार घटती बेटियाँ

   चिकित्सा  क्षेत्र में गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है , लेकिन इसी उपलब्धि के चलते पुरुष प्रधान समाज और बेटों की चाह और बेटियों को पराया धन समझने वालों के लिए बेटियों को गर्भ में ही समाप्त कर देने का एक आसान रास्ता भी दे दिया। इस मामले में शिक्षित और खुद को प्रगतिशील मानने वाला समाज सबसे आगे रहा है। अब बेटियों की घटती संख्या को लेकर सरकार भी चिंतित है क्योंकि सारा देश और सारा समाज बेटियों की घटती संख्या के दुष्प्रभाव से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

       गर्भस्थ  शिशु का लिंग परीक्षण करना और करवाना अपराध की श्रेणी में तब स्वीकार किया गया जब पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा।पहले तो सरकारी स्टार पर ही बड़े- बड़े विज्ञापन जारी कर प्रचारित किया जा रहा था की अनचाहे गर्भ से छुटकारा पाना अब आसान हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि वर्ष 1961में देश में जहां प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की सँख्या 976 थी , वह पचास वर्ष बाद वर्ष 2011 आते- आते घटकर प्रति हजार लड़कों के अनुपात में 914 रह  गयी। वर्ष 2001 की जनगणना में प्रति एक हजार लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 927 थी और केन्द्रीय योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनामें वर्ष 2011-12 तक लड़कियों की संख्या प्रति एक हजार लड़कों के मुकाबले 935 तक पहुंचाने का लक्ष्य तय किया था। इस लक्ष्य का भी वही हस्र हुआ जो प्रायः हर सरकारी योजना का होता है।लड़कियों की संख्या और अनुपात बढ़ने के बजाय और भी घट गया। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि प्रति हजार लड़कों की तुलना में देश में लड़कियों की  वर्त्तमान संख्या 914 है। लिंग परीक्षण अब भी किये जा रहे हैं और कराये जा रहे हैं। चूंकि अब ऐसा करना और करवाना विधिक रूप से अपराध है , इसलिए जाँच परिणाम लिखित तौर पर नहीं दिए जाते और परीक्षण की दर भी कुछ अधिक ली जा रही है। जिस क्लीनिक पर लिखा टंगा है कि यहाँ गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण नहीं किया जाता, प्रायः वहीं वह सबसे ज्यादा होता है।
        सरकार और योजना आयोग भी स्वीकार कर रहा है कि लड़कियों के लगातार घटते अनुपात का  कारण कन्या भ्रूण ह्त्या के बढ़ते मामले ही हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि कानूनन अपराध घोषित किये जाने के बावजूद अभी भी गर्भस्थ शिशुओं के लिंग परीक्षण कराये जा रहे हैं और शायद ऐसे मामले पहले की तुलना में अब और भी ज्यादा हैं।इससे चिंतित सरकार ने भले ही अगले पाँच वर्षों में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या 950 तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा है, लेकिन क्या बिना जनसहयोग के और बिना समाज की सोच बदले 914 की संख्या को बढ़ाकर 950 तक पहुँचा पाना आसान होगा ?
         लड़कियों की घटती संख्या के दुष्परिणाम सामने हैं।भारत के चरित्र को विश्व में हमेशा सर्वोपरि स्थान मिलता रहा है तो रिश्तों की पवित्रता और रिश्तों के प्रति ईमानदारी में भी भारत की कोई सानी नहीं रहा है।महज पिछले दो दशक के दौरान ये सारे मापदण्ड धराशायी होते दिखे हैं। अदालत ने समलैंगिक यौन संबंधों को सहमति की दशा में अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। यौन तुष्टि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जब लड़कों को लड़कियाँ नहीं मिल रहीं और परिपक्व आयु के बावजूद शादियाँ नहीं हो पा रहीं तो वे अनैतिक रास्तों से यौनाकांक्षाओं को पूरा करने की और उन्मुख होते हैं। दिल्ली लड़कियों की संख्या के मामले में सबसे पीछे है, प्रति एक हजार लड़कों के अनुपात में 866 लड़कियाँ।  साफ़ है कि प्रति एक हजार लड़कों में से 134 अर्थात साधे तेरह प्रतिशत लड़कों को कुँआरा ही रह जाना है। यौनाकांक्षायें तो फिर भी समाप्त नहीं होंगी, अर्थात व्यभिचार, अप्राकृतिक यौनाचार तथा बलात्कार की घटनाएँ बेतहाशा बढ़ेंगी। दिल्ली में लड़कियों की तादाद सबसे कम है तो उपरोक्त सारे दुष्कर्म दिल्ली में ही सबसे ज्यादा हो भी रहे हैं।

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वर्ष         प्रति हजार लड़कों पर लड़कियां
1961                976
1971                964
1981                962
1991                945
2001                927
2011                914
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सबसे कम लड़कियों वाले राज्य
दिल्ली                     866

उत्तराखण्ड               886

उत्तर प्रदेश               899

बिहार                     933

 झारखंड                 943
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       बेटियों का बचाया जाना आवश्यक है , अन्यथा सृष्टि का संतुलन गड़बड़ा जाएगा और साथ ही सामाजिक संबंधों का ताना- बाना भी।ऐसा भी नहीं है कि लड़कियों को जन्म देने के सभी विरोधी ही हों , लेकिन जिस प्रकार की यौनिक स्वच्छन्दता और उच्छ्रंखलता समाज में बढ़ती जा रही है उसे देखते हुए लोग अपनी बेटियों की सुरक्षा के प्रति कहीं अधिक आशंकित और चिंतित हैं। वे समाज को नहीं बदल सकते , माहौल को नियंत्रित नहीं कर सकते , इसलिए उन्हें सबसे कारगर उपाय यही नजर आता है कि बेटियाँ पैदा ही न होने दी जाएँ। लड़कियां होंगी तो वे शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्कूल- कालेज भी जायेंगी और आज के अर्थ प्रधान युग में अपनी योग्यता के अनुरूप काम भी करना चाहेंगी और कमाई भी।उन्हें बाहर जाना ही होगा जहां का वातावरण उनके लिए कतई सुरक्षित नहीं है और यही वजह है कि अधिसंख्य आधुनिकता के पक्षधर माता- पिता भी बेटियों की सुरक्षा के प्रति आशंका के कारण ही उन्हें जन्म देने से हिचकिचा रहे हैं।
       योजना आयोग की योजना चाहे जो हो , लेकिन जब तक भावी माता- पिताओं के मन बेटियों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्ति नहीं पैदा होगी , तब तक बेटियों की संख्या बढ़ा पाना आसान भी नहीं होगा। सड़क पर चलाती लड़कियों पर फब्तियाँ कसना, अशलील इशारे करना शहरों की जिन्दगी में अब आम हो गया है। ऐसे शोहदे प्रायः संपन्न घरों के कुसंस्कारों में पले लडके ही होते हैं। पुलिस मौजूदगी के बावजूद प्रायः ऐसी घटनाओं की अनदेखी करती है , यही वजह है कि शोहदों का दुस्साहस बढ़ता है और वे सामूहिक बलात्कार तक की घटनाओं को अंजाम देने में नहीं हिचकते। क्या योजना आयोग बेटियों की सामाजिक सुरक्षा की भी कोई योजना लाने जा रहा है, यदि नहीं तो महज बेटी बचाओ अभियान के फर्जी नारों से सार्थक परिणामों की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
        - एस .एन .शुक्ल



       blog link : snshukla.blogspot.com

Tuesday 8 January 2013

अव्यवस्था: दोष किसका

                                  अव्यवस्था: दोष किसका 


       भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्केंडेय काटजू ने कहा कि देश के 90 फीसदी भारतीय मूर्ख हैं। जिस पर देश की मीडिया ने आपत्ति जताई और इसे जस्टिस काटजू के विवादित बयानों की श्रंखला में एक और विवादित बयान करार दिया। पर क्या वास्तव में जस्टिस काटजू द्वारा दिया गया बयान विवादित या अमर्यादित है जबकि आज भी हमारा सामाजिक ताना- बाना जातिगत और धार्मिक विचारधारा  से ग्रसित है। कहने को तो हम आधुनिक है पर हमारी आधुनिकता का असली परिचय मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा माध्यम बन चुकी सोशल नेटवर्किंग साईटों पर बखूबी दीखता है, जहाँ प्रतिदिन हम जातिगत और धार्मिक लड़ाई लड़ते रहते है लेकिन वास्तविक जीवन में सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। दोष देश और देश की व्यवस्था का देते हैं , तब क्या हम खुद दोषी नहीं हैं ?
          स्वाधीनता के पैंसठ वर्ष बीत गए और भारतीय संसद के छ दशक, अर्थात स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से लेकर लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना के बीच जन्म लेने वाली एक समूची पीढी अब बुजुर्गों में गिनी जाती है।वह पीढी तो लगभग समाप्त प्राय है जिसने देश की आज़ादी की लड़ाई में सक्रीय भूमिका निभाई थी, या जिसने उस संघर्ष और ब्रिटिश सरकार के दमन के दौर को अपनी आँखों से देखा था।आज की युवा पीढी नहीं जानती कि वह देश की जिस आज़ाद हवा में सांस ले रही है, उसे हासिल करने में कितने देशभक्तों ने क्या-क्या सहा , कितनी कुर्बानियां दीं और कितने त्याग तथा बलिदानों की नीव पर भारतीय लोकतंत्र की इमारत बुलंद हुयी।
         राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जन्मदिवस देश की वर्त्तमान पीढी के लिए अब शायद ही कोई प्रेरणा देता हो,वरन यह उनके लिए बस एक छुट्टी का दिन है। नेताजी सुभाषचंद बोष का जन्म दिवस किस तिथि को होता है , यह देश के 70 फीसदी पढ़े-लिखे लोगों को भी पता नहीं है। आज़ाद, भगत सिंह, बिस्मिल,रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी , ऊधम सिंह की कुर्बानियां भी विस्मृत प्राय हो चुकी हैं, तो जिन राजनैतिक दलों अथवा सामाजिक संगठनों के बड़े-बड़े इश्तहारों में उन्हें आदर्श बताकर प्रचारित किया जाता है, वे उनके नामों को ब्राण्ड बनाकर अपनी दुकानें चलाते नज़र आ रहे हैं। आज का स्वाधीन भारत जिस और जैसे रूप में है वैसे स्वाधीन भारत की कल्पना तो गाँधी , सुभाष या हमारे क्रांतिवीरों ने नहीं की होगी।
         अपनी श्रेष्ठ परम्पराओं,अपने सामाजिक आदर्शों, अपने उच्चतम चरित्र, अपने ज्ञान और अपने मानव मूल्यों के कारण कभी जगदगुरू माना जाता रहा भारत यदि लम्बे समय तक परतंत्र रहा तो उसका कारण भी उसकी उदारमना प्रवृत्ति ही थी , और साथ ही अधिसंख्य भारतीयों की भावना कि " कोउ नृप होय हमहि का हानी " जैसी प्रवृत्ति। लोग दूसरों के दुःख से दुखी नहीं होते वरन अपने दुःख और दूसरों का सुख देखकर दुखी होते हैं। यह देश की आम आदत सी बन गयी है कि जब तक खुद पर संकट नहीं आता , तब तक लोगों की भावनाओं में उबाल भी नहीं आता। ट्रेनों, बसों और बाज़ारों की भीड़ में लड़कियों के साथ शोहदों की छेड़खानी को लोग चुपचाप देखते रहते हैं। लफंगों-गुण्डों की ज्यादती खुद के साथ न हो तो मुह फेरकर चले जाते हैं, जैसे कि  मुर्दे हों। तभी बुलंद होते हैं अराजक तत्वों के हौसले और चाँद लफंगे भीड़ पर भारी पड़ते हैं।बात यहीं तक सीमित नहीं है, बहुत से लोग तो अनायास अराजक तत्वों के समर्थन में खड़े होते भी दिखाते हैं। यह सब नया भी नहीं है। कभी शकों, हूणों , गौरी,गजनबी, सिकंदर,लोदी और मुगलों की मुट्ठी भर ताकतें विशाल भारत के लिए चुनौतियाँ बनीं। लुटेरों ने इस भीरु देश को केवल लूटा ही नहीं यहाँ आकर शासक भी बन बैठे। फिर वही डचों,पुर्तगालियों और अंग्रेजों ने भी किया। ब्रिटेन की एक व्यापारिक कंपनी ने इस देश की उदारता (भीरुता) का लाभ उठाकर देश पर राज करना प्रारम्भ कर दिया और सारा देश देखता रहा।
           ढाई सौ वर्ष की अंग्रेजों की गुलामी! इस बीच यदि किसी ने उनके विरोध में आवाज भी उठायी तो उसे जनसमर्थन नहीं मिल सका। वजह यह कि हम हिन्दू थे, मुसलमान थे ,सवर्ण थे, दलित थे, सैकड़ों जातियों-उपजातियों और सम्प्रदायों के बीच बाते हुए, जिनके बीच व्यावहारिक संबंधों का पूरी तरह अभाव था।ईश्वरीय न्याय पर भरोसा करने वाला देश लगातार अपनी गति को प्राप्त होता रहा।देश की स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वाले तब भी चंद  लोग ही थे। लम्बी लड़ाई के बाद स्वाधीनता मिली भी तो भी हम मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पाए। आज हम राजनैतिक दलों के गुलाम हैं। देश की 121 करोड़ की जनसंख्या किसी एक अपरिपक्व नेतृत्वकर्ता की और बड़ी अपेक्षाओं से देखने लगती है। जब उसके विरोधी उसकी आलोचना करते हैं तो यह देश उसके पक्ष और विपक्ष में बताने लगता है बिना किसी सार्थक बहस के, बिना किसी तर्क के और बिना अपने विवेक के इस्तेमाल के।सच समझाने और विवेक जगाने की जिम्मेदारी जिस बुद्धिजीवी वर्ग की होनी चाहिए वह बंद कमरों में बहस तो कर सकता है लेकिन जनता को जगाने और उसकी अगुवाई करने का साहस नहीं कर सकता।
       हम अफवाहों पर बहुत जल्दी भरोसा कर लेते हैं।सपने दिखाने वालों के पीछे दौड़ने लगते हैं। समग्र क्रान्ति के नारों के रथ पर सवार होकर सत्ता हथियाने वाली जनता पार्टी जब निजी स्वार्थों में फिर टुकड़ों में बात गयी तो उसके नेताओं का गिरेबान पकड़कर किसी ने पूछने की किसी ने जरूरत नहीं महसूस की कि कहाँ है उनकी सम्पूर्ण क्रान्ति। जब वी . पी . सिंह ने बोफोर्स टॉप सौदे में दलाली के आरोप लगाकर जनता का समर्थन हासिल कर राजीव सरकार को धकिया कर  सत्ता हथिया ली तो किसी ने उन पर सच को सामने लाने का दबाव नहीं बनाया। जब राम मंदिर आन्दोलन को हथियार बनाकर भाजपा सत्ता सुख भोग रही थी तो किसी ने यह नहीं पूछा कि जिस मुद्दे को लेकर उनहोंने देश की पुरातात्विक धरोहर नेस्त - नाबूद कर दी , उसके लिए वे क्या कर रहे हैं। हर चुनाव में एक नया नारा और हम सियासी कलंदरों के इशारे पर बंदरों की तरह नाचने वाले लोग, क्या यही भारत की नियति है ?

                                              गुनाहगार जनता भी है 

       आये दिन राजनैतिक पाले बदलने वाले लोग कभी इस दल और कभी उस दल की नाव पर सवार होकर चुनावी वैतरणी पार कर जाते हैं।  वोट देकर उन्हें  माननीय बनाने वाले तो आम मतदाता ही हैं, फिर क्या राजनीति और राजनेताओं से ज्यादा गुनहगार वे स्वयं नहीं हैं ? जो राजनेता पिछले चुनाव में दूसरे दल की आलोचना कर रहा था , उसकी नीतियों को जनविरोधी बता रहा था , यदि आज वह पाला बदलकर उसी दल की वकालत कर रहा है तो मतदाता उससे क्यों नहीं पूछते कि कल तक तो आप दूसरा ही राग आलाप रहे थे।
        सबसे बड़ी जिम्मेदारी मीडिया तंत्र की है जो खुद को समाज का सजग प्रहरी, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हुए ख़म ठोकता रहता है। प्रायः चुनावों के दौरान वे यह तो बताते हैं कि कौन कहाँ कमजोर या भारी पड़ रहा है लेकिन क्या मीडिया का यह दायित्व नहीं है की वह गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले राजनेताओं से सावधान रहने की जनता से अपील भी करे। मीडिया  तंत्र शासन, प्रशासन और जनता के बीच की कड़ी है ,तो उसकी यह जिम्मेदारी है कि वह जनसमस्याओं , जन आक्रोश की जानकारी शासन-प्रशासन तक पहुंचाए और यदि शासन- प्रशासन में कोई खामियां हैं तो उनसे जनता को भी आगाह करे। देश में जिस मतदाता वर्ग की सबसे अधिक संख्या है और जो मतदान में सबसे अधिक भागीदारी निभाता है, जिसकी सत्ता सौंपने और सत्ता हस्तांतरण में सबसे अधिक भूमिका है , उसका अधिकाँश हिस्सा शिक्षा और ज्ञान में सबसे अधिक पिछड़ा है।वे हर चुनाव में राजनेताओं और राजनैतिक दलों द्वारा बरगलाये जाते हैं और चुनाव सम्पन्न हो जाने के बाद वही सबसे अधिक उपेक्षित भी किये भी जाते हैं।उन्हें जगाना और सचेत करना मीडिया का पहला कर्त्तव्य है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो क्या उसकी सजग प्रहरी की भूमिका संदेहास्पद नहीं है ?
         यदि आज भारत की प्रतिष्ठा विश्व समुदाय के बीच घटी है तो उसके लिए केवल देश की राजनीति ही जिम्मेदार नहीं है।हम स्वयं भी कम दोषी नहीं हैं। एक प्राचीन बोध कथा याद आती है कि एक बार हंस के एक जोड़े (नर-मादा ) ने लम्बी उड़ान भरी ,इतनी लम्बी कि  दिन का प्रकाश शेष रहते उनकी वापसी संभव नहीं रह गयी। फिर लम्बी उड़ान की थकान भी थी इसलिए हंस और उसकी मादा ने एक गाँव के बाहर खड़े बड़े से पेड़ पर रात बिताने का निश्चय किया।गाँव कुछ उजाड़-उजाड़ सा था इसलिए रात को हंसिनी ने हंस से गाँव की दुर्दशा के प्रति जिज्ञाशा प्रकट की तो हंस ने बताया कि इस गाँव पर एक उल्लू की कुदृष्टि पद रही है इसीलिये गाँव बर्बादी की ओर  उन्मुख है।
         उल्लू उसी पेड़ की जड़ में बने कोटर में बैठा था। उसे अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं हुयी और जब सुबह हंस का जोड़ा फिर अपनी उड़ान की तैयारी कर रहा था , तो उल्लू ने हंस से कहा कि तुम जहां चाहो जा सकते हो , लेकिन यह हंसिनी नहीं जायेगी, क्योंकि यह मेरी है।हंस ने प्रतिवाद किया कि तुझ जैसी निम्न कोटि के पक्षी की हंसिनी कौन मान लेगा भला ? उल्लू ने कहा कि फिर इस बात का फैसला गाँव वालों से ही करा लो , जो वर्षों से इसे मेरे साथ इसी पेड़ पर रहते देख रहे हैं।
         हंस इस बात पर सहमत हो गया। उसे विशवास  था कि गाँव के लोग यह झूठ नहीं बोलेंगे कि हंसिनी उस उल्लू के साथ पेड़ पर रह रही होगी। फिर दोनों पक्ष गाँव की पंचायत के सामने थे और उल्लू ने पंचों के सामने दावा ठोकते हुए कहा कि यह हंसिनी वर्षों से उसके साथ गाँव के बाहर पेड़ पर रही है , आज यह हंस उसे अपनी बताकर अपने साथ ले जाने की जिद कर रहा है, इसलिए मैं आप पंचों के पास न्याय के लिए आया हूँ। आप लोग जो भी फैसला करेंगे वह हम दोनों पक्षों को स्वीकार्य होगा।
         पंचों ने थोड़ी देर आपस में कानाफूसी की और सबने तय किया कि यदि वे सच कहेंगे तो हंस अपनी मादा को लेकर उड़ जाएगा। यदि वे उसे उल्लू की बता देंगे तो वह यहीं रहेगी और गाँव के लोगों को भी रोज हंसिनी के दर्शन का लाभ मिलेगा। फिर  था , पंचों ने समवेत स्वर में कहा कि हंसिनी तो उल्लू की ही है क्योंकि उसे वर्षों से उसी के साथ गाँव के बाहर पेड़ पर रहते देखा जा रहा है। हंस शर्त हार चुका था, पंचों से उसे न्याय नहीं मिला, इसलिए वह हंसिनी को वहीं  छोड़ खिन्न मन से चल दिया।
            अभी वह कुछ कदम ही गया होगा कि उल्लू पंख फराफराता हुआ उसके पास पहुँचा और बोला,ठहरो ! हंस ने अनिक्षा से उसकी और देखा और बोला, अब क्या चाहते हो ? उल्लू बोला मैं चाहता कुछ भी नहीं, तुम्हारी हंसिनी भी नहीं, लेकिन जो तुम रात को कह  रहे थे कि यह गाँव उल्लू की कुदृष्टि के कारण बर्बादी की कगार पर है, क्या अब भी वही मानते हो ? अरे जिस गाँव के लोग पक्षियों में सर्वश्रेठ हंसिनी को उल्लू की बता सकते हैं, उल्लू को सौंप सकते हैं , वे अपने कर्मों की वजह से बर्बादी की और जा रहे हैं या उल्लू की कुदृष्टि के कारण ?
      यही कहावत इस समय इस देश पर भी चरितार्थ हो रही है। जाति , धर्म, सम्प्रदाय , क्षेत्र और ऊँच - नीच के फिरकों में बाते देश के लोग यदि सत्ता की हंसिनी उल्लुओं को सौंपकर खुश हो रहे हैं , तो इस देश को बर्बादी से कौन बचा सकता है ?
    
                         - एस .एन .शुक्ल
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